अपनों से अपनी बात- - हमारी प्रेम साधना और उसकी परिणिति

April 1969

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शरीर में जब प्राण रहता है तो आँखों में देखने की, कानों में सुनने की, जीभ में चखने की, हाथों में करने की, पैरों में चलने की शक्ति बनी रहती है। भीतर के कल-पुर्जे दिल-दिमाग आँत, दाँत सभी अपना काम करते रहते हैं। किन्तु जब शरीर को छोड़कर प्राण चला जाता है, तब समस्त इन्द्रियाँ और कल-पुर्जों की शक्ति समाप्त हो जाती है और वे कुछ ही समय में सड़-गलकर विद्रूप बन जाते है। जिस प्रकार शरीर के क्रिया-कलाप में प्राण-तत्त्व की महत्ता है, उसी प्रकार आत्मिक क्षेत्र में प्रेम-तत्त्व का आधिपत्य है। अन्तरंग क्षेत्र में प्रेम भावना का जितना प्रकाश और विकास हुआ होगा, उसी अनुपात से अन्य सद्गुण जिन्हें विभूतियाँ कहा जाता है, उगने और बढ़ने लगती है।

अपनी आत्मिक प्रगति का रहस्य बताते जाना आवश्यक था, सो इस लेखमाला में उसके पर्त क्रमशः खोलते चले जायेंगे और इन दो-ढाई वर्षों में जो कुछ कहना आवश्यक था, उसका अधिकांश भाग कह लेंगे। बहुत से अनुभव और निष्कर्ष हमने अपनी साठ वर्ष की जीवन साधना में एकत्रित किये है, यह उचित ही था कि उन्हें साथ ले जाने की अपेक्षा परिजनों के सामने खोलकर रख दिया जाये। हमने अपना भरा हुआ मन खाली करना आरम्भ कर दिया है, ताकि संचय का यह अन्तरंग भार भी हल्का हो जाय। ब्रह्मा जीवन के भार तो समय-समय पर हल्के करते रहे हैं। जो शेष है वे अगले दिनों हल्के कर देंगे हमारी ब्रह्मा उपासना पद्धति में गायत्री पुरश्चरणों

(1) हमारी प्रेम साधना और उसकी परिणति

आत्म बल जो कि व्यक्ति की महानता और सुख शांति का आधार है, आन्तरिक सद्गुणों पर अवलम्बित है और वे गुण किसी अभ्यास, प्रयोग से पाये, बढ़ाये नहीं जाते वरन् प्रेम -तत्त्व की स्थिति के जुड़े होने के कारण उसी अनुपात से घटते-बढ़ते हैं, जैसे कि प्रेम भावनाओं का उत्कर्ष, अपकर्ष होता है। तालाब में पानी जिस हिसाब से बढ़ता है, उसी अनुपात में कमल बेल का डंठल भी बढ़ जाता है और कमल के पत्र-पुष्प हर स्थिति में पानी से ऊपर ही बने रहते हैं। प्रेम-तत्त्व अन्तःकरण में जितना होगा, उसी अनुपात से सद्गुणों का विकास होगा और इसी विकास से आत्म-बल ही मनुष्य की गरिमा का सार है और उसी के बल पर ब्रह्म और आन्तरिक ऋद्धि-सिद्धियाँ उपलब्ध की जाती है।

की लम्बी शृंखला का प्राधान्य रहा है। कितने वर्षों तक, कितनी संख्या में, किस विधान में, किन नियम-संयमों के साथ उस उपासना क्रम को चलाया जाता रहा, समयानुसार इसकी भी चर्चा करेंगे। इस समय तो तथ्य की उस आधार शिला पर ही प्रकाश डाल रहे हैं, जिसके बिना कोई पूजा पद्धति सफल नहीं होती। अन्तःकरण की मूल स्थिति वह पृष्ठभूमि है, जिसको सहज बनाकर ही कोई उपासना लंबी हो सकती है। उपासना बीज बोना और अन्तःभूमि की परिष्कृत जमीन ठीक करना है। बीज बोने से फसल उगती है, यह बात सही है पर यह और भी सही है कि अच्छी जमीन जिसमें खाद, पानी, जुताई, गुड़ाई, निराई, रखवाली आदि की समुचित व्यवस्था की गई हो, किसी बीज को अंकुरित और फलित करने में समर्थ हो सकती है। इन दिनों लोग यह भूल करते है, वे उपासना विधानों और कर्मकाण्डों को ही सब कुछ समझ लेते है और अपनी मनोभूमि परिष्कृत करने की ओर ध्यान नहीं देते।

