गायत्री-साधना - गायत्री उपासना से लौकिक और आत्मिक सफलतायें

April 1969

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पुरुषार्थ द्वारा उपार्जन होता है और उपार्जन से अभावों एवं आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। पुरुषार्थों की भौतिक विधि व्यवस्था, शक्ति एवं मर्यादा से हर कोई परिचित है। किन्तु आध्यात्मिक पुरुषार्थों की जानकार सर्वसाधारण को नहीं होतीं, उसी से वे उससे विरत रहते हैं। आत्मिक पुरुषार्थों में सबसे बड़ा गायत्री महाशक्ति के साथ अपना सम्बन्ध, संपर्क बना लेना है। उपासना एवं साधना के द्वारा यह प्रयोजन सिद्ध किया जाता है। शारीरिक ओर मानसिक तपस्या मनुष्य को इस योग्य बनाती है कि वह आत्मिक विभूतियों के क्षेत्र में प्रवेश करके वह सामर्थ्य प्राप्त कर सके, जिसके आधार पर कि आत्म-बल एवं अनुग्रह उपलब्ध हो सके।

प्राचीनकाल में ऐसे अनेक विषय, अवसर आते रहे, जिनमें माननीय पुरुषार्थ थकित एवं असफल हो गया। तब देव अनुग्रह के आधार पर उन संकटों के टालने की आवश्यकता अनुभव की गई। ऐसे पुरुषार्थ कभी असफल नहीं होते।

एक बार पन्द्रह वर्ष की लम्बी अवधि का घोर दुर्भिक्ष पड़ा। अन्न, वनस्पति और जल के बिना अगणित प्राणी मर गये, जो जीवित रहे उनकी प्राण-रक्षा देर तक हो सकती कठिन थी। ऐसी दशा में इस संकट को टालने के लिये महर्षि गौतम ने प्रचण्ड साधन तपस्या द्वारा गायत्री महाशक्ति से संपर्क बनाकर उस व्यापक संकट का निवारण किया। वर्षा हुई और शेष प्राणियों की जीवन रक्षा सम्भव हो सकी। इस प्रसंग का देवी भागवत् में इस प्रकार वर्णन है।

कदाचिदथ काले तु दशपज्ज समा विभा। प्राणिमाँ कर्मवद्यती न वघर्ष शत ऋतुः॥

अनानृष्टचाडति दुर्भिल ममवत्सय कारकम्। गृहे-गृहे शवानाँतु सडरुपा कत्तु न शइबते॥

केचिदश्वान्दराहान्वो मलयन्ति क्षुभार्दिताः। शवानि च मनुष्याणाँ भक्ष्यन्त्येपरेजनाः॥

बालक बाल जननी स्त्रियं पुरुष एवं चं। भलितुँ चलिताः सर्वे क्षुधपा पीड़िता नष्टः॥

बाह्मणा बहूच स्तत्र विचार चक्रु सुत्तमम्। तपोवनो मौतमोडस्ति स नः खेदं हरिर्ज्यात॥

ते सर्वे स्व-स्व वृतान्तं कथयानासु सुत्समयाः। दृष्ट्वा तान्दुःखिताम् विप्रानभयं दत्तवान् धुनिः॥

अति सर्मान्समाश्वास्य गौतमो मुनिराट ततः। गायत्रीं प्रार्थमामास भक्ति सन्नत कन्वेदः॥

नमो देवि!माहिवद्ये! वेदमातः! परास्परे। सर्वभू सारणे देवि! क्षमस्य परमैश्वरि!

