जीवन को सुखी और संतुष्ट बनाने के लिये जिन वस्तुओं की अनिवार्य आवश्यकता मानी गई है स्वास्थ्य और शक्ति उनमें प्रमुख हैं, इनके अभाव में सुखी और संतुष्ट रहना सम्भव नहीं।
घर में धन-दौलत की कमी न हो, स्त्री-बच्चे नाते-रिश्तेदार सब कोई हों, किन्तु आरोग्य न हो तो इन सब सुखदायक वस्तुओं से क्या कोई सच्चा हर्ष या उल्लास मिल सकता है? घर में उत्सव का अवसर हो, लड़के-लड़की का विवाह हो, सब ओर चहल-पहल दिखाई दे रही हो, किन्तु आप स्वयं अस्वस्थ पड़े हों तो क्या उस उत्सव का कोई आनन्द पा सकते हैं। उस अवस्था में एक नैतिकता जन्य बौद्धिक संतोष के सिवाय वह आनन्द-पुलक जिसे मन और शरीर तक में अनुभव की जाती है, नहीं मिल सकती। सारा उत्सव नीरस और फीका-फीका ही अनुभव होगा।
भोजन-वस्त्र सुविधा-साधन सभी कुछ हों, किन्तु आरोग्य के अभाव में उनका कोई आनन्द नहीं रहता। पथ्य के अतिरिक्त किसी अन्य भोजन का तो अधिकार ही नहीं रहता। आराम के साधनों का उपयोग किया जा सकता है, किन्तु बीमार के लिये उनका क्या सुख हो सकता है? स्वास्थ्य सही हो, शरीर में पूर्ण आरोग्य हो तो साधारण भोजन-वस्त्र और सामान्य सुविधा-साधनों के साथ भी सुखी और उल्लासपूर्ण जीवन बिताया जा सकता है। स्वास्थ्य स्वयं एक सुख है, उसे बाह्य साधनों पर जीवित रहने की अपेक्षा नहीं होती। युग के धनकुबेर कहे जाने वाले रॉकफेलर जैसे न जाने कितने व्यक्ति सर्व सम्पन्न होने पर भी दो रोटी खा सकने और जीवन में खुलकर हँसने के लिये तरसते रहते हैं। स्वास्थ्य सम्पदा से रहित वे करोड़ों-अरबों के स्वामी होते हुए भी दीन-हीन और मलीन बने रहते हैं। उन्हें स्वयं की तुलना में अपने मिल के मजदूर भाग्यशाली लगते हैं, जो दिन भर पसीना बहाते, डटकर काम करते और शाम को जो कुछ मिल जाता है, डटकर खाते और चैन की नींद सोते हैं। स्वास्थ्य सम्पदा के धनी होने से वे फटे वस्त्रों और टूटे मकानों में भी यह आनन्द पा लेते हैं, जो स्वास्थ्य-हीन पूँजीपति अपनी सजी-धजी कोठियों में नहीं पा पाते स्वास्थ्य संसार में सुख का बहुत साधनों का संपर्क पाकर अधिक उद्दीप्त हो उठती है। स्वास्थ्य के अभाव में सुख-साधनों का मूल्य नहीं। इस सम्पदा की रक्षा हर उपाय से करनी ही चाहिये।
संसार शक्ति के आधार पर चलता है। यदि शक्ति का सर्वथा ह्रास हो जाये तो संसार का चलता हुआ चक्र जैसे ही रुक जाये, जैसे बिजली फेल हो जाने से चलती हुई मशीन रुक जाती है। शरीर में जब तक शक्ति है इसका मूल्य, महत्व अपरिमित है। शक्ति समाप्त हो जाने पर योग बन जाता है। किसी काम का नहीं रहता। फिर इससे न स्वयं प्रेम रहता है और न दूसरों की सहानुभूति। निरुपयोगी होकर अवहेलना की वस्तु बन जाता है। उपयोगिता समाप्त हो जाने पर संसार में हर वस्तु मूल्यहीन एवं तिरस्कार के योग्य हो जाती है। अनुपयोगी का महत्व, इस कर्मभूमि संसार में ही भी कैसे सकता है। शक्ति शून्य किसी वस्तु, फिर चाहे वह शरीर हो अथवा अन्य वस्तु, की कोई कदर नहीं रहती।
शक्ति हीनता और भय का समा सम्बन्ध है। जहाँ अशक्तता होगी वहाँ भय का रहना स्वाभाविक है। शक्ति हीन शरीर को रोगों का, अशक्त मनुष्यों को, दुष्टों और शत्रुओं का भय रहता है। निर्बल धनवान् को चोर लुटेरों का भय सताता रहता है। शक्ति-हीन न जीवन संघर्ष में ठहर सकता है और प्रतिकूलताओं से टक्कर ले सकता है। अपमान, तिरस्कार, उपेक्षा और अवहेलना शक्ति हीनता के अनिवार्य दण्ड है। यह विरोधियों का अवरोध तो कर ही नहीं सकता साथ ही भय और विरोध के कारण किसी सत्य बात को भी सामने प्रकट नहीं कर सकता।