पथरीली, सूखी, खारी, ऊसर धरती में अच्छे बीज भी नहीं उगते। फिर विकृत मनोभूमि में कोई उपासना क्यों कर फलवती होगी? यह सही नहीं कि केवल भजन मात्र से मनोभूमि शुद्ध हो जाती है। यदि यह मान्यता सही रही होती तो भारत 56 लाख सन्त-महन्त आज प्राचीनकाल के सात ऋषियों की तुलना में 8 लाख गुना प्रकाश उत्पन्न कर सकते में समर्थ हो गये होते। देखा यह जाता है कि बहुत भजन करने पर भी वे सामान्य किसान मंजूर की तुलना में भी आत्मिक दृष्टि से पिछड़े हुए है। इन उदाहरणों को देखते हुए यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि उपासना का प्रतिफल तभी मिल सकता है, जब मनोभूमि का विकास तदनुरूप हो। रामकृष्ण परमहंस को काली की प्रतिमा अपने अस्तित्व का पग-पग पर परिचय देती थी पर उसी मन्दिर के अन्य पुजारी जो दिन रात सेवा-पूजा में लगे रहते हैं, कुछ भी अनुभव नहीं पाते। मीरा के ‘गिरधर गोपाल उनके साथ नाचते थे पर वह प्रतिमा आज भी उसी तरह विद्यमान् होने पर भी कोई अलौकिकता प्रकट नहीं करती। उसमें महत्व प्रतिमा या उपासना का नहीं, गरिमा साधक की मनोभूमि की है। सो लोग उसी की उपेक्षा कर बैठे, फिर शास्त्रोक्त परिणाम कैसे मिले?

हमारी गायत्री उपासना जिस सीमा तक सुलभ हो सकी, उसमें प्रधान कारण यह था कि अपने मार्ग दर्शक ने गायत्री पुरश्चरणों का विधान बताने ओर आरम्भ कराने से पूर्व मनोभूमि के परिष्कार की बात बहुत जोर देकर समझाई और कहा उपासना विधान में रही त्रुटियों से कुछ बहुत बिगड़ने वाला नहीं है पर यदि भावनात्मक स्तर को ऊँचा न उठाया गया तो सारा श्रम निष्फल चला जायेगा गन्दी और संकीर्ण मनोभूमि वाले साधक बहुत हाथ-पैर पीटते रहने पर भी खाली हाथ रहते है और असफलता ही पाते है, किन्तु जो अन्तःकरण को परिष्कृत करते चलते है, उनकी साधना लहलहाती फसल की तरह उगती, बढ़ती और फलवती होती है, इसलिये हमें उस ओर पूरी सतर्कता और अभिरुचि के साथ प्रयत्नशील रहना होगा वैसा ही हमने किया भी।

मनोभूमि के परिष्कार में जो सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू है, वह है अन्तःकरण में प्रेम-तत्त्व का अभिवर्धन उपनिषदकार ने ईश्वर के भावनात्मक स्वरूप की व्याख्या करते हुए कहा है-रसो वै स’ अर्थात्-- ‘प्रेम हो परमात्म है।’ किसी व्यक्ति के कलेवर में परमात्मा ने कितने अंश में प्रवेश किया, उसकी परख करनी हो तो यह देखना होगी कि उसके अन्तःकरण में प्रेम भावनाओं की उपस्थिति कितनी मात्रा में है। थर्मामीटर से बुखार नापा जाता है और आत्मा का विकास प्रेम तत्त्व की मात्रा के अनुरूप समझा जाता है। जिसमें प्रेम भावना नहीं वह न तो आस्तिक है और न ईश्वर भक्त, न भजन जानता है, न पूजन। निष्ठुर, नीरस, सूखे, तीखे, स्वार्थी संकीर्ण, कड़ुए, कर्कश, निन्दक, निर्दय प्रकृति के मनुष्यों को आत्मिक दृष्टि से नास्तिक एवं अनात्मवाद ही कहा जायेगा भले ही वे घण्टों पूजा-पाठ करते हों अथवा व्रत-उपासना स्नान-ध्यान तीर्थ-पूजन कथा-कीर्तन करने में घण्टों लगाते रहे हों।

अपने हाथ सही सिद्धान्त, सही मार्ग और सही प्रकाश आरम्भ से ही लग गया। मार्ग दर्शक ने पहले ही दिन सब कुछ बता दिया। उन्होंने अहैतुकी कृपा करके सूक्ष्म शरीर में पधार कर अनुग्रह किया और 15 वर्ष की आयु में ही उस मार्ग पर लगा दिया, जिस पर चलने से ही आत्म-बल बढ़ता है और उस उपलब्धि के आधार पर ही जीवन लक्ष्य की पूर्ति के लिये आवश्यक प्रकाश मिलता है। बताया और सिखाया यह गया है कि प्रेम भावना के जितने बीजांकुर अन्तःकरण में विद्यमान् है, उन्हें यत्न-पूर्वक संभालना, सींचना चाहिये। साँसारिक दृष्टि से घाटा दिखता हो तो भी इस भाव-सम्पदा को बढ़ाते चलना चाहिये।

