अन्धविश्वासों की उलझन अहित ही करेगी

April 1969

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समाचार है कि मेरठ के एक युवक ने अपनी नवविवाहित पत्नी को रात में सोते समय चारपाई पर बाँधा और मिट्टी का तेल डालकर आग लगा दी, जिससे वह बेचारी जलकर मर गई। मरने से पूर्व उसने अपने पास देखने के लिये आने वाले लोगों को बतलाया कि उसके पति ने उसे जलाया है, लेकिन ऐसा क्यों किया यह नहीं बता सकती।

बाद में पता चला कि वह युवक बहुत दिनों से बीमार रह रहा था। उसने अपनी इस बीमारी से परेशान होकर एक ज्योतिषी से उसका कारण पूछा-विवेक का तकाजा था कि वह बीमारी के विषय में किसी अच्छे डाक्टर या वैद्य से बात करता। एक से फायदा न होता तो दूसरे से पूछता अच्छे से अच्छा इलाज करता। अपने आहार-विहार का संयम करता। पथ्य पालन करता और आरोग्य सम्बन्धी दिनचर्या बनाता। अब चूँकि उसने एक ज्योतिषी की शरण ली। ज्योतिषी डाक्टर तो होता नहीं जो युवक की नब्ज़ देखता उसके खान-पान और रहन-सहन की पूछ-ताछ करता, दवा देता और पथ्य बतलाता। निदान उसने पोथी उठाई, कुण्डली मिलाई और कह दिया कि उसकी पत्नी ‘मंगली’ है, इसी कारण वह हमेशा बीमार बना रहता है। युवक अविवेकशील था, अन्धविश्वासी था, ऐसा न होता तो वह किसी अच्छे डाक्टर के पास न जाकर ज्योतिषी के पास क्यों दौड़ता, जिसका कि रोग निदान अथवा उपचार से कोई सम्बन्ध नहीं होता, उसने ज्योतिषी की बात सोलह आना ठीक मान ली। पत्नी को अपने कष्ट का मूल कारण मान लिया और उससे छुटकारा पाने के लिये जलाकर मार डाला।

अन्धविश्वास के कारण ऐसी न जाने कितनी दुःखद घटनायें समाज में होती रहती है। जो प्रकाश में आ जाती है, उन्हें लोग जान लेते हैं, जो प्रकाश में नहीं आ पाती उन्हें भुक्तभोगी ही जान पाते हैं, किन्तु अप्रकाशित घटनायें प्रकाशित घटनाओं से कम नहीं अधिक ही होती है।

इस प्रकार ‘मंगली’ होने के अमांगलिक लाँछन से न जाने कितनी निरपराध स्त्रियों की जान ली जाती रही है। कितनी ही यदि जीवित भी रह जाती है तो मृत्यु से भी बुरा तिरस्कारपूर्ण जीवन बिताती हैं। घरों में उनसे कोई सीधे मुख बात नहीं करता। हर छोटी-छोटी अप्रिय घटना का कारण उसे ही माना जाता है। किसी बच्चे को जुकाम तक हो जाये तो उसका अशुभ कारण माना माना जाता है। घर में कोई बूढ़ा मर जाय तब तो उस बेचारी को ही डायन कहकर दोष दिया जाता है, फिर चाहे वह मरने वाला सौ बरस की आयु पाकर ही अपनी मौत क्यों न मरा हो। वास्तव में कितनी दयनीय दशा होती है, एक उस अबला की जिसे ज्योतिष की गणना से किसी ऐसी घड़ी में जन्मा बताया जाता है, जो अशुभ होती है और उसे मंगली कहा जाता है।