इतिस्तुता जगत्माँता प्रत्यज्ञं दर्शनं हही। पूर्ण पात्र हही तस्मैं येन स्यार्त्सवपोशणभँ।

उदाच मुनिमज्जा सा यह कामं त्वमिच्छति। तस्य पूत्तिकर पात्रं मया इत्तं भविष्यति॥

इत्युक्त्वाडर्न्तदथे देवी गायत्री परमाकला।

अर्थ-महर्षि व्यास जी ने कहा-हे राजन्! एक बार ऐसा हुआ था कि पन्द्रह वर्ष तक प्राणियों के कर्म विपाक के कारण इन्द्रदेव ने संसार में वर्षा बिलकुल ही नहीं की थी। उस अनावृष्टि से जगत् में बड़ा भीषण अकाल हो गया था, जिससे सभी का नाश हो गया। घर-घर में मृतकों की इतनी अधिक संख्या हो गई थी कि उसे गिना नहीं जा सकता था। मनुष्य भूख से पीड़ित होकर अश्व और वराहों को खाने लगे थे। कुछ मनुष्य तो मृतक मनुष्यों के शवों को ही खा जाया करते थे। माता अपने ही पुत्र को और पुरुष अपनी स्त्री की भूख से पीड़ित होकर खाने लगे थे। ऐसा महान् भीषण समय उपस्थित हुआ देखकर बहुत से ब्राह्मणों ने विचार किया किया कि हम सबमें परम तपस्वी गौतम महर्षि हैं। उन्हीं के समीप में चलना चाहिये। वही एक ऐसे सामर्थ्य सम्पन्न महापुरुष है कि हमारे इस खेद का हरण कर देंगे उन समस्त ब्राह्मणों ने गौतम के समीप में उपस्थित होकर अपना वह दुःखप्रद वृतान्त कह दिया था। उन समस्त विप्रों को परम पीड़ित देखकर गौतम मुनि ने अभय का दान दिया था। इस प्रकार से सबको आश्वासन देकर मुनिराज महर्षि गौतम भक्तिभाव से अपनी गर्दन झुकाकर गायत्री देवी की प्रार्थना की थी। गौतम ने प्रार्थना की-हे महान् विद्या सम्पन्न, देवि! आप वेदों की जननी और परसेवी ड़ड़ड़ड़ है। अब समस्त प्राणियों के उद्धार करने के लिये क्षमा कीजिये। आप सबकी स्वामिनी हैं।” इस परोपकार से गौतम मुनि के द्वारा स्तुति की जाने पर जगत् की माता गायत्री देवी ने प्रत्यक्ष होकर दर्शन प्रदान किया था और देवी ने एक पूर्ण पात्र भी प्रदान किया था, जिससे सबका पोषण हो जाये। जगन्माता गायत्री देवी ने मुनि से कहा-यह मैं एक ऐसा पात्र प्रदान कर रही हूँ कि इसके सामने तुम जो भी कुछ चाहोगे उस सबकी पूर्ति यह कर देगा।” इतना कहकर गायत्री देवी अन्तर्ध्यान हो गई।”

अन्मानां राशय स्तस्माश्रिर्गताः पर्वतोपमाः। षडसा विविधा राजन् तृष्णानि विविधानि च॥

भूषरणानि च दिव्यानि क्षौमानि वसनानि च। यज्ञामाँ च समारम्भाः पात्रारणी विविधानि च॥

यद्यदिष्टमभू द्राजन् मुनेस्तल्य महात्मनः। तर्त्सव निर्गतं तस्माद गायत्री-पर्णपात्र तः॥

नित्मोत्सवः प्रववृते मुनेरोश्रम मराडले। न रोगादि भय फिज्चिन्न च दैत्य भयं कचित्॥

स मुनेराश्रमो जातः समबन्ताच्छत योजना। अन्ये च प्राणिनों येडषि सेडषि तत्र सन्तगताः॥

संतोषं परमं प्रायु मुर्गिश्चैष अपुर्यशः। सभामाँ वृत्रहो भूपो जगौ लौकं महामशाः॥

अहो अय नः किल कल्पपावयोमनोरथान्पूरपति प्रतिष्ठितः। नो चेदकाणु क्वहविर्णया यां सुदुर्लभा यज्ञ तु जीव नाझा॥

कल्पपाश्योमनोचान्चरपति प्रतिष्ठितः। नो चेदकाणु क्चहरिर्षया माँ सुदुर्लभा यत्र तु जीव नाशा॥