किसान बीज बोते समय खोता है पर अन्त में उसका यह विवेकपूर्ण त्याग और साहस उस घाटे में नहीं रहने देता। बीज की तुलना में बहुत गुनी उपलब्धि उसे बढ़िया सल के रूप में समयानुसार मिल जाती है। अध्यात्म के इस मूलतत्त्व को हमने समझा और अपनाया।

अपनी जीवन साधना की सफलता का जो आधार है, उनमें यह सर्वप्रथम और सर्वप्रधान है। प्रेम को हम परमेश्वर मानते है और उसकी उपासना साधना में सतत मग्न रहने का प्रयत्न करते है। पूजा तो हमारी कुछ घण्टे की ही होती है पर लगन सोते-जागते यही लगी रहती है कि प्रेम का अमृत चखाने और चलने का कोई अवसर हाथ से जाने न पाये। यह वह उपक्रम है जो क्रमशः हमें प्रगति पथ पर एक सीमा तक बढ़ाते चलने से सफलता प्रदान कर सका।

जनवरी और फरवरी की अखण्ड-ज्योती के इसी स्तम्भ में ‘विदाई की घड़ियाँ' और हमारी विरह वेदना’ की जिस अभिव्यक्ति की चर्चा हुई है उसका कारण और आधार समझा सकना उनके लिये कठिन है, जिनकी मनोभूमि सूखी और रूखी पड़ी है। उनके लिये यह एक मोहग्रस्त का प्रलाप-विलाप भी हो सकता है पर वस्तुतः वैसी बात है नहीं। जब हम भौतिक दृष्टि से शरीर को भी अपना नहीं मानते, अपना ब्रह्म और अन्तरंग सर्वस्व उस समग्र सत्ता को सौंप चुके तो लोभ और मोह किसका? जीवन को जब मृत्यु के साथ विवाह दिया तो विदाई और बिना विदाई में अन्तर क्या? भौतिक और लौकिक पैमाने के ओछे गज से नापा जाय तो हमारी इन दिनों की व्यथा-वेदना अज्ञानी मोह-ग्रस्तों जैसी लगेगी पर उस सब भूमिका का अनुमान लगा सकता किसी के लिये सम्भव हो तो वह यही अनुभव करेगा कि अपशब्द का तनिक-सा विछोह प्रेम-तत्त्व के उपासक के लिये कितना तड़पन भरा होता है। इस रहस्य को समझने के लिये हमें मीरा का अध्ययन करना पड़ेगा

प्रेम के साथ अनन्य आत्मीयता की जो तड़पन जुड़ी होती है, वह देखने में घायल दर्द जैसी लगती है पर उसमें भी उसे एक ऐसा रस आता है, जो और भी अधिक निखार लाता चला जाता है। ‘घायल की गति घायल जाने जो कोई घायल होइ पदर विधानी मीरा डोले म्हारो दरद न जाने कोई।’ यह हर प्रेमी की मनोदशा होती है। लगती तो यह बेचैनी ओर अशान्ति है पर वस्तुतः उसी प्रसव पीड़ा में उदात्त अन्तःकरण का प्रजनन होता है। सारा भक्ति साहित्य इसी रहस्य और मर्म से भरा पड़ा है।,

यदि हमारी गायत्री उपासना के ब्रह्म कलेवर को उखाड़ कर उसके अन्तरंग को देखा जाना जाय तो उसके गहन में प्रेम तत्त्व की साधना का विशाल विस्तार परिलक्षित होगा। मातृत्व की साकार प्रतिमूर्ति को हमने गायत्री माता के रूप में देखा और उसे वैसे ही प्यार किया जैसा एक छोटा बालक अपनी सगी माता को कर सकता हैं लोग सिर फोड़ी करते रहते है कि गायत्री साकार नहीं निराकार है। हम इस बहस में नहीं पड़ते कि वह क्या है? वस्तुतः वह सब कुछ है-- जो सब कुछ है वह क्या नहीं है? वस्तुतः वह सब कुछ है उसे किसी आकृति में देखने से क्या गर्ज? निराकार नहीं है हम यह कब कहने है, पर उसे साकार मानना भी अनुपयुक्त नहीं है। बिजली निराकार है पर वह बल्ब के भीतर साकार भी देखी जा सकती है? माता की साकार छवि को हमने अपनी प्रेम भावना के विकास में एक महत्त्वपूर्ण माध्यम माना और उसकी प्रतिक्रिया एवं प्रतिध्वनि के रूप में अविरल वात्सल्य का दैवी अनुदान निरन्तर पाया।

