मनुष्य से श्रेष्ठ और कुछ नहीं

April 1969

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जब किसी के मन में यह विचार आता है कि मनुष्य-जीवन नश्वर है, निरर्थक है-वह शरीर हाड़-माँस रुधिर और चर्म का बना हुआ है, मल-मूत्र आदि के रूप में इसमें नरक भरा हुआ है, तब निश्चय जानिए उसके मन पर अज्ञान का, मोह का घना अन्धकार छाया हुआ है। इस प्रकार का निकृष्ट विचार अवास्तविक है, आध्यात्मिक है।

वास्तविकता यह है कि मनुष्य का जीवन एक सार्थक प्रक्रिया है। उसका शरीर एक पवित्र मन्दिर है। यह मानव-तन ही तो वह साधन, वह उपादान है, जिसकी सहायता से ईश्वर को पाया जाता है। इसे नरक का निवास कहना, इसका अपमान करना है।

भूल कर भी मन में यह विचार मत आने दीजिये कि मनुष्य हाड़-माँस का एक पुतला है। पाप से उत्पन्न हुआ है और पाप में ही प्रवृत्त रहता है।” यह विचार स्वयं ही एक बड़ा पाप है। अपने प्रति निकृष्ट दृष्टिकोण रखने वाला कभी भी उन्नतिशील नहीं हो सकता। उन्नति का आधार है अपने प्रति ऊँचा और पवित्र विचार रखना। मनुष्य की वास्तविकता यह है कि यह अखण्ड, अगणित चेतन अणु-परमाणुओं का सजीव तेज-पुञ्ज है। असीम और अक्षय शक्तियों से भरा हुआ है। उसके आन्तरिक कोशों और चक्रों में सारी सिद्धियाँ सोई हुई हैं। वह ईश्वर का पुत्र और उसका प्रतिनिधि है। संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है-मनुष्य के विषय में महाभारत का यह वाक्य अक्षरशः सत्य और यथार्थ है-यह रहस्य मैं तुम को बतलाता हूँ कि मनुष्य से श्रेष्ठ और कुछ नहीं है।”

बुद्धि और विवेक को मनुष्य में अवस्थित परमात्मा की पावन प्रेरणा ही माना गया है और उसकी चेतन आत्मा तो परमात्मा का ही अंश है। इस स्थिति में मनुष्य-जीवन को नश्वर, निरर्थक कहना और शरीर को एक पवित्र मन्दिर न मानकर नरक का निवास कहना मोह के सिवाय और क्या कहा जा सकता है। अपने दिव्य रूप में विश्वास करिये और मानिए कि मनुष्य संसार में पूर्णता का प्रतीक है। वह संसार में सर्वशक्तिमान का मानवीय रूप है। उसकी आत्मा, मन और बुद्धि में विलक्षण चमत्कार छिपे हैं। जिनको सजग और विकसित कर मनुष्य ऐसे-ऐसे काम कर दिखाता है, जिन्हें देखकर विस्मित रह जाना पड़ता है। यह मानव शरीर हाड़-माँस का पुतला नहीं, दैवी भावनाओं, दैवी सम्पदाओं और देवत्व का आवास है। इसके भीतर उल्लास और आनन्द के रूप में ईश्वर की अनिर्वचनीय ज्योति जगमगाती रहती है। इसके प्रति निकृष्ट और तुच्छ विचार रखना अपराध है। इससे बचना ही चाहिये।

रोग, दोष और पाप आदि मानव जीवन की सहज प्रवृत्तियाँ नहीं हैं। उसका स्वभाव तो शुद्ध, बुद्ध और आनन्दमय है। हीनताओं का आरोपण उस पर तब आ जाता है, जब मनुष्य मानवीय नियमों का उल्लंघन करता है और ऐसे कार्यों में प्रवृत्त हो चलता हैं, जो कदापि उसके योग्य नहीं होते। ईश्वर द्वारा मनुष्य के निर्माण का एक विशेष और विशिष्ट उद्देश्य है। वह यह कि मनुष्य उसका प्रतिनिधि बनकर संसार में ईश्वरीय नियमों, भावनाओं, ज्ञान और गरिमाओं का सम्पादन करे। सत्य, न्याय, प्रेम और त्याग का आदर्श उपस्थित करे। स्वयं ऊँचा उठे ओर दूसरों को ऊँचा उठने में सहायक बने। छल, कपट, झूठ निष्ठुरता, पाखण्ड, स्वार्थ, शोषण आदि विरोधी प्रवृत्तियों का विरोध करे।

