अपने आप बढ़ो, विकसो, बड़े बनो

April 1969

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लाल बहादुर शास्त्री ने अपने 9 माह के प्रधानमंत्रित्व काल में वह यश-श्रेय प्राप्त कर लिया जो संसार का कोई भी नेता नहीं पा सका। शास्त्री जी एक साधारण परिवार के थे। वह स्वयं बढ़े, विकसे और बड़े बने। आत्मावलम्बन की शक्ति ही उनके जीवन में दृढ़ता बनकर विकसित हुई थी।

यही गुरुमन्त्र उन्होंने अपनी सन्तान को भी दिया। एक बार उनसे किसी मित्र ने प्रश्न किया-आप अपने बच्चों को थोड़ा सहारा दे देते तो वे भी आज अच्छे स्थानों पर होते?” शास्त्री जी हँसकर बोले-अवश्य होते पर उनमें योग्यता न होती। जो स्वावलम्बन और आत्म-विश्वास के साथ बढ़ता है, उसकी योग्यता, दृढ़ता, कर्मठता, साहस और कर्तव्य भावना अदम्य होती है।”

उन्होंने कहा- फूल कहीं भी हो वह खिलेंगे ही-बगीचे में हो, जंगल में हो या कमरे में, बिना खिले उसे मुक्ति नहीं। बगीचे का फूल पालतू फूल है, उसकी चिन्ता स्वयं उसे नहीं रहती। जंगल का फूल इतना चिन्ता मुक्त नहीं, उसे अपना पोषण आप जुटाना पड़ता है, अपना निखार आप करना पड़ता है। कहते हैं कि इसीलिये खिलता भी वह मन्दगति से है। सौरभ भी धीरे-धीरे बिखेरता है। किन्तु सुगन्ध उसकी बड़ी तीखी होती है। काफी दूर तक वह अपनी मंजिल तय करती है। जंगल का फूल यद्यपि अपने आकार में छोटा होता है और कई बार वह पूरा खिल भी नहीं पाता है तो भी अपनी सुगन्ध में वह दूसरे फूलों से हल्का नहीं पड़ता वजनी ही होता है।

यह सिद्धान्त मनुष्य के विकास में भी लागू है। दूसरों का सहारा लेकर बहुत ऊँचे पहुँचे हुए लोगों में न तो साहस दृढ़ता होती है और न वे ‘गड्न’ होते हैं, जो अपने आप विकसित हुये व्यक्तियों में स्थायी रूप से होती हैं। सफलता की मंजिल भले ही देर से मिले पर अपने पैरों का गई यात्रा, विकास-यात्रा अधिक विश्वस्त होती है। मोटर, रेल का सहारा लेकर बढ़ने में जहाँ शीघ्र पहुँचना सम्भव है वहाँ अनियमित होना, रास्ते में टूट-फूट लेट होना और बिगड़ जाना भी सम्भव है। पद-यात्रा से अधिक विश्वस्तता सहारे की यात्राओं में नहीं, भले ही उसमें कुछ अधिक सुविधा हो।

संसार में कार्य करने के लिये स्वयं का विश्वास-पात्र बनना आवश्यक है। आत्म-शक्तियों पर जो जितना अधिक विश्वास करता है, वह उतना ही सफल और बड़ा आदमी बनता है। वाशिंगटन एक मामूली सिपाही से अमेरिका की स्वतन्त्रता का प्रतिस्थापक बना। अमेरिका के प्रायः सभी राष्ट्रपति अत्यन्त छोटी अवस्था से स्वयं विकसित हुये। नैपोलियन फ्राँस का एक छोटा-सा सिपाही था, वह स्वयं बढ़कर सेनापति बना। एक अस्पताल में साधारण पियून से बढ़ते-बढ़ते राष्ट्रपति बनने वाले सनयात सेन को कोई नहीं भू सकता। इन महापुरुषों ने ‘यस्य यावाँश्च विश्वासस्तस्य सिद्धिश्च तावती।’ जिसने अपने आप पर विश्वास किया उसने सिद्धि सफलता पाई” कहावत को चरितार्थ किया है।

कारडिनल लिखते हैं- हर व्यक्ति के जीवन में ऐसे अवसर आते हैं, जिनका बुद्धिमानी से उपयोग करके मनुष्य बिना भाग्य की प्रतीक्षा किये बड़ी सफलतायें प्राप्त कर सकता है।”

नेलसन की कहानियाँ अँगरेज बड़े प्रेम से पढ़ते हैं और आत्म-विश्वास की शक्ति की व्याख्या करते समय उसके उदाहरण देते हैं। नेलसन कहा करता था-यदि के लिये मेरे जीवन में कोई स्थान नहीं है। मैं जहाँ जुट जाता हूँ, वहाँ सफलता निश्चित रहती है। जिसके पास दृढ़ और अडिग आत्म-विश्वास और साहस है, वह निश्चय ही अपना भाग्य निर्माण करता है।”

श्रीयुत् नानाभाई थोपटे, व्यापार के क्षेत्र में बम्बई के अब्दुल भाई करीम, शिक्षा के क्षेत्र में सुबोधचन्द्रराय, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, व्यावसायिक प्रगति के लिये सैमुअल एंड्रूज आदि के नाम उल्लेखनीय हैं, इन्होंने कठिनाइयों और अगर-मगर की परवाह किये बिना आत्म-शक्तियों को जीवन-क्षेत्र में उतारा और मनुष्य शक्ति को सार्थक सिद्ध कर दिखाया।

