वृक्ष-वनस्पतियों में फैली हुई विश्वात्मा

April 1969

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आत्मा वृक्षों और वनस्पतियों में भी है, इसलिये अध्यात्मवादी दृष्टिकोण के अनुसार उनके साथ भी सद्व्यवहार करना चाहिये वृक्षों का लगाना उनका पोषण करना एक पुण्य माना गया है, उसी प्रकार उन्हें काटना और बढ़ने न देना पाप कहा गया है। वृक्ष हमें प्राण -वायु जीवन-तत्त्व हरीतिमा, छाया, लकड़ी, पुष्प-फल आदि बहुत कुछ देते हैं, ऐसे उपकारी प्राणियों से, वृक्षों से हमें बहुत कुछ सीखना है और उनके जैसा उपकारी बनना है।

यह प्रश्न हो सकता है कि वृक्ष जड़ है, उनमें किसी तरह की चेतन संवेदनशीलता नहीं है, इसलिये उनके साथ जड़ जैसा बर्ताव करना पाप या अनुचित कर्म नहीं। इस सम्बन्ध में वैदिक मान्यतायें स्पष्ट ही इस पक्ष में हैं कि वृक्षों में जीवन हैं, अब उक्त ज्ञान को वैज्ञानिक अनुसंधानों के द्वारा भी सिद्ध करना सम्भव हो गया है। सर जगदीशचंद्र बोस का तो जीवन ही इसी बात में लग गया उन्होंने वृक्षों की संवेदनशीलता के अनेक प्रयोग किये थे। साँस और स्पन्दन की गति की नाप और जहरीले पदार्थों का प्रयोग करके यहाँ तक सिद्ध कर दिखाया था कि जिस तरह और प्राणियों के शरीर में विष का प्रभाव होता है, वृक्षों में भी वैसा ही प्रभाव पड़ता है। हरे-भरे होना, वृक्षों का जीवन है तो उनका सूख जाना ही मृत्यु। मनुष्यों की तरह आहार पर जीवित रहने, साँस लेने, सूर्य-रश्मियों से जीवन ग्रहण करने, काम क्रीड़ायें आदि विभिन्न क्रियायें वृक्ष-वनस्पति भी करते हैं, इसलिये उन्हें प्राणि-जगत् का ही एक अंग मानने से इनकार नहीं किया जा सकता।

अथर्व के प्रथम काण्ड, अनुवाद 5 सूक्त 32 की प्रथम ऋचा में येन प्राणन्ति वीरुषः ऐसा प्रयुक्त हुआ है। उसका अर्थ ही है- “जिससे बेलें जीव धारण करती है” उसके अतिरिक्त भी कहा है-

जीवला न धारिषाँ जीवन्तीमोषधीमहम्। -अथर्व 8।4।6,

उक्त मन्त्र में भी औषधियों (वनस्पति) में जीवन होता है, प्रमाणित किया गया है।

छान्दोग्य उपनिषद् में भी कहा है-

अस्य सोम्य! महतो वृक्षस्य यो मूलेस्भ्याळन्याज्जीवन् स्वेधो मूलेस्भ्याळन्याज्जीवन् स्वेत स एवं जीनात्मनानुप्रभूतः पेपीय मानो मादमान स्तिहति॥1॥-॥2॥

अर्थात्- हे सौम्य! यदि इस बड़े वृक्ष को मल से काटे तो मनुष्य के रक्त की तरह जीता हुआ श्रवण करता है, मध्य और अग्रभाग (टहनी आदिं) काटने से भी वैसा ही जीवन-रस टपकता है, इससे प्रतीत होता है कि वृक्ष जीवात्मा से अधिष्ठित हुआ है। एक स्थान से जीवन रक्त निकल जाने से रोगी अंग की तरह वृक्षों की भी अनेक टहनियाँ सूखती रहती है, जब वृक्ष से जीवात्मा का अन्त हो जाता है तो वह सूख जाता है और उसमें किसी प्रकार का प्राण-स्पन्दन नहीं रह जाता।

मनुस्मृति में योनियों का वर्णन करते हुए मनु भगवान् करते हैं-

उद्भिजाः स्थावराः सर्वे बीजकाण्ड पुरोहिणः। औषध्यः फलपाकान्ता वह पुष्प फलोपणाः॥॥47॥

कर्मानुसार जीव उद्भिज और स्थावर योनियों औषधि फल-फूल वाले वृक्षों-पौधों में भी जन्म ग्रहण करता है। अनेक मन्त्रों में यह भी बताया है कि उन्हें भी मनुष्य की तरह सुख-दुःख की अनुभूति होती है। पौधे वृक्षों द्वारा साँस भी लेते और जड़ों द्वारा खाते भी है। चल फिर नहीं सकते बस इसी से उन्हें स्थावर कहाँ गया है पर यह कोटि जड़ता से भिन्न ही है।

