दुखी संसार में भी सुखी रहा जा सकता है

April 1969

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गुरुनानक ने कहा है- “नानक दुखिया सब संसार।” इसी प्रकार एक विचारक ने सुख की परिभाषा करते हुए कहा है- “इस सृष्टि में दुःख ही व्याप्त है। दुःख के अभाव को सुख कहना उचित होगा।”

इन दोनों कथनों से स्पष्ट है कि संसार में दुखों की प्रधानता है। संसार का मूल भाव दुःख ही है। सुख स्वाभाविक नहीं है। यह बात बहुत अंशों तक सत्य होते हुए भी अक्षरशः सत्य नहीं है। क्योंकि यदि यह इसी प्रकार अक्षरशः सत्य होती तो संसार में किसी का जीना असम्भव हो जाता। संसार में लोग जीते हैं, जीना चाहते हैं। लोगों में उत्साहपूर्वक जीने की इच्छा है। इसका अर्थ है कि संसार में सुख का तत्त्व मौजूद है। यहाँ केवल दुःख ही दुःख होता तो कोई भी इस प्रकार जीने की इच्छा नहीं रखते।

तथापि नानक जैसी महान् आत्माओं का कथन झूठा नहीं माना जा सकता। उसमें सत्य का एक बड़ा अंश है। संसार में दुखी लोगों की ही बहुतायत है। सुख, स्वास्थ्य, धन-दौलत यश-मान सभी कुछ होते हुए भी अधिकांश व्यक्ति दुखी ही देखे जाते हैं। कोई विरले व्यक्ति ही अपनी परिस्थितियों में सुखी अथवा संतुष्ट दृष्टि गोचर होते हैं। ऐसे व्यक्तियों को देखकर ही नानक ने यह भाव व्यक्त किया है कि - नानक दुखिया सब संसार।”

साँसारिक दृष्टि से यह बात सर्वथा सत्य है कि यहाँ दुःख का भाव अधिक स्वाभाविक है, वह सहज रूप से प्राप्त होता रहता है। किन्तु सुख पाने के लिए उपाय करना होता है। वह योंहीं अनायास प्राप्त नहीं हो सकता। धन को सुख का प्रधान साधन माना जाता है। इस साधन की उपलब्धि के लिए लोग कठोर परिश्रम करते हैं। उद्योग-धन्धे कार-रोजगार खेती-बाड़ी दुकान? हाट? नौकरी-चाकरी आदि न जाने कितने काम किया करते हैं। बहुत बार तो अनेक लोग इसके लिए अनैतिक और अनुचित कर्म करने की भूल भी कर बैठते हैं। इन साधनों एवं उपायों में भिन्नता भले ही है पर मूल उद्देश्य सबका एक ही है- सुख के लिए धन प्राप्त करना।

पर क्या धन प्राप्त करके लोग सुखी हो जाते हैं? यदि ऐसा होता तो हर धनवान् को निर्विवाद रूप से सुखी होना चाहिये और हर निर्धन को दुखी। किन्तु ऐसा होता नहीं। बहुत से धनवान् दुखी दिखलाई देते हैं और अनेक निर्धन सुखी देखे जा सकते हैं। क्या धन और क्या स्वास्थ्य, स्त्री-बच्चे मान-प्रतिष्ठा सुख के जो भी साधन माने जाते हैं, सुख पाने के उपाय नहीं हैं। सुख पाने का उपाय कुछ और ही है। वह है जीवन जीने की एक पद्धति।

संसार में सुखी जीवन व्यतीत करने के लिए कुछ बातों को ग्रहण करना होगा। त्याज्य बातों में सबसे पहली बात है फलासक्ति। अपने कर्म के फलों में आसक्ति रखने से सफलता, असफलता, हानि-लाभ आशा-निराशा के द्वन्द्वं भाव में पड़ना होगा, जिसका परिणाम असुख ही होता है। भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है- “कर्म करो पर फल की आशा मत करो। सुख पाने में नहीं त्याग में है। सुख, कर्म-फल के लिए दीवाने रहने, लालायित रहने में नहीं है, बल्कि कर्मशील होकर सफलता, असफलता की ओर उदासीन रहकर कर्तव्य करने में है। आसक्ति को त्याग कर दूसरों के लिए जिये। जो लोग संकीर्ण स्वार्थ और लोभ को छोड़कर दूसरों के लिए जीते हैं, वही लोग जीवन का सच्चा आनन्द उठाते हैं। स्वार्थी, संकीर्ण और लोभी व्यक्ति कभी सुखी नहीं रह सकता।”