विवाहिताएं तो इस फलित ज्योतिष के फैलाये अन्धविश्वास का कुपरिणाम भोगती ही है, कुमारियों की दशा तो और भी खराब होती है। जिस लड़की को ‘मंगली’ होने का दोष लग गया मानो वह कोई डायन या चुड़ैल हो गई। कोई भी उससे विवाह करने को तैयार नहीं होता। हर एक यही सोचता है कि यदि यह विवाह कर घर आ गई तो घर का अनिष्ट हो जायेगा। ‘मंगली’ लड़की के अभिभावक जन-जन की खुशामद करते फिरते हैं पर कोई बात नहीं करता। लड़की सयानी होती जाती है। माता-पिता की चिन्ता बढ़ती जाती है। तब या तो कोई मंगली वर मिल जाय तो बेड़ा पार होता हैं, सो भी एक मात्र वर होने के कारण लड़की वाले को लड़के के पिता को मुँह माँगा देना होता है, सो भी सदैव हैसियत के बाहर क्योंकि पूरी हैसियत की माँग तो सामान्य वर के अभिभावक किया करते हैं।

इस प्रकार यदि ‘मंगल’ लड़का मिल जाता है तो लड़की के हाथ पीले हो जाते हैं, नहीं तो जीवन भर का अवांछित कौमार्य उनके मत्थे मढ़ा रहता है, जिससे वह माता-पिता की छाती पर उगे पीपल की तरह सालती रहती है। माता-पिता भाई बहन सबकी दृष्टि से उतरी अपमान, अवहेलना और उपेक्षापूर्वक जीवन काटती है। ‘मंगली’ होने पर जो अशुभ मानी जाती हो, कोई विवाह करने को तैयार न होता हो, घर में कोई सीधी आँख न देखता हो, उस लड़की की मानसिक दशा का कोई हृदयवान् भावुक ही अनुमान कर सकता है।

‘मंगली’ लड़कों की भी दशा अच्छी नहीं होती, उनसे भी कोई अपनी बेटी ब्याहने को तैयार नहीं होता। देर तक अविवाहित रहने से समाज में उन्हें नीची दृष्टि से देखा जाता है। चार दोस्त बात-बात पर मजाक बनाते हैं। संयोगवश यदि कोई ‘मंगली’ लड़की मिल गई, विवाह हो गया, नहीं तो उतरती उम्र में उल्टा-सीधा पूरा-अधूरा काना-कुबड़ा विवाह करके अपना कुँआरापन उतारते हैं।

इस अड़ंगे के कारण अधिकतर अनुपयुक्त जोड़े ही मिल जाया करते हैं, ऐसी दशा में उनका विवाहित जीवन एक दुखान्त नाटक जैसा बन जाता है। ज्योतिष के अनुसार यदि किसी विशेष ग्रह-नक्षत्र के योग में जन्म लेने से कोई शुभ, अशुभ हो जाता होता और उसका इष्ट अनिष्ट निश्चित होता तो अवश्य ही उस योग में जन्म लेने वाला संसार का हर व्यक्ति सुखी या दुःखी रहता। किन्तु ऐसा कहाँ देखा जाता है? शुभ कहे जाने वाले योग में जन्म लेने वाले हजारों, लाखों व्यक्ति सुखी या दुःखी रहता। किन्तु ऐसा कहाँ देखा जाता है? शुभ कहे जाने वाले योग में जन्म लेने वाले हजारों, लाखों व्यक्ति दुःखी और अशुभ कहे जाने वाले योग में जन्म लेने वाले न जाने कितने लोग सुखी पाये जाते हैं।

संसार के अन्य देशों की बात यदि छोड़ भी दी जाये तो भारत में ही ऐसी अनेक जातियाँ और वर्ग मौजूद हैं, जो ‘मंगली’, ‘अमंगली’ पर विचार नहीं करते, किन्तु उनके विवाह भी इस मान्यता को मानने वालों की तरह ही सफल, असफल होते रहते हैं और यदि विचार पूर्वक देखा और खोज की जाये तो पता चलेगा कि अन्धविश्वासों से प्रेरित ग्रह-नक्षत्रों विधि, कुण्डली आदि के चक्कर में पड़ने वालों का दाम्पत्य जीवन, उस चक्कर में न पड़ने वालों की अपेक्षा अधिक असफल एवं दुखान्त होता रहता है। इस प्रकार की मान्यताओं एवं तर्कहीन बातों में आस्था रखना बौद्धिक हीनता का घोतक है। जिस जीवन के लिये विवेक और समझदारी की आवश्यकता है, उसको इसका अभाव असुन्दर बना ही देगा।

