क्षमा, बुद्धिमत्ता और विचारशीलता

April 1969

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उत्तरदायित्व पूर्ण व्यक्ति को चाहे वह किसी भी उम्र का हो अपना दृष्टिकोण, अपनी बात, अपनी मान्यता किसी पर बलपूर्वक आरोपित नहीं करनी चाहिये क्योंकि दूसरे लोगों को भी अपना मत व्यक्त करने का अधिकार है। कई बार यह मत अपनी भावना के अनुकूल नहीं बैठते। कई बार तो वे अहितकर भी होते हैं पर हमें यह मानना चाहिये कि परिस्थिति के अनुरूप हर व्यक्ति की विचार-धारायें भिन्न होती हैं। ऐसे अवसर पर हठधर्मी से अड़े रहना या अपने अपमान की बात समझना कोई बुद्धिमतां नहीं है।

सबके मस्तिष्क अलग-अलग हैं सोचने विचारने के भी सबके अलग अलग हैं। स्वतन्त्र दृष्टिकोण पर अप्राकृतिक दबाव नहीं होना चाहिये। मनुष्य का हृदय इतना उदार होना चाहिये कि वह ऐसे अवसरों की उपेक्षा कर दिया करें। हँसकर टाल दिया करें और उस व्यक्ति को क्षमा कर दिया करें जो अल्प-बुद्धि के कारण कोई ऐसा काम कर रहा है जो आपकी दृष्टि में अनुचित अनपेक्षित है।

संसार के अन्य प्राणियों के साथ हमारा कोई रिश्ता नहीं। यदि कुछ है तो प्रेम और सहयोग का ही रिश्ता है। प्रेम न हो, अल्प-विकसित को ऊपर उठाने की सहयोग भावना न हो तो फिर अपने कुटुम्ब का ही व्यक्ति अपरिचित सा लगता है। इस रिश्तेदारी को चिरस्थापित प्रदान कैसे करोगे? आपके समीपवर्ती सभी आपकी इच्छाओं के अनुगामी तो नहीं बन सकते। तब फिर प्रेम और सहयोग की भावना कैसे बनी रहेगी। उसका एक उपाय है - क्षमा। उदारतापूर्वक मानवीय भूलों को क्षमा करते रहने से साँसारिक सम्बन्धों में मधुरता बनी रहती है। जिस व्यक्ति के द्वारा बार-बार गलतियाँ हो रही हैं, आपकी क्षमा उसे भी सही रास्ते पर ला सकती है।

जेम्स एलेन एक स्थान पर लिखते हैं- “क्षमा न करना और प्रतिशोध लेने की इच्छा रखना, दुःख और कष्टों के आधार हैं। जो व्यक्ति इन बुराइयों से बचने की अपेक्षा उन्हें अपने हृदय में पालते और बढ़ाते रहते हैं, वे जीवन के सुख और आनन्द से वंचित रह जाते हैं। वे आध्यात्मिक प्रकाश का लाभ नहीं ले पाते जिसके हृदय में क्षमा नहीं उसका हृदय कठोर हो जाता है। उसे दूसरों के प्रेम, मेल-जोल प्रतिष्ठा एवं आत्मसन्तोष से वंचित रहना पड़ता है। बुद्धिमतां और विचारशीलता का यह तकाजा है कि मनुष्य छोटी-मोटी गलतियों पर क्षमा करने की आदत बना लें।

क्रोध का कारण ढूंढ़िये- आपको जिस पर क्रोध आ रहा है उससे कुछ भूल हुई है? कोई गलती की होगी उसने? अवश्य कोई ऐसा काम कर डाला होगा, जो आपको न रुचा हो और नाराजगी प्रकट हुई हो। असल में जो कुछ हुआ वह उचित था या अनुचित यदि उचित था तो फिर क्रोध का प्रश्न ही नहीं उठता। अनुचित हुआ तो भूल अनिच्छापूर्वक या बलात् हो गई होगी ऐसी भूलें हर मनुष्य से हो जाती हैं। आपने भी कई बार की हैं और जब कोई आपको झल्लाया हे तो आपने भावना बनाई कि - गलती से कुछ हो गया तो ये उसे क्षमा भी नहीं कर सकते? जिस कारण वह गलती हुई, वस्तुतः दोष भी उसे ही देना चाहिये। परिस्थितियों को हुँकारो, व्यक्तियों को नहीं। गलती करने वाले को क्षमा करने से हृदय साफ रहेगा और परिस्थिति को समझने का अवसर आयेगा, इस तरह जागरूकता और सावधानी बरतने का स्वभाव विकसित होगा।

क्षमा विशाल अन्तःकरण की भावाभिव्यक्ति है। स्वयं बुरा न मानना और दूसरों का हृदय न दुखाना ये दोनों बातें साथ-साथ चलती हैं। जब एक व्यक्ति दूसरों की बातों और कामों से बुरा नहीं मानता और दुखी भी नहीं हो इससे स्पष्ट है कि उसके हृदय में दया की भावना है, करुणा जीवित है, स्नेह जागृत है, वह दूसरे का पूरा-पूरा ख्याल रखता है, इसीलिये दूसरे लोग भी उससे प्रेम करते हैं और सहानुभूति का व्यवहार करते हैं। ऐसे वातावरण में किसी को न भय होता है, न अविश्वास। आत्मीयता को जीवित रखने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि गलतियों को हम उदारतापूर्वक क्षमा करना सीखें। ऐसे वातावरण में पलने वाले अविकसित बच्चे बड़े निडर आत्मविश्वासी होते हैं यह कहना गलत है कि उनमें अनुशासन हीनता पनप सकती है। प्रेम न मिलने का डर उसे अनुशासन हीन न होने देगा, जबकि उसकी कायरता और मानसिक कमजोरियों का भी अन्त हो जायेगा।