निःसन्देह फलासक्ति का त्याग और अनासक्ति का ग्रहण सुखी जीवन व्यतीत करने का बहुत बड़ा उपाय है। इसीलिए अनासक्त व्यक्ति को योगी कहकर सम्बोधित किया जाता है। अनासक्ति भाव के कारण कर्मों में आई दुखदाई असफलता मनुष्य को प्रभावित नहीं कर पाती और न सफलता के लिए उसमें दुःखद स्पृहा का समावेश होता है। वह तो असफलता-सफलता में तटस्थ भाव से स्थित समत्व का आनन्द लिया करते हैं।

लालसायें जीवन में दुःख का बहुत बड़ा कारण बनती हैं। लालसाओं की पूर्ति सम्भव नहीं और न उनका कोई अन्त ही होता है। एक के बाद एक नित्य नई लालसायें बढ़ती ही जाती हैं। जिन लालसाओं की पूर्ति मनुष्य अपने जीवन में नहीं कर पाता उनकी पूर्ति वह अपनी सन्तान के जीवन में देखना चाहता है। इसके कारण वह सन्तान की कामना से व्यग्र हो उठता है। जिनके संतान नहीं होती, वे बड़े ही दुखी और मलिन रहा करते हैं। एक इसी एषणा के कारण उनके अन्य सारे सुख, सारे साधन, यहाँ तक कि सारा जीवन ही निस्सार हो जाता है। ऐसे एषणातप्य व्यक्ति का सारा जीवन शोक-संताप से भरा रहता है। अस्तु, सुखी जीवन जीने के लिए लालसाओं और तद्जन्य एषणाओं को त्याग ही देना चाहिये।

निष्कामता सुखी जीवन का एक उत्तम उपाय है। जितना-जितना मनुष्य लालसाओं के चक्र से बचता जायेगा उतना-उतना ही उसका सुख बढ़ता जायेगा। निःसंतान व्यक्ति को इस सत्य पर विचार करना ही चाहिये कि कुल का नाम सन्तान से चलेगा ही यह निश्चय नहीं। सन्तान कुल का नाम डुबोने वाली भी होती है। मनुष्य का अपना नाम सन्तान से नहीं अपने सत्कर्मों से चलता है। सन्तान गृहस्थियों के लिए अनेक चिन्ताओं का कारण बनती है। बच्चों के पालन-पोषण और उनके जीवन विकास के लिए न जाने कितने प्रलोभनों और दुर्बलताओं के जाल में फँसना पड़ता है। इतना ही क्यों उद्दण्ड, दुष्ट और धृष्ट सन्तान माता-पिता का जीवन बरबाद कर देते हैं। तब उनसे अपनी लालसाओं की पूर्ति की आशा कैसे की जा सकती।

निःसन्तान गृहस्थों को चाहिये कि वे अपनी इस एषणा को परास्त करने लिए किन्हीं दूसरों के बच्चे पाला करें, पढ़ाया-लिखाया करें, उन्हें लाड़-दुलार देकर अपना सन्तोष प्राप्त करें। अपने पराये का भाव वास्तविक भाव नहीं है। यह मनुष्य का अहंकार जन्य भ्रम मात्र ही है। जिसे प्यार दिया जायेगा, जिसको अपना समझकर पालन किया जायेगा, वह निश्चय ही अपना बन जायेगा। किसी गरीब का प्यारा-सा बच्चा पाल लेने से जीवन का एक अभाव तो दूर हो ही जायेगा, साथ ही पुण्य-परमार्थ का भी फल मिलेगा।

अपनी परिस्थितियों की अपेक्षा करना अथवा उन्हें भुला देना भी दुःख का एक बड़ा कारण है। बहुत से लोग अपनी यथार्थ स्थिति से आँख मूँदकर कल्पना के स्वप्न संसार में विचरण करते रहते हैं। दूसरों के कहने अथवा अपने ही भ्रम से अपने को क्या से क्या मान बैठते हैं। इसका विचार किये बिना कि हमारी परिस्थितियाँ क्या हैं, हम किस धरातल पर खड़े हैं, बड़ी महत्त्वाकाँक्षाओं को पाल लेते हैं और उनके पीछे पागल बने रहते हैं। अपनी सहज स्वाभाविक स्थिति से हटकर अस्वाभाविक मार्ग अपना लेने से अधिकांश लोग जीवन भर दुखी बने रहते हैं। अपनी सीमा और अपनी शक्ति से परे की आकांक्षाएँ बना लेना बड़ी भारी भूल है। ऐसे लोगों की आकांक्षाएँ कभी पूरी नहीं होती, जिससे वे सदा व्यग्र, दीन और दुखी बने रहते हैं।