अर्थ- हे राजन्। महान् आत्मा वाले मुनि को जो भी कुछ इष्ट होता था, वह सभी कुछ गायत्री देवी के उस पूर्ण पात्र से निकल आता था। उस मुनि के आश्रम में नित्य ही उत्सव हुआ करता था और वहाँ रोग आदि का और दैत्यों से होने वाला किसी भी प्रकार का भय नहीं था। वह मुनि का आश्रम चारों ओर से सौ योजन के विस्तार वाला हो गया था। वहाँ पर अन्य प्राणी भी आ गये थे। सभी को परम संतोष प्राप्त हुआ था और सभी लोग मुनि के यश का गान किया करते थे। सभा में इन्द्र ने भी पुनः लोक में यशगान किया था कि यह एक प्रकार का कल्प-वृक्ष जैसा ही हमारे लिये प्रतिष्ठित हो गया है, जो सभी मनोरथों को पूर्ण कर देता है। अन्यथा यज्ञादि के सत्कर्म करने के लिये हवि कहाँ से प्राप्त हो सकता था, क्योंकि यहाँ तो जीवन रहने की आशा ही समाप्त प्रायः हो चुकी थी। वहाँ पर मुनियों में सर्वश्रेष्ठ ने एक गायत्री देवी के स्थान का निर्माण कराया था, जहाँ पर सभी मुनि-गण जगदम्बिका की पूजा करते थे।

अपने पति सत्यवान के प्राण अब अपने तप-बल द्वारा सावित्री ने यमराज से वापिस ले लिये और अपनी आत्मिक महत्ता द्वारा उन्हें प्रसन्न भी कर लिया, तब सावित्री सुअवसर का लाभ उठाकर धर्मराज से कुछ आध्यात्मिक प्रश्न पूछने लगी। उसने पूछा “भगवन्! कौन व्यक्ति आपके पुर-अर्थात् नरक को नहीं जाते?नरक की यातना से कैसे बचा जा सकता है?” इसका उत्तर देते हुए यमराज ने भगवती महाशक्ति की महिमा बताई और कहा-जो निष्ठा पूर्वक उसकी उपासना करते हैं और तपस्या द्वारा अपने जीवन को आत्म-शक्ति सम्पन्न बनाते हैं, उन्हें नरक की पीड़ा सहन करने की आवश्यकता नहीं पड़ती।

कुन्डनि यमदूर्तश्च रक्षितानि सदा शुभे। नहि पश्मन्ति स्वप्ने च पज्च देवार्थका मराः॥

देवी शक्ति विहीना में से पश्यन्ति ममालयम्। यान्ति ये हरितीर्यम्वाश्रयन्ति हरि बासरम्॥

प्रणमन्ति हरि नित्यं हर्यर्चा कलयन्ति च। न यान्ति तेअपि घोराँ च मम संयमिनी पुरीम्॥

त्रिसन्षिपूता विप्राश्च शुद्धाचार समन्विता;। निवृति नैम लप्स्यन्ति देवी सेवा बिना नरा;।

अर्थ- सती सावित्री ने जब धर्मराज से कर्म- बन्ध-निकृन्तन के सम्बन्ध में प्रश्ण किये तो धर्मराज ने सावित्री को उतर देते हुए कहा- ‘हे शुभे! मेरे दूतों के द्वारा कुण्ड सुरक्षित रहा करते है किन्तु जो पंच देवों में किसी में भी उन कुण्डों को अर्थात् नरक को कभी भी नहीं देखते है। जो पुरुष देवी की भक्ति से हीन होते है वे ही मेरे पुर को देखते है। जो मनु हरि के तीर्थों का अटन करते है या हरि का आश्रय लेते है एवं हरि को नित्य प्रणाम करते है तथा हरि का अर्चन किया करते है, वे मनुष्य भी मेरी महा घोर संयमनीपुरी में नहीं जाया करते है। त्रिकाल में संध्या-वन्दना करने से पवित्र एवं शुद्ध से युक्त रहने वाले भी प्रिय देवी की सेवा के बिना निवृत्ति की प्राप्ति नहीं किया करते है।

