समर्थ गुरु रामदास दो-तीन घर माँग लिया करते थे, उनमें जो कुछ मिल जाता था, उससे दिन भर का भोजन बना लेते थे। एक दिन प्रातः काल वे ऐसे ही एक दरवाजे पर खड़े हुए। भिक्षा के लिये आवाज लगाई। उस घर की स्त्री उस दिन किसी कारणवश क्रोध में भरी हुई थी। समर्थ की आवाज ने आग में आहुति का काम किया। स्त्री उबल पड़ी और जिस पोतने से चौका धो रही थी वही समर्थ के मुख पर दे मारा।
समर्थ न रुष्ट हुये, न उन्हें कष्ट हुआ। मुसकराये और पोतना लेकर ही चल पड़े। नदी पर पहुँचे वहाँ स्नान किया। उस पोतने को भी अच्छी तरह धोखा और सुखाया। शाम को आरती के लिये बत्तियाँ उसी कपड़े की बनायी और भगवान से प्रार्थना की -हे प्रभु! जिस तरह यह बत्तियाँ काम दे रही है, उसी तरह उस माता का भी हृदय प्रकाशवान् हो।