बहुत से भावुक व्यक्ति जब किसी बड़े आदमी को देखते हैं अथवा किन्हीं महापुरुषों का जीवन-चरित्र पढ़ते हैं तो तत्काल ही अपने को वैसा देखने की कामना करने लगते हैं। किन्तु अपनी स्थिति, योग्यता और क्षमता पर जरा भी विचार नहीं करते। विशेष व्यक्ति बनने की कामना बुरी नहीं। किन्तु इसकी पूर्ति केवल कल्पना के बल पर नहीं हो सकती। इसके लिए स्थिति, योग्यता और क्षमताओं का होना बहुत आवश्यक है। इनका विकास किये बिना केवल महत्त्वाकाँक्षा पाल लेना जीवन में दुखों को आमन्त्रित करना होता है। जिन व्यक्तियों का सामंजस्य उनकी परिस्थितियों से नहीं होता वह बहुधा दुखी ही रहा करते हैं।

मनुष्य यदि सामान्य रूप से सुखी रहना चाहता है तो उसे अपनी परिस्थिति से परे की महत्त्वाकाँक्षाओं का त्याग करना होगा। उसे अपनी सीमा में रहकर आगे के लिए प्रयास करना होगा। उन्हें प्रकृति के इस नियम में आस्था करनी ही होगी कि मनुष्य-विकास क्रमपूर्वक होता है। सहसा ही कोई कामनाओं के बल पर ऊँचा नहीं उठ जाता। प्रत्येक व्यक्ति की अपनी एक बनावट होती है। उसी की सीमा में धीरे-धीरे बढ़ते रहने पर ही वह बहुत कुछ कर सकता है। अपने प्राकृतिक स्वत्व का विस्मरण कर महत्त्वाकाँक्षाओं के पीछे पागल रहने वाले जीवन में कभी सुखी नहीं हो पाते। जीवन में सुख-शांति के लिए आवश्यक है कि अपनी सीमाओं के अनुरूप ही कामना की जाये, उसी में रहकर धीरे-धीरे विकास की ओर बढ़ा जाये। सहसा उछाल मार कर तारे तोड़ लेने का दुःसाहस करने का अर्थ है असफलता जन्य दुःख को अपना साथी बनाना।

मान-मर्यादाओं का उल्लंघन करने से भी मनुष्य को दुखों का भागीदार बनना होता है। सुख के साधन पाकर यदि उनका भोग अनियन्त्रित रूप से किया जायेगा तो वे भी दुःख का कारण बन बैठेंगे धन मिल गया, पद मिल गया, प्रतिष्ठा मिल गई, संतान भी हो गई, तब भी यदि संतोष नहीं होता, और-और की ही रट लगी हुई है तो अवश्य ही दुखों के लिए तैयार रहना चाहिये। सुख-साधनों की अति तृष्णा भी दुःख का बड़ा कारण है। मान-मर्यादाओं का व्यतिक्रम न कर जो बुद्धिमान लोग संसार में जो कुछ भोगने योग्य हैं उसका भोग करते हैं, वे कभी दुखी नहीं होते। गृहस्थ को सुख का आधार बताया गया है। वह है भी। गृहस्थी जैसा सुख कहीं भी नहीं मिलता। तथापि यदि इसका भोग भी मर्यादा का त्याग करके किया जायेगा तो यह भी अस्वास्थ्य, रोग, शोक और बहु-संतान के साथ दुःख का हेतु बन जायेगा।

मनुष्य को चाहिये कि वह परमात्मा ने जो कुछ सुख भोग बनाये हैं, मर्यादा में रहकर उनका आनन्द उठाये। जो कुछ हमारी उपलब्धियाँ और परिस्थितियाँ हैं उनमें संतोष करके आगे के लिए प्रयत्न किया जाये। अनुचित अथवा अयोग्य महत्त्वाकाँक्षाओं से बचा जाये और फलासक्ति को छोड़कर अपना पावन कर्तव्य करते रहा जाये तो कोई कारण नहीं कि वह दुःख से निकल कर सुख की ओर न अग्रसर होने लगे। जो अपने जीवन पथ में इन नियमों का पालन करते हैं, वे सदा सुखी रहते हैं और जो इनकी उपेक्षा करते हैं उनका दुखी रहना स्वाभाविक ही है।


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