देवी मन्त्रो पासकाना नाम्नाअचैव निकृन्तनस्। करोति नख लेभन्या चित्रगुप्तश्च भीतवत्॥

मवुयर्कादिक तेषां कुरुसुतै च पुनः पुनः। विलंघड्य ब्रह्म लोक च लोक गच्छन्ति ते सति॥

दुरितानि च नश्यन्ति येषाँ संर्स्पश मात्रतः। ते महाभाग्य वन्तो हि सहस्त कुल पावनाः॥

अर्थ- धर्मराज ने कहा -हे सति! जो पुरुष देवी के मन्त्र की उपासना करने वाले है, उनके तो नाम से उन के कर्म-बन्ध को काट दिया करता है। अब वे ब्रह्मलोक का लंघन कर लोक को जाते है तो चित्रगुप्त उनके लिये बारम्बार मधुपर्क आदि का उपचार किया करता है। उनके स्पर्शमात्र से ही पापों का नाश हो जाता है। ऐसे पुरुष महान् भाग्यशाली है और सहस्र कुल का उद्धार करने वाले होते है।

देवी -भक्ति देहि मह” स;राण चैय सारकम्। पुसा मुक्ंित द्वार दीर्ज नरकर्णव तारकम्॥

कारण मुक्ति साराण सर्वशुभ बिनाशनम्। दारकं कर्म्म वृक्षाणा कृत पाघै गुहारणम॥

तत्त्व ज्ञान विहीना च स्त्री जातिर्विधि-निर्मिता किच्चिज्ज्ञान सारभुत वद वेदविदावर!

सर्व दान च यज्ञश्च तीर्थस्नान व्रत तप;। अज्ञानि ज्ञान दानस्त्र कलाँ नार्वन्ति वोश्चितम्

पितुः शतगुणा माता गौरवे चेति निश्चितम्। मातु; शत गुण; पूज्यो ज्ञान वाता गुरु;प्रभो!

अर्थ- सती सावित्री ने धर्मराज से कहा - मुझे आप कृपा करके देवी की भक्ति प्रदान कीजिये, जो समस्त सार वस्तुओं का भी सार स्वरूप है। देवी की भक्ति मनुष्यों के लिये मुक्ति प्राप्त करने का द्वारा एवं बीज और इसके द्वारा नरकों के घोर सागर से मनुष्य पार हो जाया करता है। यह मुक्ति प्रद सारों का भी कारण है और इस देवी की भक्ति से सभी प्रकार के अशुभ का नाश हो जाता है। यह कर्मों के वृक्षों का निवारण करने वाला है तथा किये हुये पापों के समूह का नाशक है। सावित्री ने धर्मराज से कहा - विधाता ने हमारी सती जाति को तत्त्व- ज्ञान से विहीन बनाया है। अतः; हे वेदों के वेताओं में परम श्रेष्ठ देव! जो कुछ सारभूत ज्ञान हो उसे ही बतलाए! सत्र प्रकार के दान, यज्ञ तीर्थस्थान, व्रत और तप ये सब अज्ञानी को ज्ञान का दान करने की सोलहवीं कला को भी प्राप्त नहीं हो सकते है। पिता से माता का सौ गुना के प्रदान करने वाले गुरु का गौरव होता है।

श्रोत मिच्छति कल्याणकारी! श्री तृणा कुल तारणम्। नतणा पृच्छ कानाच्च श्र तृणा कुल तारणम्॥

न यद्वक्तुं क्षमाः सिद्धा मुनीन्द्रा योगिन स्तया। के चान्ये च खयं केवा श्रीदेव्या गुणा वर्णने॥

के चान्ये च वयं केवा श्रीदेव्या गुण वर्णने। ध्यामन्ते यत्दाम्भो ब्रह्म, विष्णु शिवादयः।

