सद्विचार अपनाये बिना कल्याण नहीं

April 1969

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विचार शक्ति मानव जीवन की निर्मात्री शक्ति है। मानव शरीर जिससे आचरण और क्रियायें प्रतिपादित होती है विचारों द्वारा ही संचालित होता है। मनुष्य जितना जितना उपयोगी, स्वस्थ ओर उत्पादक विचार बनाता, संजोता और सक्रिय करता चलता है, उतना उतना ही वह सदाचारी, पुरुषार्थी और परमार्थी बनता जाता है। इसी पुण्य के आधार पर उसका सुख, उसकी शांति अक्षुण्ण बनती और बनती जाती है। ईर्ष्या द्वेष, काम क्रोध, लोभ मोह आदि के ध्वंसक विचारों से मनुष्य का आचरण विकृत हो जाता है। उसकी क्रियायें दूषित हो जाती है। ओर फलस्वरूप वह पतन के गर्त में गिरकर अशान्ति और संतोष का अधिकारी बनता है।

पागलपन, अपराध और पाप असद्विचारों का चिंतन करने का ही फल है। किसी विषय अथवा प्रसन्न से सम्बन्धित भयानक विचार लेकर चिन्तन करते रहने से मस्तिष्क निर्बल और मानसिक धरातल हल्का हो जाता है। ऐसी दशा में आवेशों, आवेगों ओर उत्तेजनाओं को रोक सकना कठिन हो जाता है। यह विचार सफलतापूर्वक मनुष्य को संचालित कर अपराध अथवा पाप घटित कर डालने पर विवश कर देते है और यदि वह पाप अथवा अपराध करने को साहस परिस्थिति अथवा अवकाश नहीं पा पाता-अर्थात् उसका आवेश क्रिया द्वारा निकल पड़ने का अवसर नहीं पाता तो वह सीधा मस्तिष्क पर आघात करता है, जिससे उसमें विकार पैदा हो जाते है और मनुष्य सनकी, पागल अथवा उन्मादी बन जाता है। दोनों स्थितियों में चाहे वह अपराध अथवा पाप कर बैठे या बौद्धिक विकार से ग्रस्त हो जाये, उसका जीवन बिगड़ जाता है, जिन्दगी बरबाद हो जाती है। विचारों में बड़ी प्रचण्ड शक्ति होती है। अस्तु जिन विचारों के चिन्तन में प्रवृत्ति होती हो उनकी अच्छाई बुराई को अच्छी तरह परख लेने की आवश्यकता है।

वे सारे विचार असद्विचार ही है जिनके पीछे किसी को हानि पहुँचाने का भाव छिपा हो। इस किसी शब्द में दूसरे लोग भी शामिल है और स्वयं अपनी आत्मा भी। समाज में प्रतिष्ठापूर्ण स्थान पाने का विचार आता है। बड़ा सुन्दर विचार है, सम्मान आत्मा की आवश्यकता है। सबको ही सम्मानित होकर अपनी आत्मा की इस आवश्यकता की पूर्ति करने का विचार करना ही चाहिए। किन्तु यह विचार तभी तक सुन्दर और सद्विचार है, जब तक इसके अंतर्गत स्पर्धा, ईर्ष्या, द्वेष लोभ अथवा अहंकार का हानिकारक भाव शामिल नहीं है।

इस प्रकार का कोई भाव शामिल हो जाने पर इस विचार की सदाशयता समाप्त हो जायेगी और इसका स्थान दूषित विचारों के बीच जा पहुँचेगा। प्रतिष्ठा का एक हेतु धन है। धन के लिए भीषण, दोहन अथवा अनीतिपूर्ण उपाय अपना कर किसी को हानि पहुँचाना अथवा अपनी आत्मा को कलुषित करना असद् उपाय है, जिसके कारण प्रतिष्ठा का सद्विचार हो जाता है। पद अथवा स्थान भी प्रतिष्ठा का हेतु है। अपने आपके प्रयत्न और योग्यता के आधार पर पद पाना उचित है। किन्तु जब इस उद्योग को पर हित घात वंचकता, धूर्तता, कपट अथवा मलीन क्रियाओं से संयोजित कर दिया जायेगा तो प्रतिष्ठा पाने के विचार की सदाशयता सुरक्षित न रह सकेगी।

कोई सद्विचार तभी तक सद्विचार है जब तक उसका आधार सदाशयता है। अन्यथा वह असद्विचारों के साथ ही गिना जायेगा। चूँकि वे मनुष्य के जीवन और उसकी आत्मा को नष्ट करने वाले होते है, इसलिये हर प्रकार और हर कोटि के असद्विचार विष की तरह ही त्याज्य है। उन्हें त्याग देने में ही कुशल, क्षेम, कल्याण तथा मंगल है। असद्शयतापूर्वक, सम्मान ही अपनी आवश्यकता की पूर्ति आत्मा को किसी प्रकार भी स्वीकार नहीं हैं।