परमात्मा का प्रेम अपने विकसित स्वरूप में एक कदम आगे बढ़ते हुए गुरु-भक्ति के रूप में फलित हो सका। भगवान् की साकार-निराकार प्रतिमा तो हमें कल्पना-स्तर में अपनी बनानी पड़ती है, पर सतोगुण आत्म-बल और दैवी तत्त्व से भरे-पूरे महामानव की प्रतिमा तो हमें बढ़ी, बनी, हँसती-बोलती चलती-फिरती साक्षात् मिल गई। प्रेम साधना के लिये यह और भी सरल माध्यम दीखा। सो हमने अपने मार्ग-दर्शक पर उतनी ही निष्ठा आरोपित की जितनी परमेश्वर पर की जा सकती है। एक बार जाँच, परख लेना और सोच समझ लेना भी आवश्यक था, सो यथा मति कर लिया। पूरी परख तो हो भी नहीं सकती, पूर्णता प्राप्त तो कोई शरीरधारी है भी नहीं, फिर सतर्क, चतुर और अविश्वासी भी तो आये दिन धोखा खाते रहते है।

यदि एक महान् प्रयोग में कहीं कुछ गड़बड़ी भी मिली तो अपना सहज विश्वास और निर्मल प्रेम अपने लिये तो उज्ज्वल परिणाम ही उत्पन्न करेगा। जिस पर प्रेम बोया गया, यदि वह गड़बड़ होगी तो उसकी गड़बड़ी उसी के वापिस चली जाएगी अपनी श्रद्धा अपने साथ सत्परिणाम लेकर लौटेगी, इसलिये यह मान लिया गया कि अपने को कोई जोखिम नहीं है। जीविका साँसारिक घाटे की रहती है तो अध्यात्म मार्ग क पथिक को उसे आरम्भ में ही शिरोधार्य करना पड़ता है। निश्चय ही यह मुनाफ़ा कमाने का व्यापार नहीं ह।। साँसारिक दृष्टि से हर अध्यात्मवादी को घाटे के बजट बनाने पड़ते है, तभी उसकी आत्मिक प्रगति के साधन सरंजाम जुड़ते है। जो साँसारिक लाभ के लिये आध्यात्म मार्ग में प्रवेश करता है, उसे निराश ही होना पड़ता है। दोनों परस्पर विरोधी दिशायें है, एक को खोकर दूसरी पाई जा सकती है। यह न पहले से रहने के कारण कभी मन में यह आशंका नहीं उठी कि गुरुदेव का बताया कोई मार्ग अपने लिये भौतिक हानि का तो नहीं होगा। जहाँ विश्वास वहाँ प्रेम, जहां प्रेम वहाँ विश्वास। बाजीगर के हाथ में अपने तार बाँधकर मुरली बहुत कुछ करते हुए भी कुछ नहीं करने का आनन्द लेती रहती है गुरुदेव की आत्म-समर्पण करके हमने खोया क्या? केवल पान ही था सो पाया जी। पाते चले ही आ रहे है और आगे तो और अधिक पाना है।

अपने मार्ग-दर्शक के प्रति हमारी प्रेम साधना का वाद साँसारिक रिश्तों से तौला जाय तो उसकी उपमा पतिव्रता स्त्री के अगण्य पति प्रेम से दी जा सकती है। उनकी प्रसन्नता अपनी प्रसन्नता है, उनकी इच्छा अपनी इच्छा। अपने व्यक्तित्व के लिये भी कुछ चाहने -माँगने की कल्पना तक नहीं उठी। केवल इतना ही सोचते रहे अपने पास जो कुछ है, अपने से जो भी सम्पदायें विभूतियाँ जुड़ी हुई है, वे सभी इस आराध्य के चरणों पर समर्पित हो जाएँ उनके व्यक्तित्व में धुल जाएँ, उनके प्रयोजनों में खप जाय, ऐसे अवसर जब भी, जितने भी आये हमारे संतोष ओर उल्लास की मात्रा उतनी ही बढ़ी यह गुरु-भक्ति हमारे लिये कितने बड़े वरदान ओर उपहार लेकर वापिस लौटती रही है, इसकी चर्चा इस समय अप्रासंगिक ही रहेगी। दूसरे क्षुद्र लोगों की तरह हमने भी गुरु-शिष्य का ढोंग बनाकर अपनी कामना पूर्ति की माँग पर माँग रखी होती और प्रेम की लाभदायक धन्धे के रूप में मछली पकड़ने का जाल बनाया होता तो निराश और शिकायतों भरा मस्तिष्क लेकर ही खाली ही लौटना पड़ता। दिव्य तत्त्व में आखिर इतनी अकल तो होती है कि मनुष्य की स्वार्थपरता और प्रेम भावना की वस्तुस्थिति का अन्तर समझ सके। दण्डवत, प्रणाम और आरती स्तवन से नहीं वहाँ तो केवल वस्तुस्थिति ही प्रभावी सिद्ध होती है। गुरुदेव पर आरोपित हमारी प्रेम साधना प्रकारान्तर से चमत्कारी वरदान बनकर ही वापिस लौटी है, लौटती रहेगी।

