महेन्द्र पर्वत पर गंगा के सुरम्य तट पर दीर्घतपस् नाम के एक ब्राह्मण अपनी धर्म-पत्नी सहित निवास करते थे। दीर्घतपस स्वाध्याय शील धार्मिक और ईश्वर परायण महात्मा थे, उनकी धर्मपत्नी भी सुशील स्त्री थी। समय पाकर उनके उन्हीं गुणों वाले दो पुत्र जन्मे बड़े का नाम पुण्रु और छोटे का नाम पावन रखा गया।
पुण्य बड़ा तपस्वी था। थोड़े ही समय में उसने आत्मज्ञान प्राप्त कर लिया। अब उसे संसार से किसी प्रकार का न राग था न द्वेष, मोह न आशक्ति। वह निष्काम भावना से साँसारिक कर्तव्यों का पालन करता।
पावन शिक्षित था सुशील था, किन्तु उसे आत्मबोध न हुआ। एक दिन दीर्घतपस् का देहान्त हो गया, उससे पुण्य को तो दुःख न हुआ पर पावन ने कई दिन पिता की स्मृति में रो-रोकर बिताए समय का संयोग कुछ दिन में ही माता का भी देहावसान हो गया तब तो पावन पर एक तरह से वज्रपात ही हो गया। मारे दुःख के उसने कई दिन तक अन्न भी ग्रहण नहीं किया। पुण्य ही ऐसा था जिसे न तो पिता की मृत्यु का दुःख हुआ और न माता के निधन का, उसने दोनों का मृतक संस्कार और श्राद्ध तर्पण शास्त्रीय विधान से सम्पन्न किया।
काफी समय बीत जाने पर भी पावन का शोक जब समाप्त न हुआ तो एक दिन पुण्य ने उसे समीप बुलाकर समझाया- तात्! हमारे माता-पिता ने इस लोक में धर्म और पुण्य का पर्याप्त अर्जन किया सो वे जीवन मुक्त हो गये। शरीर तो वस्त्र की नाई है आत्मा अनेक शरीर बदलती रहती है, उसके लिए दुःख किस बात का। इतना समझाने पर भी पावन को बोध न हुआ तो पुण्य ने योग-दृष्टि से उसे उसके कई जन्मों का हाल दिखाया। वही पावन दशाणव देश में वानर, तुषार में राजपुत्र, त्रिवर्ग देश में गधा और शाल में वन पक्षी के रूप में जन्मा था सौ जन्मों में अनेक योनियों का विवरण देखकर पावन का मोह छूटा और तब उसे आत्मज्ञान की प्राप्ति हुई।