बहुत से लोग कहा करते हैं-यदि मैं स्वतन्त्र होता और मेरे पीछे बाल-बच्चों का झगड़ा न होता, मेरी शिक्षा इतनी होती, मुझे इतनी पूँजी मिल गई होती तो मैं बहुत काम कर सकता था। परन्तु यह उनकी निर्बलता है। बड़ा काम करने के लिये न बाल-बच्चे रुकावट हैं और न धनाभाव। परिस्थितियाँ संसार में न्यूनाधिक एक जैसी ही हैं। जिन्हें रुकावट समझा जाता है, वह समस्यायें ही सफल व्यक्तियों को प्रेरक बनी हैं, वह समस्यायें ही सफल व्यक्तियों को प्रेरक बनी हैं। कई महात्माओं ने तो जेल में भी बड़े-बड़े ग्रन्थ लिखे हैं। सोच-समझ के साथ जीवन के प्रत्येक दिन को अमूल्य मानकर अपने मन को ऊँची अवस्था में ले जाने को जो अपने आप प्रयत्न करते हैं, उनकी थोड़ी-सी सफलता भी चिरस्थायी, संतोषदायक और व्यवहारिक होती है।

अपने आप बढ़ने में सच्चाई और ईमानदारी रहती है, मनुष्य की वह बड़ी शक्ति है, इससे उसका हृदय खुला रहता है, वह किसी भी समय आपको व्यक्त कर सकता है। वह घबराता नहीं, परेशान भी नहीं होता। यह कष्ट तो परावलम्बियों को ही होते हैं। जो दूसरों के सहारे उठता है, उसे बात-बात पर गिर जाने का भी भय बना रहता है। सच्चे लोग अपने गुण, अपनी प्रतिभा और अपने सौन्दर्य के बारे में नहीं सोचते। अपनी इस सरल अबोधता के कारण वे लोगों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं, उनके हृदय में विश्वास, प्रेम और प्रतिष्ठा का स्थान पाते हैं, यह सफलता ही किसी बड़ी से बड़ी सम्पन्नता जैसी सुखदायक होती हैं।

अपने भाग्य को स्वयं बन जाने की राह देखना भूल ही नहीं, मूर्खता भी है। यह संसार इतना व्यस्त है कि लोगों को अपनी परवाह से ही फुरसत नहीं यदि कोई थोड़ा-सा सहारा देकर आगे बढ़ा भी दें और उतनी योग्यता न हो तो फिर फिर पश्चाताप, अपमान और अवनति का ही मुख देखना पड़ता है। स्वयं ही मौलिक सूझ-बूझ और परिश्रम से बनाये हुये भाग्य में इस तरह की कोई आशंका नहीं रहती, क्योंकि वैसी स्थिति में अयोग्य सिद्ध होने का कोई कारण नहीं होता। जितनी योग्यता बढ़ती चले सफलता को मंजिल उतनी प्राप्त करता चले। रास्ता सबके लिये खुला है, उस पर चलकर कितना पार कर सकता है, यह व्यक्ति की अपनी लगन, साहस और विश्वास पर निर्भर रहता है।

शास्त्रकारों ने पुरुषार्थियों की स्थान-स्थान पर वन्दना की है। कोई महाभाग लिखते हैं-

षीमन्तो वन्द्यचरिता मन्यन्ते पौरुषं महत्। अशक्ता पौरुषं कन्तु श्लावा दैवसुपासते॥

अर्थात्-बुद्धिमान व्यक्तियों ने सदैव व्यक्ति के उत्थान के लिये पुरुषार्थ को प्रधान माना है। भाग्य और देवों के सहारे उन्नति का मार्ग खोजने वाले नपुंसक पुरुषार्थ-विहीन व्यक्तियों की विद्वज्जन निन्दा करते हैं।

डूबते हुए सूरज से एक व्यक्ति प्रार्थना कर रहा था-भगवान्! हमें शक्ति दो ताकि हम संसार की कुछ सेवा कर सकें।” पास से एक यात्री गुजर रहा था, हँसते हुए पूछा-भाई सूर्य तो स्वयं ही डूब रहा है, आप उससे शक्ति माँगते हैं?” भक्त ने उत्तर दिया-डूब नहीं रहे मित्र, नई शक्ति लेकर लौटने की तैयारी कर रहे हैं।

हर मनुष्य को परमात्मा ने अपार शारीरिक शक्तियाँ दी हैं। बुद्धि भी सबमें कुछ न कुछ होती है, संसार इतना बड़ा है कि ढूँढ़ने से इच्छित परिस्थितियों का अम्बार मिल सकता हैं, यहाँ अभाव किसी वस्तु का नहीं, यदि कुछ सच्ची बात है तो यह कि सब कुछ ढूँढ़ने वाले को मिलता है। जो स्वयं कुछ करता है, वह पाता है। जो चलता है, वही लक्ष्य तक पहुँचता है। सोना-सोना चिल्लाने से पास रखा हुआ सोना भी, हाथों में नहीं आ जाता। उसे उठाने के लिये भी आप प्रयत्न करना पड़ता है। सफलता के हर क्षेत्र में यह सिद्धान्त अटल है, अचल है। दूसरा बड़ा नहीं बनाता। मनुष्य अपने प्रयत्नों के अनुरूप ही परिणाम उपलब्ध करता है। यह सृष्टि का अकाट नियम है।


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