हमारी प्रेम साधना की तीसरी धारा-प्रवाह ‘परिवार’ की ओर है। यों कहने सुनने में परिवार एक संकीर्णता ही लगता है। परिवार से- गायत्री परिवार या युग-निर्माण परिवार से ही मोह क्यों? सारे संसार से क्यों नहीं? इस सन्देह का समाधान जानने के लिये हमें व्यवहारिकता की भूमिका में उतरना होगा। समस्त विश्व ब्रह्माण्ड को सिद्धांतत भगवान् का विराट् रूप मान जाता हैं। विश्व की, प्राणि-मात्र की, जड़-चेतन की सेवा ही भगवान् की सेवा है। इसे सिद्धान्त के रूप में ही सही माना जा सकता है, व्यवहार में उसकी कोई प्रतिक्रिया बनती नहीं। समस्त ब्रह्माण्ड में भगवान् व्याप्त है। पर उसके साथ संपर्क नहीं बन सकता। सम्पर्क हम केवल पृथ्वी भर तक रख सकते है। हमारी पहुँच इससे आगे नहीं है।

समस्त जड़-चेतन में भगवान् है पर समुद्र तल या भूगर्भ में हमारी पहुँच से बाहर पदार्थों के साथ हमारा व्यवहारिक सम्पर्क कैसे जुड़े? इसी प्रकार समस्त प्राणियों को भगवान् का स्वरूप मानकर भी हम उन प्राणियों के समीप नहीं जा सकते, जो हमारी पहुँच से बहुत दूर जल थल या आकाश में विचरण करते रहते है। मछलियों की, मच्छर-मक्खियों की, कीट-पतंगों की सेवा करना भी सिद्धांतत ठीक है पर व्यवहार में मनुष्य ही उस क्षेत्र में आता है, क्योंकि उसकी स्थिति से अपनी स्थिति मिलती है। मनुष्यों में भी हम बहुत दूर के निवासी, अन्य भाषा बोलने वाले या मनोभूमि के लोगों के साथ सम्पर्क बनाने में असमर्थ है। समीपवर्ती, समान स्थिति के लोगों से सम्बन्ध साथ कर ही हम विश्व मानव की "वसुधैव कुटुम्बकम्” की भावना को चरितार्थ कर सकते हैं। व्यवहार में इतना ही वह महान् सिद्धान्त प्रयुक्त हो सकता है। इसलिए विश्व भक्ति का ही व्यवहारिक स्वस्थ देश-भक्ति मानी गई है। प्राणि-मात्र की सेवा का आदर्श मानव सेवा में ही चरितार्थ होता है। जिस प्रकार भगवत् प्रेम को इष्टदेव के एक सीमित विग्रह में सीमाबद्ध कर ध्यान करना पड़ता है, उसी प्रकार विराट ब्रह्म की सेवा साधना भी मानव समाज के उस वर्ग में करनी पड़ती हे। जिस तक कि अपनी पहुँच हो।

हमारी पहुँच जितने व्यापक क्षेत्र में होती चली जा रही है, उसी अनुपात से हमारी “वसुधैव कुटुम्बकम्” की तृप्ति को चरितार्थ करने का विस्तार बढ़ता जाता है। इस सम्पर्क क्षेत्र को हम अपना परिवार कहते हैं और उन्हीं की सेवा, सहायता, ममता, आत्मीयता का ध्यान रखते हैं। जो हमें नहीं जानते, जिन्हें हम नहीं जानते, जिनकी पहुँच हम तक नहीं, जिन तक हम नहीं पहुँच सकते, उनके साथ प्रबल इच्छा होते हुये भी हम सम्पर्क नहीं साध सकते और उनकी प्रत्येक सेवा करने का मार्ग नहीं निकाल सकते, परोक्ष सेवा की बात अलग है वह तो अपनी सेवा करने से भी विश्व की सेवा हो जाती हे और भावना से सबके कल्याण का चिन्तन किया जा सकता है। सो हम भी करते हैं पर व्यवहारिक सेवा के लिए हर किसी का एक सीमित क्षेत्र ही है, सो ही हमारा भी है।