क्षमा आध्यात्मिक स्वभाव है। क्रोध के आवेश में जब कभी सहनशीलता का अन्त होने लगे तो विचारों क्या क्रोध से तुम्हें स्वतः खीझ और दुःख न होगा? अपना थोड़ा सा जीवन है यदि गुस्सा करें तो सारा जीवन लोगों की गलती ढूँढ़ने नुक्ताचीनी करने में ही समाप्त हो जाये। आनन्द प्राप्त करने का अवसर ही न रहे। क्रोध वीरता का लक्षण नहीं। वीरता का लक्षण हैं- धैर्य, सहनशक्ति। जो जितना सहन कर सकता, पचा सकता है, वह उतना ही बहादुर है उतने ही अंश में आनन्द का उपभोक्ता है। हम मधुरता बरतें, सहनशील बनें तो फिर क्रोध के कारण खिन्नता का अवसर ही न आयेगा।

क्रोध को क्रोध से जीतने का प्रयास करना बड़ा भारी बिगाड़ पैदा करना है। छोटे छोटे उलाहने, शब्दों की मार, नुक्ताचीनी ताने मारना, व्यंग करना, प्रतिशोध या घृणावश बुरे नहीं जान पड़ते पर मन, मस्तिष्क और आत्मा पर इनका विषवत् दुष्प्रभाव पड़ता है। यह दोष शरीर को कमजोर बनाते हैं, मस्तिष्क को खोखला और आत्मा को अपवित्र। क्षमा एक ऐसी मुस्कान पैदा करती हैं, हृदय में ऐसी थिरकन पैदा करती हैं, जिससे बड़ी-बड़ी परिस्थितियाँ भी ऐसे ढेर हो जाती हैं, जैसे अग्नि की तीक्ष्णता में ऊबड़-खाबड़ मोटे गीले लक्कड़ जलकर राख हो जाते हैं। आत्मा की निष्कलुषता का जिसे आनन्द पाना हो उसे क्षमाशील बनना चाहिये।

इसका यह अर्थ नहीं कि जो गलती कर रहा है, उसे समझाया न जाये। समझाओ और आवश्यकता पड़े तो धमका भी दें, किन्तु जब अवसर हो। उपयुक्त समय पर ही कड़वी बात भी मीठी लगती है। प्रातःकाल सूरज की किरणें और मधुर लगती हैं, आरोग्यवर्धक होती हैं, दोपहर में वही प्रचण्ड हो उठती हैं और लोगों को बीमार तक कर देती हैं। आवेशपूर्ण स्थिति को टाल दो और फिर जब उग्रता का वातावरण समाप्त हो जाये या एकान्त में प्रिय व्यक्ति से मिला तो उनसे अपनी बात नम्रतापूर्वक समझाओ, समझाने में परिहास या कटुता न हो तो आपकी बात को बिलकुल समर्थन और सफलता न मिले यह बिलकुल असम्भव नहीं।

बार-बार सताये जाने, तंग करने या कटु बोलने से अच्छे लोगों के मन में भी बुरे भाव उत्पन्न हो जाते हैं। संकुचित दृष्टिकोण के कारण कई बार ऐसी गलतफहमी होती हैं जो दोनों व्यक्तियों के जीवन में कटुता और निराशा की आग पैदा कर देती है, ऐसी हानिकारक परिस्थितियों से बचने का एकमात्र उपाय यह है कि हमारे जीवन में व्यवहारिक मधुरता का समावेश रहे। नम्रता, मीठी बोली का अभ्यास तो हो ही क्षमा करने की उदारता भी कम न हो।

महात्मनः! स्वर्ग का अधिकार किसे मिलता है? एक ग्रामीण ने महाप्रभु ईसा से प्रश्न किया। पास ही एक बालक खेल रहा था, ईसामसीह ने उसे उठाकर संकेत किया - इसे।

आपका आशय नहीं समझा महात्मन्, ग्रामीण ने फिर कहा। ईसा हँसे और बोले- “जो बच्चे की तरह भोला और निरहंकार है, वही स्वर्ग का अधिकारी है।

मनुष्य की सारी बुद्धिमतां और विचारशीलता परिस्थितियों और झगड़ों को प्रयत्नपूर्वक सुलझाने में होती है। कलह और कटुता से तो समस्यायें और भी उलझकर विद्रूपता धारण कर सकती हैं। क्षमा उन परिस्थितियों से बचने का प्रकाश है। सारा व्यक्तित्व ही एक तरह से इस कसौटी का परीक्षण है, जो जितना विचारशील ओर बुद्धिमान है, उसे उतना ही उदार और क्षमा करने वाला होना चाहिये। जो क्षमाशील है उसके लिए संसार में कोई शत्रु नहीं, कोई भय नहीं, कोई अन्तर्द्वन्द्व नहीं।


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