अर्थ- धर्मराज ने सती सावित्री से कहा-है कल्याणकारिणी! श्री देवी के गुणों को तारने वाला है। देवी के गुणों का कीर्तन सिद्ध- मुनीन्द्र और योगी भी कहने में समर्थ नहीं है। दूसरे और हम तो क्या है। ब्रह्म, विष्णु और शिवा भी उसके चरण कमल का ध्यान करते है।

एक बार नागाधिराज हिमिवान ने भगवती से उनके स्वरूप वैभव एवं उपास्य साधन के बारे में प्रश्न किया तो भगवती ने उन्हें स्वयं बताया कि उनकी शक्ति सामर्थ्य का क्षेत्र कितना व्यापक है और भक्ति - भावपूर्ण अन्त;करण की आवश्यकता विशेष रूप से बताई है। जप, ध्यान, स्तवन और पूजा विधान के कर्मकाण्ड तो आसनी से किये जाते है पर इतने से ही नहीं चलता। साधक का अन्त;’करण जितना निर्मल और चरित्र जितना उज्ज्वल होगा, उसी अनुपात से उसे दिव्य अनुग्रह भी उपलब्ध होगा।

स्वीय भक्ति बदस्याम्दा येन शाम सुखेन हि। आयेत अनुजस्यास्य मघ्यमस्याविरागिण;॥

भार्गासजयो में विख्याता मोक्ष पाँप्तो ननाधिय। कर्म्म योगो ज्ञान योगो भाक्ति योगश्च सतय॥

गुणभेदान्नतुष्याण सा भक्ति स्त्रिविधामता। पर पौडा समुद्दिश्य दम्भं कृश्वा पुर; सरम्॥

मार्त्सय क्रोंध युक्तो यस्तस्य भाक्ति स्तुतमसी। पर पीडादि रहित; स्वकत्याणार्थ मेव च॥

नित्य सकामो हृदय यशोअर्थी भोग लोलुप। ततत्फलसमावाप्ल्यै मामुपास्तेअपि भक्तित;॥

भेद बुद्धचर तु माँ एवस्मादन्याजामाति यामर;। तस्य भक्ति; समाख्याता नगाधिप तु राजसी॥

परमेशार्यण कर्म्म पाप संक्षाल नाय च। वेदोक्तत्वाध्वश्य तर्त्कतव्य तु मया निशम्॥

इति निश्चित बुद्धिस्ंतु भेद बुद्धि मुपाश्रित;। करोति प्रतिये कर्म भक्ति सा नग सात्विक॥