अपने परिवार की बात जब हम कहते हैं तो उनका आदर्श वसुधैव कुटुम्बकम् होते हुए भी व्यवहार उन तक सीमित रह जाता है, जिन तक हमारा सम्पर्क क्षेत्र है। प्रेम के लिए परिचय आवश्यक है। अपरिचित से प्रीति कैसे हो? हमारे विश्व-प्रेम एवं भगवत् प्रेम का विस्तार भी इसी क्रम से चल रहा है। गायत्री परिवार और युग-निर्माण परिवार के सदस्य चूँकि हमारे परिचय क्षेत्र की परिधि में आते हैं, अतएव हम अपनी सीमा के अनुरूप उन्हें माध्यम मानकर प्रेम साधना का क्षेत्र जैसे-जैसे बढ़ेगा हमारी प्रेम साधना का, विश्व मानव की, विराट् ब्रह्म की आराधना का व्यवहारिक अवसर ही अधिक व्यापकता के साथ उपलब्ध होने लगेगा।

अन्तःकरण में से उद्भूत प्रेम-तत्त्व जिन तीन दिशा में- धाराओं में प्रवाहित हुआ है, वह विधि शोक संतापों को धो डालती है। परमात्मा से प्रेम करना अपनी आत्मा को प्यार करना है। अपने को प्यार करना अर्थात् जीवन लक्ष्य की, आत्म-कल्याण को सर्वोपरि महत्व देना। इस स्तर की निष्ठा निरन्तर यही प्रेरणा करती है कि शरीर सुख और मन की ललक के लिए कोई ऐसा काम न किया जाय, जो आत्म-लक्ष्य की प्रगति में अवरोध उत्पन्न करे। वासना और तृष्णा की तुच्छता समझ में आ जाने से आत्मा को प्रेम करने वाला संयम सदाचरण का समुचित ध्यान रखे रहता है और उन कषाय कल्मषों के भार से बच जाता है, जो प्राणी को पतन के गर्त में निरन्तर घसीटती रहती है।

मन उन तथ्यों को सोचने और उन कामों को करने में लगता है, जो उत्कर्ष की भूमिका बना सकें। शरीर एवं मन को गौण और आत्मा को प्रमुख स्थान जब मिलने लगा तो उत्कृष्टता और आदर्शवादिता की नीति ही कार्यान्वित होती है और भौतिक प्रलोभनों का आकर्षण अत्यन्त ही तुच्छ, हेय एवं छिछोरा प्रतीत होता है। आत्मा से प्रेम करना ही परमात्म प्रेम का आधार है इस श्रेय पथ पर जब कदम बढ़ चले तब वे लक्ष्य पूर्ति की मंजिल पर पहुँचकर ही रुकते हैं।

विश्व की समस्त शक्तियों और परम्पराओं का भण्डारगृह परमात्मा है, उसके साथ आत्मा को जोड़ देने का अर्थ परमात्मा के शक्ति प्रवाह को आत्मा में भरने लगने का आधार विनिर्मित कर देना। बिजली घर में विनिर्मित शक्ति-पुण्य के साथ जब हमारे घर की बत्तियों का संबन्ध एक पतले तार के माध्यम से जुड़ जाता है तो बटन दबाते ही सारी बत्तियाँ जगमगाने लगती हैं। एक खाली नीचे गड्ढे को ऊँचाई पर अवस्थित भरे-पूरे तालाब के साथ पतली नाली के द्वारा सम्बन्धित करते हैं तो तालाब का पानी गड्ढे में चलने लगता है और कुछ ही समय में गड्ढा उतनी ही ऊँचाई तक पानी से भर जाता है, जितना कि तालाब था। यही उदाहरण तब चरितार्थ होता है, जब आत्मा का सम्बन्ध समागम परमात्मा के साथ जुड़ जाता है। कहना न होगा कि इस सम्बन्ध सूत्र को प्रेम तत्त्व द्वारा ही जोड़ा जा सकता है।

उपासनाओं की सफलता तभी सम्भव है, जब इष्टदेव के साथ प्रेम भाव की भी चरम परिणित होती हो। केवल शारीरिक क्रिया की तरह मशीन जैसे कर्मकाण्ड कुछ बहुत फल दे सकते हैं। परमात्मा प्रेममय है और वह प्रेम से ही प्रभावित होता है। कर्मकाण्ड तो उस प्रेम को बढ़ाने, उगाने के साधन भर का काम करते हैं। हमने उपासना के नियमोपनियम और विधि-विधानों पर समुचित ध्यान दिया है, साथ ही अन्तःचेतना को भाव भरी बनाये रखा है और निरन्तर यही भावना बनाये रहे हैं कि प्राणप्रिय इष्टदेव के साथ भाव भरी तन्मयता अनवरत रूप में बनी रहे। उनका प्रकाश अपने रोम-रोम में प्रवेश कर वह प्रेरणा दे जिससे मानव लक्ष्य की पूर्ति सम्भव हो सके।