अट्ठाइस नक्षत्रों में छः नक्षत्र ‘मूल’ माने गये हैं। मूलों में जन्म लेने वाला बच्चा फलित ज्योतिष के अनुसार माता-पिता भाई-बहन मामा, चाचा आदि के लिये अशुभ माना जाता है। उसके जन्म से जहाँ घर पर खुशी होनी चाहिये, वही उदासी छा जाती है। यदि मूल में उत्पन्न बच्चा लड़का है तो उसे उपेक्षा, तिरस्कार और अस्नेह का भाजन बनना पड़ता है और यदि वह लड़की हुई तो उसके मरने की मनौती मनाई जाने लगती है।

मूलों में जन्म पाये न जाने कितने बच्चों को उनके माता-पिता घर के बाहर डाल आते हैं। तब वे बेचारे या तो सुरक्षा के अभाव में मर जाते हैं अथवा किसी सहृदय द्वारा पल कर अज्ञात माता-पिता और वंश कुल के लाँछन के साथ एक तिरस्कृत जीवन बिताते हैं। गोस्वामी तुलसीदास और महात्मा कबीरदास ऐसे ही बच्चों में से थे, जिन्होंने मूलों में जन्म लिया था और जो अपने अन्धविश्वासी माता-पिता द्वारा अनिष्ट की आशंका से धूरे पर डाल दिये गये थे। इनमें से तुलसीदास को धीवरी ने और कबीरदास को एक मुसलमान जुलाहिन ने पड़ा पाया था और उठाकर पाल लिया था। यदि यह संयोग न हो गया होता और उन दोनों को अमुक स्त्रियों ने न पाल लिया होता तो नब्बे प्रतिशत इस बात की ही आशंका थी कि भारतवर्ष के दो उज्ज्वल नक्षत्र या तो शीत, धाम, असुरक्षा के कारण शैशवकाल में ही मर जाते अथवा किसी भूखे स्यार, कुत्ते आदि जानवर के पेट में चले जाते।

ऐसी दशा में भारतीय समाज की कितनी बड़ी हानि होती इसका आज अच्छी प्रकार से अनुमान लगाया जा सकता है। फिर भी इस मूलवाद के चक्कर में न जाने ऐसी कितनी प्रतिभायें माता-पिता द्वारा त्यक्त होकर नष्ट हो गई होंगी और कौन कह सकता है कि आज भी नष्ट हो रही होंगी।

एक समाचार छपा था कि कानपुर की सब्जी मण्डी निवासिनी एक उन्नीस वर्षीया महिला ने अपनी एक वर्ष की लड़की को सरसैय्याघाट पर गंगाजी में फेंक दिया, जिसे मल्लाहों ने डूबने से बचा लिया। बाद में पूछने पर पता चला कि उस लड़की का जन्म मूलों में हुआ था, जो कि माता-पिता के लिये अनिष्ट था। अपने को और अपने पति को अनिष्ट से बचाने के लिये ही उसने लड़की को गंगाजी में फेंका था। पुलिस ने प्रसंग अपने हाथ में लिया और उस स्त्री को बच्ची के साथ जेल भेज दिया गया।