वे सारे विचार जिनके पीछे दूसरों और अपनी आत्मा का हित सन्निहित हो सद्विचार ही होते है। सेवा एक सद्विचार है। जीवन मात्र की निःस्वार्थ सेवा करने से किसी को कोई प्रत्यक्ष लाभ तो होता दीखता नहीं। दीखता है उस व्रत की पूर्ति में किया जाने वाला त्याग और बलिदान। जब मनुष्य अपने स्वार्थ का त्याग कर दूसरे की सेवा करता है, तभी उसका कुछ हित साधन कर पाता है। स्वार्थी और साँसारिक लोग सोच सकते है कि अमुक व्यक्ति में कितनी समझ है, जो अपनी हित हानि करके अकारण ही दूसरा का हित साधन करता रहता है। निश्चय ही मोटी आँखों और छोटी बुद्धि से देखने पर किसी का सेवा व्रत उसकी मूर्खता ही लगेगी किन्तु यदि उस व्रती से पता लगाया जाय तो विदित होगा कि दूसरों की सेवा करने में यह जो जितना त्याग करता है वह उस सुख उस शांति की तुलना में एक तृष्णा से भी अधिक नगण्य है, जो उसकी आत्मा अनुभव करती है।

एक छोटे से त्याग का सुख आत्मा के एक बन्धन को तोड़ देता है। देखने में हानिकर लगने पर भी अपना ही वह विचार सद्विचार ही है,जिसके पीछे परहित अथवा आत्महित का भाव अन्तर्हित हो। मनुष्य का अन्तिम लक्ष्य लोक नहीं परलोक ही है। इसकी प्राप्ति एक मात्र सद्विचारों की साधना द्वारा ही हो सकती है। अस्तु आत्म कल्याण और आत्म शांति के चरम ‘लक्ष्य’ की सिद्धि के लिए सद्विचारों की साधना करते ही रहना चाहिए।

असद्विचारों के जाल में फँस जाना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है। अज्ञान, अबोध अथवा असावधानी से ऐसा हो सकता है। यदि यह पता चले कि हम किसी प्रकार सद्विचारों के पाश में फँस गये है तो इसमें चिन्तित अथवा घबराने की कोई बात नहीं है। यह बात सही है कि असद्विचारों में फँस जाना बड़ी घातक घटना है। किन्तु ऐसी बात नहीं कि इसका कोई उपचार अथवा उपाय न हो सके। संसार में ऐसा एक भी भवरोग नहीं है, जिसका निदान अथवा उपाय न हो। असद्विचारों से मुक्त होने के भी अनेक उपाय है। पहला उपाय हो यही है कि उन कारणों का तुरन्त निवारण कर देना चाहिए जो कि असद्विचारों में फँसती रहे है। यह कारण हो सकते है-कुसंग अनुचित साहित्य का अध्ययन, अवांछनीय वातावरण।

खराब मित्रों और संगी साथियों के संपर्क में रहने से मनुष्य के विचार दूषित हो जाते है। अस्तु, ऐसे अवांछनीय संग का तुरन्त त्याग कर देना चाहिए। इस त्याग में संपर्क अन्य संस्कार अथवा मोह का भाव आड़े आ सकता है। कुसंग त्याग में दुःख अथवा कठिनाई अनुभव हो सकती। है। लेकिन नहीं आत्म कल्याण की रक्षा के लिए उस भ्रामक कष्ट को सहना ही होगा और मोह का वह अशिव बंधन तोड़कर फेंक ही देना होगा। कुसंग त्याग के इस कर्तव्य में किन्हीं साधु पुरुषों के सत्संग की सहायता ली जा सकती है। बुरे और अविचारी मित्रो के स्थान पर अच्छे, भले और सदाचारी मित्र, सखा और सहचर खोजे और अपने साथ किये जा सकते है अन्यथा अपनी आत्मा सबसे सच्ची और अच्छी मित्र है। एकमात्र उसी के संपर्क में चले जाना चाहिए।

असद्विचारों के अन्य और विस्तार का एक बड़ा कारण असद्साहित्य का पठन पाठन भी है। जासूसी, आपराधिक और अश्लील भण्डार से भरे जा सस्ते साहित्य को पढ़ने से भी विचार दूषित हो जाते है। गन्दी पुस्तकें पढ़ने से जो छाप मस्तिष्क पर पड़ती है, वह ऐसी रेखाएँ बना देती है कि जिनके द्वारा असद्विचारों का आवागमन होने लगता है। विचार, विचारों को भी उत्तेजित करते है। एक विचार अपने समान ही दूसरे विचारों को उत्तेजित करता और बढ़ाता है।