आत्मा और परमात्मा से सच्चे प्रेम की प्रथम धारा सदाचरण, संयम, उत्कृष्टता, आदर्शवादिता, उदारता, सहृदयता, सज्जनता जैसी सत्प्रवृत्तियों को उगाने और बढ़ाने में जादू जैसा कार्य करती है और कितनी आध्यात्मिक विशेषताओं का उदय एवं अभिवर्धन सहज ही दृष्टि-गोचर होता चला जाता है। यह सत्प्रवृत्तियाँ ही है, जो आवश्यकता से समन ऋद्धि-सिद्धियों के रूप में प्रयुक्त की जा सकती है। दुष्ट दुर्बुद्धि और दुष्प्रवृत्तियों से घिरे-भरे मनुष्य में कोई दिव्य एवं अलौकिक विभूतियाँ न कभी रही हैं, न आगे हो सकती है।

हमारे प्रेम की दूसरी धारा अपने मार्ग-दर्शक गुरुदेव के चरणों में निरन्तर प्रवाहित रही। श्रद्धा और विश्वास का विकास करने के लिए आरम्भ में किसी सजीव देहधारी ऐसे महामानव की सहायता अपेक्षित होती है, जिससे देवत्व की समुचित मात्रा विद्यमान् हो। मनोभूमि के परिपुष्ट करने वाले श्रद्धा, विश्वास के दोनों तत्त्वों को गुरु भाव ही विकसित करता है। एकलव्य को द्रोणाचार्य की मिट्टी की प्रतिमा बनाकर अपनी श्रद्धा की परिपक्व करते हुए शक्ति उपलब्ध करने का साधन बनाना पड़ा था। हमें संयोगवश एक दिव्य तेज पुँज सता का सहारा मिल गया तो उससे लाभ उठाने का लोभ संवरण कैसे किया जाता? उनकी अहैतुकी कृपा से हमारा रोम-रोम कृतज्ञता से भर गया और अपने को एक अधिकारी शिष्य सिद्ध करने की तीव्र उत्कण्ठा जग पड़ी। अपना मन उनके मन के साथ जोड़ दिया और अपना शरीर उनके आदेशों के अनुरूप गति-विधियों अपनाने के लिए प्रस्तुत कर दिया। साँसारिक सम्पदायें नगण्य थी। जो थी उनकी राई-पत्ती उसी प्रयोजन में होम दी, जो उन्हें प्रिय था। सच्चे शिष्य अपनी पात्रता उसी प्रकार के समर्पण से सिद्ध करते रहे हैं। गुरु तत्त्व को द्रवीभूत और वशीभूत कर लेने की शक्ति किसी शिष्य को ऐसे ही समर्पण से मिलती है। अध्यात्म मार्ग के पथिकों की इस सनातन परम्परा को हमने अपनाया। फलतः वह सब कुछ मिलता रहा जो हमारे पात्रता के अनुरूप था। गुरुदेव की असीम और अलौकिक कृपा हमने पाई है पर इसे कोई संयोग न माना जाय। उस अनुग्रह को हमने ‘अपनापन’ देकर खरीदा है। दूसरे धूर्तों की तरह अपने भौतिक सुखों की रट लगाकर दण्डवत प्रारम्भ करते रहते तो हमारी तुच्छता उन्हें कहाँ द्रवीभूत कर पाती और जैसा वात्सल्य और आकाश जैसा अनुदान कदापि उपलब्ध न हो सका होता।

रामकृष्ण परमहंस ने जिस प्रकार विवेकानन्द और समर्थ गुरु रामदास ने जैसी अपनी शक्ति शिवाजी को हस्तान्तरित की थी, वैसी ही कृपा किरण अपने को भी मिली। यह कृपा किसी वस्तु या सुविधा के रूप में नहीं धैर्य, साहस, शौर्य, पुरुषार्थ, श्रद्धा, विश्वास, ब्रह्म वर्चस्व, तप-प्रवृत्ति उदार, सहृदयता के रूप में उपलब्ध हुई। उन विभूतियों ने व्यक्तित्व को निखारा, निखरा व्यक्ति अनायास ही आवश्यक साधन, सुविधा एवं सहायता दबोच लेता है। वैसे ही अवसर हमें भी मिलते रहे। अपार जन-सहयोग सम्मान का अधिकारी कोई व्यक्ति तब तक नहीं हो सकता, जब तक उसमें उपरोक्त सत्प्रवृत्तियाँ न हों। गुरु अनुग्रह से अन्तरंग में जिन सद्भावनाओं का उदय हुआ, वे ही हमारे द्वारा सम्पन्न हो सकने वाले कार्यों की अदृश्य आधार शिलाएँ हैं। प्रेम की दूसरी धारा-गुरुचरणों पर बहाई और उसकी प्रतिकृति ने हमें धन्य बना दिया।