यह संसार अपने आदिम स्वरूप में जड़ता की, क्रीड़ा-स्थली के सिवाय और कुछ नहीं था। न कहीं ज्ञान या और न सौंदर्य ईश्वर को अपनी रचना की यह विडम्बना अच्छी न लगी। उसने अपने निर्माणों के बीच से एक प्राणी चुना और उसे शक्ति से ओत-प्रोत कर संसार के परिमार्जन और उसकी व्यवस्था के लिये प्रेरणा दी। उसे बुद्धि विवेक और दिव्य चेतना देकर जागृत किया। उस प्राणी ने अपने निर्माता और स्वामी ईश्वर का उद्देश्य समझा और संसार को जड़ता की ओर से प्रकाश एवं विकास की ओर बढ़ाया पाशविक वृत्तियों पर विजय प्राप्त कर सात्विक प्रवृत्तियों का प्रचलन किया। ईश्वरीय कृपा का दुरुपयोग करने वाले प्राणियों का दमन कर उन्हें एक अनुशासन में रहने पर विवश किया। स्थायी और कल्याणकारी शांति के लिये धर्म की ध्वजा ऊँची की और इस प्रकार संसार को आनन्द, उत्साह और कल्याण का आवास बनाया। ईश्वर द्वारा इस मंगल कार्य के लिये निर्वाचित प्राणी और कोई नहीं - मनुष्य ही था। और आज भी उसी ईश्वरीय उद्देश्य को आगे बढ़ाने में लगा हुआ है।

किन्तु ये मनुष्य वे मनुष्य नहीं हैं, जो मानव -शरीर और मानव-जीवन के प्रति निकृष्ट और निम्नकोटि के विचार रखते है। पुरुषार्थ के धनी ये मनुष्य वे मनुष्य ही रहे, जिन्होंने अपने को ईश्वर का पुत्र माना और उस और उसकी सिद्धियों को विवेक द्वारा समझने का प्रयत्न किया उन्होंने अन्त;करण में ओत -प्रोत आत्मा से सम्बन्ध स्थापित किया। उसके सन्देश आदेशों पर अमल किया साधना और संयम द्वारा अपने श्रेष्ठ कर्तव्य के योग्य क्षमता उत्पादित की। सद्गुण बढ़ाये और उनको अपने व्यावहारिक जीवन में मूर्तिमान् किया।

ईश्वर ने मनुष्य को और मनुष्य ने मनुष्य समाज को जन्म दिया। मनुष्यों की संख्या बढ़ी और उसमें निबल, निकृष्ट और अयोग्य लोग भी आने लगे। अपनी अयोग्यता की प्रेरणा से उन्होंने संसार में अशान्ति और अमुख का वातावरण पैदा करना प्रारम्भ कर दिया। जिसके सुन्दर संसार असुन्दरता की ओर लौटने लगा। प्रकृति की ओर से उसके अवरोध की प्रेरणा आने लगी। पात्रता के अनुयोग्य तथा अवांछित के विरुद्ध योग्य और वाँछनीय का संघर्ष प्रारम्भ हो गया। सत्य की जीत हुई और संसार की एक प्रकृति परम्परा है। जो युगों से चलती आ रही है, चल रही है और असुन्दर पर योग्य और सुन्दर की सदा विजय होती रहेगी।