इसलिए गन्दा साहित्य पढ़ने वाले लोगों का अश्लील चिन्तन करने का व्यसन हो जाता है। बहुत से ऐसे विचार जो मनुष्य के जाने हुए नहीं होते यदि उनका परिचय न कराया जाय तो न तो उनकी याद आवे और न उनके समान दूसरे विचारों का ही जन्म ही। गन्दे साहित्य में दूसरों द्वारा लिखे अवांछनीय विचारों से अनायास ही परिचय हो जाता है और मस्तिष्क में गन्दे विचारों की वृद्धि हो जाती है। अस्तु, गन्दे विचारों से बचने के लिए अश्लील और असद्साहित्य का पठन पाठन वर्जित रखना चाहिए।

असद्विचारों से बचने के लिए अवांछनीय साहित्य का पढ़ना बन्द कर देना अधूरा उपचार है। उपचार पूरा तब होता है, जब उसके स्थान पर सत्साहित्य का अध्ययन किया जाय। मानव मस्तिष्क कभी खाली नहीं रह सकता। उसमें किसी न किसी प्रकार के विचार आते जाते ही रहते है। बार-बार निषेध करते रहने से किन्हीं गन्दे विचारों का तारतम्य तो टूट सकता है किन्तु उनसे सर्वथा मुक्ति नहीं मिल सकती। संघर्ष की स्थिति में वे कभी चले भी जायेंगे और कभी आ भी जायेंगे। अवांछनीय विचारों से पूरी तरह बचने का सबसे सफल उपाय है कि मस्तिष्क में असद्विचारों को स्थान दिया जाय। असद्विचारों के रहने से उसमें असद्विचारों को प्रवेश पाने का अवसर ही न मिलेगा।

मस्तिष्क में हर समय असद्विचारों ही छाये रहे इसका उपाय यही है कि नियमित रूप से नित्य सत्साहित्य का अध्ययन करते रहा जाय। वेद पुराण गीता उपनिषद् रामायण महाभारत आदि धार्मिक साहित्य के अतिरिक्त अच्छे और ऊँचे विचारों वाले साहित्यकारों को पुस्तकें सत्साहित्य की आवश्यकता पूरी कर सकती है। यह पुस्तकें स्वयं अपने आप खरीदी भी जा सकती है और जन और व्यक्तिगत पुस्तकालयों से भी प्राप्त की जा सकती है। आज कल न तो अच्छे और सस्ते साहित्य की कमी रह गई है और न पुस्तकालयों और वाचनालयों की कमी। आत्म कल्याण के लिए इन आधुनिक सुविधाओं का लाभ उठाना ही चाहिए।

मानवीय शक्तियों में विचार शक्ति का बहुत महत्व है। एक विचारवान शक्ति हजारों लाखों का नेतृत्व कर सकता है। विचार शक्ति सम्पन्न व्यक्ति साधन हीन होने पर भी अपनी उन्नति और प्रगति का मार्ग निकाल सकता है। विचार शक्ति से ही महापुरुष अपने समाज और राष्ट्र का निर्माण किया करते है। विचार शक्ति के आधार पर ही आध्यात्मिक व्यक्ति कठिन से कठिन भव बंधनों को भेद कर आत्मा का साक्षात्कार कर लिया करते है। विचार शक्ति ही विचारों के बीच चिन्तक लोग परमात्मा सत्त की प्रतीति प्राप्त किया करते है।

विचार मनुष्य जीवन के बनाने अथवा बिगड़ने में बहुत बड़ा योगदान किया करते है। मानव जीवन और उसकी क्रियाओं पर विचारों का आधिपत्य रहने से उन्हीं से अनुसार जीवन का निर्माण होता है। सद्विचार रख कर यदि कोई चाहे कि वह अपने जीवन को आत्मोन्नति की ओर ले जायेगा तो वह अपने इस मन्तव्य में कदापि सफल नहीं ही होता है। निदान असद्विचारों उसे पतन की ओर ही ले जायेंगे। यह एक ध्रुव सत्य है। किसी प्रकार भी इसमें अपवाद का समावेश नहीं किया जा सकता।

अपने विचारों का विचार करिये और खोज खोजकर ओछे व निकृष्ट विचार निकालकर उपरोक्त उपायों द्वारा असद्विचारों को जन्म दीजिए, बढ़ाइये और उन्हीं के अनुसार कार्य कीजिये। आप लोक में सफलता के फूल चुनते हुए, सुख और शान्ति के साथ आत्म कल्याण के ध्येय तक पहुँच जायेंगे।


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