आज लोगों को इस पर अविश्वास है, शंका है। वस्तुतः सारी कठिनाई आत्मा के तत्त्व स्वरूप में परिचय न पाने की है। मनुष्य एक इकाई है, इसलिये वह आत्मा को भी इकाई के रूप में ही देखना चाहता है, जबकि आत्मा एक चैतन्य तत्त्व है, जो मनुष्य की तरह ही सु-ख-दुःख आदि की अनुभूति करता है, भले ही वह कहीं भी किसी भी स्थिति में रहे। अंग्रेज अपनी अनुभूति को भिन्न शब्दों में कहता है-भारतीय रूसी और चीनी भिन्न भाषा में पर अनुभूति की परिभाषा सर्वत्र एक-सी है, भले ही उसे शब्दों से व्यक्त न किया जा सके, इसलिये यह नहीं मानना चाहिये कि शब्द रहित पदार्थों में आत्मा का अस्तित्व नहीं रहता।

कभी किसी उपवन में जाने का अवसर मिले तो देखना कि फूलों पर मंडराती मधुमक्खियाँ, भँवरे आदि अपने पैरों में एक प्रकार का पीला पाउडर लपेटे रहते हैं, यद्यपि वे नहीं जानते पर इस पराग के द्वारा वे वृक्षों, वनस्पतियों में रतिक्रिया की वैसी ही आवश्यकता पूर्ण करते हैं जैसी स्त्री और पुरुषों के संयोग से ही जिस प्रकार जीव की उत्पत्ति सम्भव है, वृक्ष, वनस्पतियों में भी वैसी ही क्रिया सम्पन्न होती है, उसके बिना उनकी वंशावली भी बढ़ नहीं सकती।

वनस्पति-विज्ञान के विद्यार्थी जानते होंगे कि फूल दो प्रकार के होते है। (1) पुंकेसर (पुरुष योनि वाले), (2) स्त्रीकेशर (स्त्रियों योनि वाले)। स्त्रीकेशरों के निचले हिस्से के भीतर बीजाण्ड होते हैं, जब तक इस किस्से में किसी पुंकेसर के पराग कण नहीं पहुँचते तब तक प्रजनन का कार्य हो नहीं सकता। फूल सूख जायेगा पर जब तक उसके वर्तिकाग्र पर पराग न झड़ेगा (पोलीनेट) तब तक बीच पैदा नहीं होगा। परागण की क्रिया गर्भधारण जैसी ही है और उसी से फूल से फल की उत्पत्ति होती है।

इस सम्बन्ध में प्रसिद्ध जर्मन वनस्पतिज्ञ कैमरियिस ने भी माना है कि वृक्षों का प्रजनन विज्ञान मनुष्य के प्रजनन की भाँति ही बड़ा आश्चर्यजनक है और वर्णसंकर पैतृक बीमारियाँ या गुणों की सारी बातें उनमें भी मनुष्यों की तरह ही होती है। अच्छी नस्ल की सल उगाने के लिये अच्छे फूलों वाले पुंकेसरों और स्त्रीकेशरों को मिलाया जाता है अरब, सीरिया, बेबीलोन ओर मिश्र के निवासी अच्छी किस्म के खजूर पैदा करने के लिये अच्छे खजूर के नर पुष्पों को मादा पुष्पों में झाड़ा (पोलीनेट) किया जा करते है।

‘केतकीयम’ भारतीय शब्द भी इसी मान्यता का प्रतिपादक है कि प्रत्येक वृक्ष के फूलों में नर और मादा किस्में होती है और उन दोनों के संयोग से ही उनकी वंशावली का विकास होता है। कई बार यह माध्यम पशु-पक्षियों और हवा आदि के द्वारा भी बनता है। पर यह संयोग प्रत्येक दशा में आवश्यक हैं। बीजाण्ड में फल का विकास गर्भ-कोष में पड़े वीर्य से बच्चे के विकास जैसा ही होता है।

वृक्षों में जीवन के अस्तित्व का सबसे बड़ा प्रमाण उसका विश्लेषण है। जिस प्रकार जीवित प्राणी प्रोटो-प्लाज्मा नामक तत्त्व से बना होता है और उसका सबसे सूक्ष्म कण सेल कहलाता है, उसी प्रकार वनस्पति के सबसे छोटे अणु का नाम जीवाणु (बैक्टीरिया) है। इन्हें एक कोशिका वाले पौधे कहा जा सकता है और वह इतने सूक्ष्म होते है कि माइक्रोस्कोप की सहायता के बिना देख नहीं सकते। यही जीवाणु ही मनुष्य और पशुओं की आहार नली में रहते हैं और सैल्यूलौज वाले भाग को पचाने का काम करते है। जीवाणु कोशिका की लम्बाई 0.5 माइक्रोन तक होती है। यह तीन प्रकार के होते है, गोलाणु (कोकस) दण्डाणु,(वैसिलख) और सर्पिआणु (स्पिरिलस)।

