मुनि शरलोमा ने बहुत तप किया तब उन्हें सन्तान की प्राप्ति हुई। अपने एकमात्र दाशूर को उन्होंने बहुत अच्छी तरह पढ़ाया-लिखाया दाशूर भी अपने पिता का बड़ा सम्मान करता और सदैव उनके साथ ही यज्ञादि शुभ कर्मों में सम्मिलित होता, इसलिए पिता-पुत्र का प्रेम और भी घनिष्ठ होता गया।
समयानुसार शरलोम का निधन हो गया। दाशूर को उससे इतना कष्ट पहुँचा कि उसने कई दिन तक कुछ खाया-पिया भी नहीं। दिन-रात पिता की याद कर-करके रोता रहता। यह देखकर भगवान अग्निदेव ने उसे समझाया- “वत्स ( जीवन और मरण संसार के अटल नियम हैं, तू उनसे दुखी होगा तो यह संसार नीरसता के अतिरिक्त कुछ न रह जायेगा।” दाशूर को अग्निदेव के प्रबोध से बहुत शांति मिली। उसने पूछा - भगवन् ( दुःख से निवृत्ति का उपाय क्या है” - अग्निदेव ने समझाया - “आत्मज्ञान और आत्मज्ञान तप से होता है, इसलिए वत्स तू तप कर। दाशूर ने बहुत प्रयत्न किया किन्तु तप के योग्य पवित्र स्थान न मिल सका इस पर उन्होंने फिर अग्नि की शरण ली- अग्निदेव प्रकट हुये और बोले वृक्ष की कोपलों से पवित्र और कोई स्थान न मिलेगा, इतना कहकर वे अदृश्य हो गये। दाशूर ने विचार किया कोंपल में तो स्थूल शरीर बैठ ही नहीं सकता। इसलिए अपना मन कोंपल में रमाना प्रारम्भ कर दिया। कुछ दिन के अभ्यास से उनका मन पवित्र हो गया। मानसिक पवित्रता के द्वारा ही अन्त में उन्होंने सिद्धि प्राप्त की।