ज्ञान की उपासना कीजिए

October 1964

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भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता है- इसकी बुद्धि-निष्ठा ज्ञान के प्रति आग्रह। अन्ध-श्रद्धा, अन्ध-मान्यता के लिए हमारे यहाँ कोई स्थान नहीं है। भारतीय संस्कृति के आदि आविष्कर्त्ताओं ने प्रारम्भ से ही किसी एक प्रमाण तथ्य को महत्व न देकर बुद्धि को ही धर्म-संस्कृति का निर्णायक बनाया। विवेक एवं ज्ञान-भारतीय संस्कृति की आत्मा है। इसका इतना बड़ा महल बुद्धि के ऊपर ही खड़ा है। बौद्धिक आधारशिला पर ज्ञान का सर्वांगीण विकास और उसकी शोध हमारी अपनी एक विशेषता रही है। इस विशेषता को दूर कर दो, भारतीय संस्कृति का कोई अस्तित्व ही नहीं रहेगा।

हमारे यहाँ जिसने भी कोई नई शोध की उसे पूज्य माना गया। ऋषि का पद प्रदान कर उसे समाज में सर्वोपरि महत्व दिया, फिर चाहे उसका दर्शन पूर्व खोजों से भिन्न ही क्यों न रहा हो। जहाँ अन्य देशों में नई खोज करने वालों को जिन्दा जला दिया गया, अनेकों कष्ट दिए गए, मर्मान्तक पीड़ाओं से प्राण लिए गये, वहाँ हमारे यहाँ प्रत्येक नवीन तथ्य के प्रतिपादक की, जीवन जगत के सूक्ष्म या स्थूल क्षेत्रों में नई खोज करने वालों की पूजा की गई। यह हमारी बुद्धि-निष्ठा और ज्ञान के प्रति रचनात्मक प्रेम का परिचायक है। और यही कारण है कि हमारे धर्म-ग्रन्थ, ऋषि-सन्त, समाज से मार्ग-दर्शक एक नहीं अनेकों हैं और विशेषता यह है कि प्रत्येक का दर्शन का दृष्टिकोण एक दूसरे से भिन्न है, फिर भी वे सब से सब भारतीय धर्म-संस्कृति के अंग हैं। ज्ञान की इतनी विस्तृत शोध, बुद्धि की निरन्तर साधना और कहीं देखने को नहीं मिलती। संसार में सब से अधिक अवतार (युग पुरुष) दार्शनिक,ऋषि-मुनि, सन्त-महात्माओं की उपज हमारी इस स्वतन्त्र बुद्धि-निष्ठा और ज्ञान से प्रति स्वतन्त्र चिन्तन का ही परिणाम है।

गायत्री को गुरु मंत्र माना गया है। उसे वेद-माता कहा गया है और गायत्री उपासना प्रत्येक हिन्दू के लिए आवश्यक धर्म कर्तव्य बताया है। क्यों? किस लिए? यह गायत्री की मूल भावना से अपने आप स्पष्ट हो जाता है, जिसमें उस शक्ति शाली, तेजस्वी, सर्वव्यापी, दिव्य तत्व का ध्यान करके, उससे बुद्धि की निर्मलता, शुद्धि, पवित्रता की प्रार्थना की गई है। स्पष्ट है कि गायत्री ज्ञान का, बुद्धि का, शोध, अभिवृद्धि का साधना मात्र है। नित्य-प्रति प्रत्येक द्विजाति दिन में कम से कम तीन समय परमात्म-तत्व का ध्यान करते हुए उससे ‘सद्बुद्धि’ की-विवेक की प्रार्थना करता है।

वेद का अर्थ है-ज्ञान और ज्ञान बुद्धि की साधना का परिणाम है। इसीलिए गायत्री को वेद माता कहा गया है। भारतीय संस्कृति तथा सभ्यता के मूल स्रोत-आधार वेद अर्थात् ज्ञान हैं और ज्ञान बुद्धि की देन है। अस्तु हमारी समस्त जीवन पद्धति का सञ्चालन बुद्धि के द्वारा होता आया है। कौटिल्य ने कहा है “जिस मनुष्य की बुद्धि का विकास नहीं होता अथवा जो बुद्धि द्रोही या अविवेकी होता है वह मनुष्यता से गिर जाता है।” शास्त्रकार ने बुद्धि को ही सर्वोपरि बल बतलाया है। “बुद्धिर्यस्य बलं तस्य। निर्बुद्धिह्य कुतो बलम्।” जिसमें बुद्धि है उसी में बल है बुद्धिहीन के पास बल कहाँ?

पितामह भीष्म से पूछा गया- “कोऽयं धर्मः कुतो धर्मः।” यह धर्म कौन है कहाँ से आता है। पितामह ने कहा-”मिसद्धत्तम” विचारशील व्यक्ति चिन्तन मनन अध्ययन करके धर्म का निर्माण करते हैं। तात्पर्य है कि हमारा धर्म, हमारी संस्कृति विचार प्रधान है बुद्धि प्रधान है- वेद-प्रधान है। अर्थात् ज्ञान के द्वारा प्रेरित है। वह किसी प्रकार के आग्रह को लेकर नहीं चलती।

हमारे शास्त्रकारों ने, धर्म संस्थापकों ने, ज्ञान देने वालों ने भी अपनी बात को ही सत्य बता कर उसे बिना कुछ कहे सुने मान लेने की बात कहीं नहीं कही है। उन्होंने अपनी ही बात पर जोर नहीं दिया है- “बुद्धे फलमनाग्रह” दुराग्रह न करना ही बुद्धिमत्ता का चिन्ह है। वे कहते हैं “मनः पूतं समाचरेत्” तुम्हारे मन को जो अच्छा लगे वही करो। अपनी बुद्धि के कपाट बन्द मत करो। अपने ज्ञान के प्रकाश को धूमिल न होने दो। गीता का लम्बा-चौड़ा उपदेश देने पर भी श्रीकृष्ण ने अर्जुन की स्वतन्त्र बुद्धि का अपहरण नहीं किया। उन्होंने कहा अर्जुन “यथेच्छसि तथा कुरुः” जो तुझे अच्छा लगे वह कर।