इसी प्रकार के अनेक अन्धविश्वास हिन्दू समाज में विवाहों के सम्बन्ध में चलते रहते है, जिनसे न केवल असुविधा ही होती है, बल्कि हानि भी होती है। उनमें से एक मुहूर्त और एक विधि वर्ग भी है। मुहूर्त का अड़ंगा बहुत बार ऐसे विवाहों को काट दिया करता है, जो हर प्रकार से सुविधाजनक होते हैं। बात पक्की हो चुकी होती है, दोनों पक्ष तैयार होते हैं और उन्हें सुविधा भी रहती है, किन्तु मुहूर्त न होने से विवाह टल जाता है और किसी ऐसे असुविधाजनक समय पर बनता है कि लोगों को विवाह-शादी एक मुसीबत बन जाती है। हिन्दू समाज में विवाहों के लिये कुछ चुने हुए मास, दिन और तिथियाँ चलती हैं। उन पर सैकड़ों हजारों बरातें आती जाती हैं। रेलों में स्थान नहीं मिलता, बसें बुरी तरह भरी चलती हैं, वस्तुएँ ढूँढ़े नहीं मिलती हलवाई, नौकरों और पंडितों का अभाव-सा हो जाता है और ऋतुयें तो इतनी प्रतिकूल होती है कि विवाह की साज, सँभाल करना कठिन हो जाता है। पैसे का नुकसान होता, परेशानी सिर पर सवार रहती, लोगों के खाने-पीने का क्रम बिगड़ जाता है और और ऋतु और व्यवस्था के अनुकूल न होने से लोग बीमार तक पड़ जाते हैं। यदि भगवान् का बनाया हर दिन शुभ मानकर किसी सुविधाजनक समय में शादी-ब्याह किये जायें और यह मुहूर्तवाद का चक्कर छोड़ दिया जाये तो किसी को किसी प्रकार की असुविधा न हो। सभी काम बड़ी सरलता एवं आनन्दपूर्वक हों।

विधि-वर्ग का अड़ंगा बहुत बार हर प्रकार से उपयुक्त जोड़ों की शादी नहीं होने देता। दोनों और के लोग परस्पर संतुष्ट होते हैं। विवाह करना चाहते हैं, शादी ठीक भी हो जाती है, किन्तु विधि-वर्ग ठीक से न मिलने पर सम्बन्ध हटाने पड़ते हैं और तब उपयुक्त जोड़ों के बजाय अनुपयुक्त जोड़े मिल जाते हैं, जिससे जीवन भर रोना पड़ता है।

यह मुहूर्त और विधि-वर्ग की बातें कितनी निरर्थक और अविवेकपूर्ण हैं, इसका पता इसी बात से चल सकता है कि भारत में ही रहने वाले पंजाब के सिक्ख ही नहीं सनातनी हिन्दू तक उन महीनों में शादी करते हैं जिनमें हर प्रकार की सुविधा रहती है, वे मुहूर्तवाद के चक्कर में नहीं पड़ते। उत्तर भारत जैसी मुहूर्त मान्यता पंजाब और दक्षिण भारत में नहीं मानी जाती, जबकि विवाहों की अनेक बातें एक जैसी होती है। इसका कारण यह है कि वहाँ के हिन्दुओं ने इस मुहूर्तवाद के अन्धविश्वास की पोल समझ ली है और उसे निरर्थक समझकर त्यागने का साहस किया है, जिससे वे उत्तर भारत के लोगों की अपेक्षा विवाहों को अधिक सुविधाजनक ढंग से कर लेते हैं।

निःसन्देह इन सब बातों में न तो कोई सत्य है और न तथ्य, केवल मान्यता एवं अन्धविश्वास भर ही है, जिसे अनेक अविवेकी लोगों ने समय-समय पर प्रचलित कर दिया है। प्रचलन के कारण इनको अब पढ़े-लिखे लोग भी मानने लगे। मनुष्य को अपने विवेक से काम लेकर सत्य, असत्य को अपनाना और छोड़ना ही चाहिये। साधारण सी बात है कि जो तथ्य वास्तविक होते हैं, वे किसी एक प्रदेश अथवा सम्प्रदाय पर लागू नहीं होते, बल्कि सभी प्रदेशों, देशों और वर्ग-जातियों पर समान लागू होते हैं। यदि इस योग, मुहूर्त, शुभ-अशुभ और वर्ग-विधि आदि में कोई तथ्य रहा होता तो इनके अनुसार विवाह करने वाले सदा सुखी रहते और इनका कोई भी विचार न रखकर विवाह करने वालों का दाम्पत्य-जीवन असफल होता। किन्तु ऐसा होता नहीं। ईश्वर के बनाये सब दिन समान रूप से शुभ हैं, सबका जन्म शुभ ही होता है। यह अशुभता की भावना मानसिक दुर्बलता मात्र है, जो कि अन्धविश्वास के कारण उत्पन्न हुई है। इसे त्याग देना चाहिये और विवेकपूर्वक हर काम उसके उपयुक्त अवसर पर मंगल भावना से ही करना चाहिये।


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