साहस-हीनता और कायरता के कारण, शक्ति-हीन को दब्बू जीवन बिताने के लिये विवश होना पड़ता है। ऐसी दशा में सुख शान्ति की आशा कैसे की जा सकती है। शक्ति-हीन को लोग जरा-जरा-सी बात पर ही दबाने सताने का प्रयत्न किया करते हैं, शक्ति-हीन की स्वत्व सम्पत्ति और अधिकार छिनते देर नहीं लगती। कमजोर का कोई साथी बनने को तैयार नहीं होता। यहाँ तक कि निर्बलता से अभिशप्त मनुष्य को परमात्मा तक भुला देता है। शक्ति-हीनता संसार में बहुत बड़ा दुःखदायक पाप है, फिर चाहें वह शारीरिक, मानसिक अथवा बौद्धिक, किसी प्रकार की भी क्यों न हो।
इस प्रकार देख सकते हैं कि स्वास्थ्य और शक्ति ही सुख-शान्ति के आधार एवं स्तम्भ है। इनका अभाव न जाने कितनी तरह की अकुलाहटें और कुण्ठाएँ जीवन में पैदा कर देता है। जीवन का समुचित विकास शरीर हृष्ट-पुष्ट हो, हृदय उदार हो, मन प्रसन्न और बुद्धि निर्विकार हो, तभी सम्भव हो सकता है। अस्त-व्यस्त शारीरिक अवस्था, खोखली मन बुद्धि और अस्वस्थ जीवन गति से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता।
जिस वृक्ष को, जब वह छोटा रहता है, एक सुकुमार पौधे की स्थिति में होता हैं, तक खाद और पानी की ज्यादा आवश्यकता होती है। जिस पौधे को यह सब उचित समय पर मिलता रहता है वह आगे चलकर एक विशाल वृक्ष के रूप में विकसित होता है। उसके जीवन में पल्लव-पुष्प और फलों की कोई कमी नहीं रहती। उसकी जड़े पृथ्वी में दूर-दूर तक फैली रहती है। उसके तने और डालियां मोटी और जीवन्त रहती है। वह हर ऋतु में समुचित रूप से प्रसन्न और पुष्ट रहता है। अक्षय हरियाली का वह अधिकारी बना रहता है। हवा के झोंके और वनस्पति के रोग उसे शीघ्र आक्रान्त नहीं कर पाते। वह दीर्घजीवी और दीर्घ उन्नति वाला होता है। उसको साधारण अनावृत्तिं प्रभावित नहीं कर पाता, उसमें स्वयं सरलता का गुण आ जाता है। ठीक इसी प्रकार मनुष्य भी जब बाल्यकाल में समुचित जीवन तत्त्व पाता रहता है तो वह भी विकसित समुदित और ससत्त्व बनकर जीवन की हर सम्पन्नता का आनन्द उठाया करता है।
मनुष्य जीवन का उर्वरक तत्त्व वीर्य माना गया है। मानव जीवन की सारी शक्तियाँ उसी के अधीन रहती है। उसे मनुष्य का जीवन ही कह दिया जाये तो कुछ अत्युक्ति न होगी। उस रक्षा से ही शरीर के अवयव पुष्ट होते हैं, मेद एवं मज्जा का निर्माण होता है। ओज एवं तेज का आविर्भाव होता है। बुद्धि का विकास और विवेक का स्फुरण होता है। जो वीर्यवान् है, मेद एवं मज्जा से परिपूर्ण है, वही संसार के सुखों का उपयोग कर सकता है। इसकी रक्षा स्वास्थ्य की गारण्टी है। स्वास्थ्य के शक्ति और शक्ति से सम्पन्नता सम्भाव्य होती है। स्वस्थ शक्ति ही भोजन का स्वाद पा सकता है, उसे पचा कर आत्मसात् कर सकता है। अस्वस्थ व्यक्ति नहीं।
वीर्य रक्षा का उपाय ब्रह्मचर्य का अभ्यास हो जाता है, वह उसके गुण से सर्वथा परिचित हो जाता है और फिर जीवन भर उसके पालन का प्रयास किया करता हे। ऐसा संयमी व्यक्ति, संसार का ऐसा कौन-सा सुख है, जो नहीं पाता। जीवन के समुचित विकास और उसके आधार पर सुख शान्ति के विधान को ही दृष्टि में रखकर भारत की आर्य संस्कृति में चार आश्रमों का व्यवस्था की गई थी। उसमें सबसे प्रथम ओर महत्त्वपूर्ण आश्रम, ब्रह्मचर्याश्रम को ही माना गया है। पच्चीस वर्ष तक पूर्ण ब्रह्मचारी रहकर तरुण जब संसार में प्रवेश करता था, तब उसके पास शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक सारी शक्तियों का संग्रह रहता था, जिससे न तो वह आगे चलकर असफल होता था और न दुःख पाता था। उसका स्वास्थ्य तो कभी दुर्बल होता ही न था। बाल्यकाल से किया हुआ उसका संयम का अभ्यास जीवन भर सहायक बना रहता था। ब्रह्मचर्य की महत्ता जानने वाले संयमी पुरुष इन्द्रिय भोग के लोलुप नहीं होते। वे अपने तेज का अपव्यय करने में बड़े ही कृपया और अनुदार रहते है। उनकी यह संयमित अनुदारता उनके सम्पूर्ण जीवन को उदार और प्रसन्न बना देती है।