बुद्धि की साधना के लिए अन्ध श्रद्धा को कोई स्थान नहीं है। न वह किसी एक लकीर पर फकीर होने या “बाबा वाक्य प्रमाणम्” के रूढ़िवाद में अवरुद्ध होती है। यही कारण है कि हमारा धर्म हमारी संस्कृति किसी एक व्यक्ति को या एक पुस्तक को लेकर नहीं चलती, न किसी घिसी-पिटी मान्यता को ही दुहराने की आज्ञा देती है। अनेकों वेद शास्त्र, पुराण, स्मृति, आगम, नियम, अनेकों धर्म ग्रन्थ ज्ञान की नाना दिशाओं का बोध कराते हैं, बिना किसी आग्रह अनुग्रह के। ऋग्वेद तत्व ज्ञान, आत्मा-परमात्मा आदि का ज्ञान कराता है। यजुर्वेद में नाना कर्मकाण्ड, विधि विधानों का विवरण है। अथर्ववेद भौतिक सृष्टि के रहस्यों से भरा पड़ा है। सामवेद में आत्मा को ऊँचा उठाने वाला संगीत निहित है। शरीर को स्वस्थ निर्मल शक्ति शाली बनाने का मार्ग आयुर्वेद बताता है तो आत्म-रक्षा, समाज रक्षा की शिक्षा धनुर्वेद में निहित है। मनोरञ्जन, हँसी खुशी का जीवन बिताने, दुखों को भुला देने का शास्त्र गंधर्व वेद में भरा पड़ा है। इस तरह जीवन के विभिन्न अंगों पर प्रकाश डालने वाले वेद और उपवेद भरे पड़े हैं हमारे ज्ञान भण्डार में। अनेकों शास्त्र, स्मृतियाँ, पुराण, दर्शन-ग्रन्थ हैं जिनकी संख्या और परिचय देना इस छोटे-से लेख में सम्भव नहीं। संक्षेप में भारतीय संस्कृति को ज्ञान-साधना की उपज, बुद्धि निष्ठा का फल कहा जाय तो कोई अत्युक्ति न होगी।

जो लोग यह समझते हैं कि ज्ञान की सीमा निश्चित हो चुकी या किसी ग्रन्थ, धर्म पुस्तक या किसी महापुरुष के उपदेशों तक वह सीमित है वे भूल करते हैं। ज्ञान की तो कोई सीमा हो ही नहीं सकती। जिस तरह काल अनन्त है उसी तरह ज्ञान भी अनन्त है। हमारे यहाँ ज्ञान को ‘ब्रह्म’ कहा गया है “ज्ञानं ब्रह्म।” ब्रह्म अनन्त, अनादि है तो ज्ञान की सीमा कैसे हो सकती है। ज्ञान के शोधकर्ता ऋषियों का युग समाप्त हो गया यह भी असंगत है। ज्ञान की शोध से साथ-साथ ही ऋषियों का भी आविर्भाव होता रहता है। आज भी जो नई शोध करते हैं, नये सिद्धान्तों का प्रतिपादन करते हैं, ज्ञान के क्षेत्र में कोई नया तथ्य ढूँढ़ते हैं वे ऋषि परम्परा के ही अंतर्गत आते हैं। वस्तुतः ज्ञान के किसी भी क्षेत्र में उसकी पूर्णता का साक्षात्कार करने वाला ऋषि कहा जाता है। ज्ञान का वह अंग कुछ भी हो सकता है। अपने अनुसंधान में खाना-पीना भूल जाने वाले-न्यूटन भी ऋषि ही थे। वेदों का भाष्य करने वाले मैक्समूलर भी ऋषि ही तो थे। 50 वर्ष तक अध्ययन, मनन, चिन्तन करके संसार को समाजवाद की नई दृष्टि प्रदान करने वाला मार्क्स, चार्ल्स डार्विन, दयानन्द, गाँधी, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, अरविन्द, लोकमान्य तिलक, स्वामी रामकृष्ण परमहंस, ये सब ऋषि परम्परा के ही तो ज्योर्तिदीप थे। ऋषियों का कोई युग नहीं होता, वे हर युग में ज्ञान की नई-नई शोध, संस्करण करके अवतरित होते रहते हैं।

खेद है हम लोग एक लम्बे समय से ज्ञान की खोज-बुद्धि की साधना का मार्ग छोड़ बैठे। आज से सैकड़ों वर्ष पूर्व जो तथ्य थे, ज्ञान का जो विकास हुआ था उसे ही हम लोग गले से लटकाये फिरने लगे। परिणाम यह हुआ कि हम ज्ञान के क्षेत्र में पिछड़ गये और बँधी बँधायी लकीर ही पीटते रहे। आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने पूर्वज ऋषियों के उत्तराधिकार को पूरा-पूरा निभायें और ज्ञान की खोज, बुद्धि की साधना का क्रम शुरू करें। भारत और भारतीय संस्कृति की यदि कोई विशेषता है तो वह यही है ज्ञान की उपासना-और उससे नई खोज नई शोध प्रस्तुत करना। इस कार्यक्रम को हम जितना जल्दी शुरू करेंगे उतना ही अपने पूर्वजों के प्रति अपने कर्तव्य का पालन कर सकेंगे।


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