अर्थ- नागराज ने एक बार जगत्जननी देवी से पूछा-हे समस्त संसार की माता! आप कृपा कर मुझे अपनी भक्ति के विषय में बताइये जिसके करने से विराग रहित मध्यम श्रेणी के मनुष्य को सुखपूर्वक ज्ञान की उत्पत्ति हो जावे। नागाधिराज हिमवान् के इस जिज्ञासापूर्ण प्रश्न को सुनकर भगवती ने कहा- मेरी उपासना करने के तीन मार्ग सुविख्यात है। हे नगाधिप! इन तीनों मार्गों से मेरी आराधनोपासना करने पर मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। हे सत्तम! वे तीन मार्ग कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग इन तीन नामों से प्रसिद्ध है। गुणों के भेद होने से वह मनुष्य के द्वारा की हुई भक्ति भी तीन प्रकार की होती है। दूसरे को पीड़ा पहुँचाने के उद्देश्य से दम्भपूर्वक मात्सर्य और क्रोध से युक्त होकर जो कोई मनुष्य मेरी भक्ति किया करता है, वह उसकी भक्ति तामसी कही जाती है, क्योंकि उसमें तमोगुण की प्रधानता रहती है। दूसरों को पीड़ा देने की भावना से रहित होकर केवल अपने ही कल्याण करने की कामना वाला, यश प्राप्त करने का इच्छुक एवं भोगो के लालसी मनुष्य अपने समुद्दिष्ट फलों की प्राप्ति के लिये जो भक्तिपूर्वक मेरी उपासना किया करता है और भेद की बुद्धि से मुझे वह पामर अपने से अन्य ही समझता है। हे नागाधिराज! उसकी भक्ति और आराधना में रजोगुण की प्रधानता विद्यमान् रहा करती है। क्योंकि सर्वदा अपने सुखोपभोग प्राप्त करने की ही भावना इस उपासना का एक मात्र लक्ष्य होता है। जो कर्म परात्पर के निर्मित किया जाता है, अर्थात् उसका कोई भी फल अपने लिये न चाहकर जो कुछ भी हो वह सब अपने आराध्य के ही चरणों में समर्पित कर दिया जाये और केवल पापों के प्रक्षालन होने से अपनी आत्मशुद्धि की भावना रहे और उपासना करने वाले के हृदय में ऐसी निष्ठा बनी रहे कि यह वेदोक्त विधान का करना मेरा परम कर्तव्य है, अतएव मुझे यह अनवरत करना ही चाहिए - ऐसी बुद्धि के द्वारा भेद बुद्धि का उपाश्रय करके देव भक्ति को सात्विक कहा जाता है, क्योंकि इसमें सतोगुण की प्रधानता रहती है और केवल अपने समाराध्य की प्रीति के लिए ही यह कर्तव्य कर्म समझ कर की जाती है और इसके द्वारा अपनी आत्म-शुद्धि इष्ट देव की कृपा से हो जाने की भावना सुदृढ़ रहती है।

राजा जनमेजय के प्रश्न और भगवान् व्यास के उतर के रूप में प्रस्तुत एक संवाद यह प्रतिपादन करता है कि कलियुग के प्रभाव और उसके दुष्परिणामों से बचे रहने के लिये भगवती महाशक्ति का आश्रम लेना सर्वोत्तम है। उनकी शरण में जाने वाले की अन्त;प्रेरणा उसे दुष्कर्मों से और दुष्ट भावनाओं से बचाती है, फलतः; वह उन बाह्य एवं आन्तरिक यातनाओं से भी बच जाता है, जो कलियुग के कुपथगामी मनुष्यों को निरन्तर मिलती रहती है।

भगवन! सर्वधर्मश!सर्वशास्त्र विशारदा। कलाव धर्मबहुले नराण का गतिर्भथेत्?॥

सद्यस्ति तदुपामश्चेद्दयया तं तदस्व में एक-एक महाराज तत्रोपाद्दयया नायर;॥

सर्व दोष निरासार्थ ध्ययेद्देश्यी पदाम्बुजम्। म सन्स्यधामि तावन्ति माक्ती शक्तिरस्ति हि॥

अर्थ- महर्षि वेद व्यास जी से राजा जनमेजय युग-धर्म के कराल समय में सद्गति का उपाय पूछते हुए कहते है- हे सम्पूर्ण धर्म के तत्त्व के ज्ञाता और समस्त शाखों के महामनीषी। इस अधर्म से परिपूर्ण इस घोर कलियुग में मनुष्यों की मति कैसे होगी, यदि इसका कोई उपाय हो तो आप कृपा करके बतलाए। व्यास महर्षि ने कहा-इसका केवल एक ही उपाय है दूसरा कोई नहीं है, जितनी देवी की शक्ति होती है।

स्मृता सम्पूजिता भक्त ध्याता चोच्च्रिता स्तुता। ददाति वाच्चिछतानर्चान्कानद तेन कीर्त्यते॥

समाराचिता च तथा नूमिरेभि; सदाअम्विका। यतोअतमी सुखिन; सर्वं संसारेअस्मि र्सशय;॥3

इति राजच्चछ्तं तत्रमया मुनिसमायऐ। लोमशस्य मुखात्कानं देवी माहाँत्म्य मुतमम्॥

इति सच्चिन्त्ये राजेन्द्र कर्तव्यं च सवार्थनम्। भक्तया परमया देव्या; प्रीत्या च पुरुवर्षम॥