संसार में अयोग्य और असुन्दर के लिए कोई स्थान नहीं है। यह सौन्दर्य, सुयोग्यता और शिवत्व की मातृभूमि है। किसी प्रकार की असुन्दरताएँ यहाँ ठहरने नहीं दी जा सकती। उससे ईश्वरीय उद्देश्य और आदेश में बाधा पड़ती है। जो शिव है वही सत्य है और जो सत्य है वही सुन्दर है। इसकी स्थापना और स्थिरता में प्रकृति स्वयं भी सहायक होती है। प्रकृति विज्ञान के अप्रतिम विद्वान् और उसकी प्रक्रियाओं के दृष्टा डाक्टर ई. बी. जेम्स ने प्रकृति की सहायता का वर्णन करते हुए लिखा है- “योग्यतम का चुनाव ही प्रकृति का नियम है। अनुकूलता के प्रति प्रकृति जहाँ दयालु, करुणामयी माता और धात्री है, वहाँ प्रतिकूलताओं के प्रति वह बड़ी क्रूर और अकारुणिका है। अपनी इस सृष्टि में वह अयोग्यताओं को एक क्षण को भी सहन नहीं करती। संसार से झाड़-झंखाड़ हटाने के लिए किसी न किसी रूप में उसकी बुहारी चलती ही रहती है।”

विश्व-विधात्री प्रकृति प्रतिक्षण अच्छे-बुरे बलवान निर्बल, अयोग्य और योग्य को देखती, पहचानती रहती है। वह अपने प्रकोपों अथवा प्रेरित संघर्षों के द्वारा शीघ्र ही निर्बलों और अयोग्यों को अपने आँगन से हटा देती है। उसके नियमों के पालन से परिपुष्ट बने जीव ही उसकी इस सृष्टि में निश्चिन्ततापूर्वक रह सकते हैं। निर्बल और असंयमी उसके एक झटके में ही जीवन की परिधि पार कर जाते हैं। योग्य और अयोग्य की निर्वाचक यह प्रकृति एक योग्य के लिए असंख्यों अयोग्यों को नष्ट कर देने में संकोच नहीं करती। ऐसी न्यायशीलता के राज्य में अयोग्यताओं के लिए जरा भी स्थान नहीं है।”

संसार-आनन्द और अमर चेतनाओं का आधार है। यहाँ दुःख शोक और अशान्ति आदि अपकारी तत्त्वों का कोई स्थान नहीं है। तथापि जो इन संतापों में जलते दिखलाई देते हैं, वे स्वयं अपन विचारों और कार्यों के कारण ही उस स्थिति के भागी बने हुए हैं। आनन्द उन मनुष्यों का अधिकार है, जो अपने को यथार्थ रूप में मनुष्य मानते, उसी के अनुसार आचरण करते हैं। सच्चे मनुष्य ही अपनी शक्तियों का उद्भव करते और उस ईश्वरीय उद्देश्य का पूरा करने का प्रयत्न करते हैं, जिसके लिए उनका सृजन किया गया है। विपरीत आदमियों के भाग्य में सुख-शांति का अंश नहीं होता। स्वयं सुन्दर बनने और संसार को सुन्दर बनाने में हाथ बटाने वाले महाभाग ही वे मानव होते हैं, जिनको परमात्मा का प्रतिनिधि कहा जाता है। हम सब अपने स्वरूप को पहचानें, मोहमयी निद्रा से जागें और उस अमर प्रकाश की ओर बढ़ जो ब्रह्माण्ड मण्डल में भरा हुआ हमारी प्रतीक्षा कर रहा है। वेद भगवान का भी तो यही आदेश है-

इच्छन्ति देवाः सुत्वन्तं।

न स्वप्नाय स्पृहयन्ति।

यन्ति प्रभादमतन्द्राः।

देवता सत्कर्म करने वालों को ही चाहते हैं। वे सोये लोगों को प्यार नहीं करते। इसलिए प्रमाद त्याग कर जाग उठो।