कोशिका जिस तरह प्रोटीन के आवरण में बन्द होती है और उसके भीतर केन्द्रक (म्युक्लियस) काम किया करता है, उसी प्रकार जीवाणु कोशिका एक लिसलिसी इलैष्मपरत (कैप्सूल) में बन्द (रेजिस्ट) होती है। कोशिका भित्ति की सुरक्षा के लिये प्लाज़्मा झिल्ली (प्लाज्मा मैम्बरैन) होती है। किन्तु किन्हीं जीवाणु कोशिकाओं में केन्द्रक नहीं भी होते है तो भी उनमें केन्द्रीय पदार्थ (क्रीमिटिन) अवश्य होता है। यह जीवाणु भी अनैतिक रीति से स्वयं ही बढ़ने की जैसी ही क्षमता रखते हैं, जैसे कि प्रोटोप्लाज्मा केन्द्रक।

एक कोशिका से विभाजन प्रारम्भ होता है तो 15 घण्टे बाद उसी तरह की एक अरब संतति कोशिकाएँ (डाटर सेल्स) जन्म ले लेती है। 36 घण्टे बाद इनकी तादाद इतनी हो जाती है कि उससे सौ ट्रक भरे जा सकते है यह गति यदि निर्बाध चलती रहे तो 48 घण्टे बाद एक कोशिका से बने अन्य कोशिकाओं का भर पृथ्वी के र से चौगुना अधिक हो जायेगा, किन्तु उनकी ही देह से निकले विषैले पदार्थ इस वृद्धि को रोक देते हैं और यह गति रुक जाती है। वस्तुतः यह बाढ़ मानव जाति के हित में ही है।

यह जीवाणु सर्वत्र विद्यमान् रहकर मनुष्य जाति की बड़ी सेवा करते है, एक प्रतिशत जीवाणु ही मनुष्य के लिये हानिकारक है। अन्यथा पौधों और जन्तुओं के हानिकारक तत्त्वों और मृत अवशेषों का विघटन यह जीवाणु ही करते है। प्रतिवर्ष पौधा 200 अरब टन कार्बन, कार्बन डाई आक्साइड गैस लेकर प्रकाश-किरणों द्वारा उसे जैव पदार्थ में बदल देता है। यह कार्बन जीवों द्वारा पैदा की जाती है, यदि जीवाणु यह क्रिया सम्पन्न न करें तो सारा वायु-मण्डल कार्बन डाई आक्साइड से आच्छादित हो जाये और मनुष्य का धरती पर रहना कठिन हो जाये।

जीवाणु की क्रिया और प्रोटोप्लाज्मा की कोशिका (सेल) की क्रिया का तुलनात्मक अध्ययन करें तो दोनों में एक जैसी चेतना ही दिखाई देती है, जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, आकृति और कार्य प्रणाली में थोड़ा अन्तर है, जो मनुष्य के हित में पूरक ही हैं। यदि यह पूरक क्रिया सम्पन्न न हो तो मनुष्य का जीवन खतरे में पड़ जाये। विश्व-चेतना का यह अंश मनुष्य के उपयोग में आता है पर उसका यह अर्थ नहीं लगा लेना चाहिए कि उनमें आत्मा नहीं है। यदि मनुष्य की प्रजनन प्रणाली, खाद्य प्रणाली, मल विसर्जन आदि की क्रियायें और उसकी परमाणविक रचना में वृक्ष वनस्पतियों की क्रिया प्रणाली से साम्य पाया जाता है तो उसे विश्व-व्यापी चेतना का स्वरूप ही मानना चाहिये। यदि विज्ञान की इन उपलब्धियों से भी मनुष्य यह मानने को तैयार नहीं होता तो उसे हठधर्मी ही कहा जायेगा।

यह भी ध्यान रखना है कि यदि मनुष्य मानवोचित कर्तव्यों का पालन नहीं करते तो वृक्ष आदि योनियों में अपने को भी जाना और उन सुख सुविधाओं से वंचित होना पड़ सकता है जो मनुष्य योनि में उपलब्ध हैं।

वृक्ष दिखते और समझे भर जड़ जाते हैं, वस्तुतः वे चेतन हैं। एक ही चेतन आत्मा सर्वत्र सबमें विद्यमान् है। यह अनुभव करते हुए हमें विराट ब्रह्म की असीम चेतना अपने चारों ओर फैली हुई देखनी चाहिये और सबके साथ सहृदयतापूर्ण व्यवहार करना चाहिये। वृक्षों को भी अकारण क्षति न पहुँचेंगे, यही उचित है।


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