अर्थ- सत्यव्रत के आख्यान में देवी की महिमा का वर्णन करते हुये कहा गया है - भगवती के स्मरण से वह स्वपूजित,भक्तिभाव से ध्यान की हुई, मुख से उच्चारण किये जाने पर स्तुत होती हुई मानवो के सभी इच्छित मनोरथों का प्रदान कर देती है। मनुष्यों के द्वारा सदा समाराधित वह देवी होती है, इसीलिये इस संसार में सब सुखी है, इसमें संशय नहीं है। व्यास ने कहा -हे राजन्!मैंने लोमश के मुख से देवी का महात्म्य सुना है अतः; प्रेम -भक्ति से देगी का सदा अर्चन करना चाहिए।

पिछला जीवन कुमार्गगामी भी रहा हो तो इस महाशक्ति का आश्रय लेने वाला एक दिव्य प्रकाश से अपने अन्त;करण को भरा-पूरा अनुभव करने लगता है और पिछली दुष्टता को त्याग कर धर्मपन्थ का अनुगामी बनकर अपना लोक-परलोक सुधारता है।

महर्षि वाल्मीकि का प्रसंग ऐसा ही है वे जीवन के प्रथम चरण में डाकू थे पर वे आत्मा -कल्याण की उपासना में प्रवृत्त हुए तो सारे दोष - दुर्गुणों से छुटकारा पाकर ऋषि जीवन बिताने लगे और जीवन की पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त कर सकने में समर्थ हुये।

बीजोच्चारण तो देव्या विद्या प्रस्फुरिताऽखिला। वाल्मीकेश्च यथा पूर्व तथा स द्युभवत्कविः॥

अर्थः-सावित्री भगवती के केवल बीज मात्र के उच्चारण करने से बाल्मीकि की समस्त विद्याएँ प्रस्फुटित हो गई थीं और सर्वप्रथम महान् कवि हो गये थे।

भगवती महाशक्ति गायत्री यह नहीं देखती कि साधक का पिछला जीवन कैसा रहा है, इस आधार पर वे किसी से घृणा भी नहीं करती। शरण में आने वाले को वे दिव्य प्रकाश देती हैं और उसे सन्मार्गगामी प्रेरणा देकर सच्ची सुख-शांति का अधिकारी बना देती है-

न वैषम्यं न नैघृणयं भगवत्याँ कवाचन। केवलं जीव मोक्षार्थ यतते भुवनेश्वरी॥

अर्थ- भगवती गायत्री में कोई भी विषमता का भाव नहीं रहता है अर्थात् वह सबको समान भाव से ही देखती हैं और उसमें किसी से भी घृणा नहीं होती है। वह इस सम्पूर्ण भुवन की स्वामिनी केवल जीवों के कल्याण के लिए ही सदा यत्न करती हैं।

भौतिक जीवन की सुख समृद्धि और आध्यात्मिक जीवन की शांति सद्गति का उन्हें अधिकार मिलता है, जो सच्चे मन से, वचन और कर्म से माता की शरण में जाते हैं और उनके निर्देश अनुरूप जीवन क्रम का निर्धारण करते हैं।

यदज्ञानाद्भवोत्पति यज्ज्ञानाद्भव नाशनम्। सं विदू्रपाँ च ताँ देवीं स्मरामः साप्रचोदयात्॥

अर्थ- जिस गायत्री देवी के ज्ञान न होने से इस संसार में उत्पत्ति हुआ करती है अर्थात् यह मानव संसार के जन्म-मरण रूपी बन्धन का दुःख निरन्तर भोगता रहा करता है और जब भगवती गायत्री देवी का ज्ञान हो जाता है तो फिर इस संसार के आवागमन रूपी दुःख का नाश हो जाता है। हम उस संवित्वरूपिणी देवी का सदा-सर्वदा स्मरण करते हैं। वह भगवती हमको सत्प्रेरणा प्रदान करे।


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