देवता सत्कर्म करने वालों को ही चाहते हैं- इसका स्पष्ट आशय यही है कि जो मानवोचित कार्य करता है, ईश्वरीय उद्देश्य के लिए जीवन-यापन करता है, देवताओं की कृपा उसी पर होती है। देवता सोते हुओं को प्यार नहीं करते अर्थात् उनसे घृणा करते हैं। देवताओं की घृणा का अर्थ है जीवन की सारी दिव्यताओं से वंचित हो जाना। संसार देवत्व से वंचित व्यक्तियों के लिए नहीं है। ऐसे असुर प्रवृत्ति वाले लोग किसी न किसी मिष से इस धरती की गोद से शीघ्र ही उठा दिये जाते हैं। उस समय तक भी जब तक उन्हें प्रकृति द्वारा बुहार नहीं दिया जाता, उनके लिये शोक संतापों में जलने के सिवाय और कोई अधिकार नहीं रहता। प्रमाद, आलस्य और अज्ञान त्याग कर जागरण का वरण करो, प्रकाश पावनता की ओर बढ़ो, जिससे कि मनुष्यता की सिद्धि हो और आत्मा का कल्याण।

किन्तु यह दिव्य जागरण हो किस प्रकार? इसका सरल सा उपाय यही है कि अपने वास्तविक स्वरूप में विश्वास किया जाय। अपने को उस परमपिता परमात्मा का पुत्र और प्रतिनिधि अनुभव किया जाय। अपने प्रति हीन, क्षुद्रता और निकृष्टता की सारी भावनायें निकाल फेंकी जाय ऐसा करते ही आत्मा में सन्निहित प्रकाश का निर्झर फूट उठेगा सारा जीवन दिव्य-चेतना से भर कर जाग उठेगा। अपनी विशालता, व्यापकता और सुन्दरता का बोध होगा। चारों ओर से आनन्द और अमरता का आभास होने लगेगा। जीवत्व से ईश्वरत्व की ओर प्रगति होने लगेगी।

मनुष्य जब तक अपने को मात्र हाड़-माँस का पुतला समझता और मानव-जीवन को पाप द्वारा उत्पन्न और पाप में प्रवृत्त मानता रहता है। वह अपने ही वैचारिक नरक में पड़ा रहता है। विश्वास के अनुसार ही उसे अन्तः प्रेरणा प्राप्त होती है और वह अकर्तव्य कार्यों से चाहता हुआ भी नहीं बच पाता। इसके विपरीत जब उसे अपने ईश्वरीय वंश परम्परा का बोध हो जाता है। उसका जीवन, उसका व्यवहार, उसका आचरण और उसकी प्रवृत्तियाँ स्वयं ही उसके अनुसार परिचालित हो उठती हैं। अखण्ड ब्रह्माण्ड में उसे अपना ही विस्तार, अपनी ही व्यापकता और अपनी ही चेतना अनुशासित होने लगती है। इस उच्च स्थिति में अवस्थित मनुष्य कोई भी ऐसा काम करने के लिए प्रेरित नहीं हो सकता, जो ईश्वरीय उद्देश्य के प्रतिकूल अथवा उसका प्रतिबाधक हो। वह जो कुछ करेगा, सत्य-शिव और सुन्दर ही करेगा, जो कुछ सोचेगा कल्याणकारी ही सोचेगा। अस्तु अपने को यथार्थ रूप में देखिये और उसी स्वरूप के अनुसार आचरण कर ईश्वरीय उद्देश्य में सहायक बनकर ईश्वरता के उत्तराधिकारी बनिये। यह जीवन और यह मान्यता इसलिए ही मिली है। इसका और कोई उद्देश्य नहीं है।

पेड़ की एक डाल पर बाज़ बैठा था, दूसरे पर एक तोता। तोते को देखकर बाज़ बोला-अरे तोते! देखता नहीं मैं तेरा काल- सामने खड़ा हूँ, चाहूँ तो एक क्षण में तेरे टुकड़े-टुकड़े कर दूँ फिर भी तू मुझसे न डरता है, न विनती करता है।”

तोते ने कहा - “आप ठीक कहते हैं बन्धु पर शक्ति की शोभा किसी को मारने में नहीं, रक्षा करने में होती है। बलवान होकर जो निर्बलों की रक्षा न कर सके वह भी कोई सामर्थ्यवान है?


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