वेदों, शास्त्रों और आरोग्य शास्त्रों में जिस ब्रह्मचर्य की भूरि-भूरि प्रशंसा की गई और आवश्यकता बताई गई है। महापुरुषों ने जिसे जीवन विकास का आधार और मनीषी जनों ने जिसको सारे सुखों का सार घोषित किया है उसी ब्रह्मचर्य की आज सबसे अधिक उपेक्षा की जा रही है। इसे अनावश्यक ही नहीं अप्राकृतिक तक बतलाया जा रहा है। यह खेद का विषय है। इसी विचार विपरीतता के कारण ही तो आत समाज की यह दशा देखने में आती है।
असंयम के मारे वृद्धों की तो बात ही छोड़ दीजिये, आज के तरुण-किशोर और बालक तक, क्षीण शरीर, मरे मन, कान्ति-हीन मुख और निर्जीव दशा लिये हुये चारों ओर फिरते दिखलाई देते हैं। न उनमें कोई उत्साह दृष्टि गोचर होता है और न आशा का प्रकाश ही उनकी आँखों में दिखाई देता है। बनाव-शृंगार और फैशन, प्रदर्शन से वे अपने को बहुत कुछ सजाने और प्रभावशाली बनाने का प्रयत्न करते है, किन्तु उनका असली खोखलापन उनकी हर भाव भंगिमा से स्पष्ट प्रकट होता रहता है। जिस भारत में संयम की सबसे अधिक महत्ता थी, वहीं असंयम की अति होती देखी जा रही है। ब्रह्मचर्य की अमहत्ता के कारण ही पीढ़ियों में बल, बुद्धि, विद्या और तेज का अभाव आता जा रहा है। ऐसी दशा में क्या व्यक्तिगत और क्या समाजगत किसी प्रकार की सुख-शांति स्वास्थ्य, शक्ति अथवा सम्पदा की आशा नहीं की जा सकती है।
इस दशा में सुधार होना ही चाहिये। बच्चों को प्रारम्भ से ही ऐसे वातावरण में रखा जाना चाहिये, जिससे उनमें विकास न उत्पन्न हों। इसके लिये परिवारों में दाम्पत्य ओर युगल-संयम को स्थान दिया ही जाना चाहिये। नासमझ परिजनों की असावधानी में बच्चों में शीघ्र ही काम चेतना उत्पन्न हो जाती है। बच्चों के किशोर होने पर उनकी गतिविधियों, संगतियों और खान-पान पर ध्यान रखना चाहिये, जिससे वे ऐसी संगति में न पड़ जायें जो उनकी चेतना के लिये हानिकारक हो ओर ऐसे तत्त्व उनके शरीर में न पहुँच जायें, जो उद्दीपन और संयम-अश्लील साहित्य से बचाना चाहिये साथ ही उनका विवाह तो अपरिपक्व आयु में कदाचित करना ही नहीं चाहिये।
बच्चों के साथ उन प्रौढ़ों को भी अब से ही संयम का पालन करना प्रारम्भ कर देना चाहिये, जो न तो बाल्य-काल में कर सके हैं और न अब कर पा रहे हैं। उन्हें निराश अथवा उदासीन होने की आवश्यकता नहीं। संयम जब से भी किया जायेगा, तब से लाभकर सिद्ध होता है। वर्तमान जीवन में जो यह व्रत लाभकर होगा ही बुढ़ापे में तो और भी अधिक काम आयेगा बीच जीवन से ब्रह्मचर्य का व्रत लेने और पालने वाले आज के युग में महात्मा गाँधी जैसे व्यक्तियों के उदाहरण मौजूद है। उन्होंने सपत्नीक रहते हुये भी ब्रह्मचर्य व्रत का पालन कर दिखाया। यह कठिन नहीं केवल लगन की आवश्यकता है।
धर्म शास्त्र और लोकानुभव के आधार पर यह असंदिग्ध सत्य है कि जीवन की सुख-शांति का मूलाधार ब्रह्मचर्य है। जब से जितने दिन इस व्रत का पालन किया जायेगा, तब से उतनी अवधि तक मनुष्य स्वस्थ, सशक्त, सम्पन्न और सुखी जीवन-यापन कर सकता है।