प्रेम की तीसरी धारा परिवार क्षेत्र में प्रवाहित होती रही। पत्नी को उसने अपने रंग में रंग दिया और वह अनन्य अनुचरी की तरह हमारी छाया बनी फिरती है। घर, परिवार में जो सौजन्य सौमनस्य का वातावरण है, उससे हमें परम संतोष है। इससे बढ़कर अपना गायत्री परिवार और युग-निर्माण परिवार है, जिसमें 50 लाख से ऊपर जनसमूह एक सूत्र शृंखला में आबद्ध है। इस विशाल जनसमूह को जिस सूत्र में मजबूती से जकड़कर बाँध रखा गया है, वह है हमारी गहन आत्मीयता, अजस्र ममता, प्रगाढ़ सद्भावना और कौटुम्बिक घनिष्ठता इसी

शिविरार्थी ध्यान दें और नोट करें

(1) एक से अधिक शिविर की किसी को अनुमति नहीं है। जिस शिविर की स्वीकृति दी जाये, उसी में आयें, एक दिन पूर्व यहाँ आ जायें।

(2) भोजन के लिए होटल की व्यवस्था की गई है, यदि स्वयं पकाना चाहें तो आवश्यक बर्तन, स्टोव, बाल्टी अपने साथ लायें।

(3) शिविर या सदस्य संख्या में परिवर्तन की सूचना समय से पहले भेजनी चाहिये।

(4) 5 वर्ष से कम आयु के बच्चों वाली महिलायें, रोगी और शरीर से बहुत दुर्बल व्यक्ति न आयें।

(5) तपोभूमि पहुँचने पर सर्वप्रथम शिविर व्यवस्थापक से मिलें, नामांकन करायें और आवश्यक जानकारी प्राप्त करें।

(6) कीमती सामान और जेवर न लायें।

आधार पर इतने लोगों की शुभेच्छायें सम्पादित की हैं। उनके जीवनक्रम में ऐसे परिवर्तन किये हैं, जिसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था। परिवार के आधे से अधिक सदस्य अपना आन्तरिक कायाकल्प हुआ अनुभव करते हैं।

उपासना एवं साधना के शुष्क एवं नव-निर्माण के कठिन कष्टकर कार्यों में इतना विशाल जनसमूह लगा हुआ है, उसके पीछे शिक्षा, उपदेश या लेख, प्रवचन ही काम नहीं कर रहें, असली प्रेम सम्बन्धों की है, जिसके दबाव से अनिच्छा और असुविधा के होते हुए, लोगों का उस दिशा में चेतना पड़ता है, जो हमें अभीष्ट है। इस प्रयोग में लोगों का जीवन सुधरे है, समाज का हित हुआ है और हमें सम्मान, सद्भाव मिला है। परिवार को प्रेम देकर-उनके दुःख-दर्द में हिस्सा बंटाकर जितना दिया है, उससे असंख्य गुना पाया है। नये युग का नया निर्माण कर सकने जैसा साहस और विश्वास जिस आधार पर किया जा सका वे केवल लक्ष-लक्ष परिजनों की अनन्य आत्मीयता, श्रद्धा और सद्भावना ही है। इसे हम अपने जीवन की अनमोल उपलब्धि मानते हैं।

प्रेम-भावना के त्रिविधि अपरिच्छेद में हमें पग-पग पर सद्गुणों और सद्भावनाओं की वे विभूतियाँ मिलती चली गई हैं, जिनसे जीवन की हर उपलब्धि और सफलता को सम्भव कर दिखाया। हमारी उपासना पद्धति के अन्तराल में सन्निहित यह प्रेम साधना ही थी, जो सामान्य की असामान्य में-तुच्छता को महानता में-परिणित करने का चमत्कार दिखा सकी।

विदा होते समय जो ऐंठन अन्तरंग में होती है, वह मोह-ममता कायरता या विवशता जन्य नहीं चिरसंचित उच्च प्रेम साधना की सहज परिणित है, जिसे हमने अपने परिवार के लिये कलेजे की गहराई में उगा और बढ़ाया है। प्रेम का उपहार कसक ही है, उससे हमें ही वंचित क्यों रहना पड़ता।

*समाप्त*


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