मधु-संचय (Kavita)

October 1964

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प्राचीन हो कि नवीन छोड़ो रूढ़ियां जो हों बुरी, बन कर विवेकी तुम दिखाओ हंस जैसी चातुरी—प्राचीन बातें ही भली हैं यह विचार अलीक है,जैसी अवस्था हो जहाँ वैसी व्यवस्था ठीक है—

—मैथिली शरण गुप्त

इस समय छाया अँधेरा, रात काली, छोर वाली। विश्वास का दीपक बुझा, इन्सान की शक्लें निराली॥

बात करते डर रहा है, बन्धु से बन्धु बेचारा। घात करने को खड़ा है, बाप से उसका दुलारा॥ हर पड़ोसी की नजर, अपने पड़ोसी पर लगी है। हर बहिन को निगलने को, आज कामुकता खड़ी है॥ भूख से कोई मरे, पर ब्लैक होना है जरूरी। अन्न महँगा, वस्त्र महँगा, है दिलों में बहुत दूरी॥ आदमी उपदेश देता, आदमी चिल्ला रहा है। आदमी को आदमी ही, आज कच्चा खा रहा है॥ विषम युग है, अतः कवि तुम, कलम अपनी फिर उठाओ।

प्रेम की आवाज दो, विश्वास के दीपक जलाओ॥

—हरीमोहन सिंह ‘कोठिया’

आज जवानी मचल रही है,

चलो आज संसार पलट दें!

आज विभव का दर्प चूर्णकर,

ताज फेंक दें, तख्त उलट दें!

जन-समुद्र में ज्वार उठा है,

अरे! ‘अगस्त’! कहाँ सोता है?

चिर-पीड़ित का सिंहनाद,

प्रलयंकर आज मूक होता है?

चरण-चरण में महा नाश है,

हम हैं ज्वाला-पथ के राही!

विजय हमारा वरण करेगी,

पथ पर संकट हो कितना ही!

बढ़े चलो उन्मत्त सिपाही!

—रामकुमार चतुर्वेदी

जो सुधा पिलायेगा धरती के कण-कण को,

इतिहास उसी के चरणों पर झुक जायेगा। अर्थी में आग लगाने वाले हाथ बहुत , पर शय को साँसें देकर कौन उठायेगा? मानवता उसके गीतों को दोहरायेगी, तो मरते अधरों में सरगम भर जायगा। जिस दिन जायेगी रात न फिर से आने को, शायद ऐसा भी एक सवेरा आयेगा। इसलिए कि सारी मानवता चिर अमर रहे, हर मानव के स्वर्गों की नींव हिलाना है। करना है दफन मौत को अपने हाथों से, अब तो हमको मरघट का नाम मिटाना है।

—महेश सन्तोषी

वैराग्य छोड़ बाहों की विभा सँभालो, चट्टानों की छाती से दूध निकालो। है रुको जहाँ भी धार, शिलाएँ तोड़ो, पीयूष चन्द्रमाओं को पकड़ निचोड़ो। चढ़ तुँगशैल शिखरों पर सोम पियो रे। योगियों नहीं, विजयी के सदृश जियो रे। छोड़ो मत अपनी आन, सीस कट जाये, मत झुको अनय पर, भले व्योम फट जायें। दो बार नहीं यमराज कंठ धरता है, मरता है जो, एक ही बार मरता है। तुम स्वयं मरण के मुख पर चरण धरो रे। जीना हो तो मरने से नहीं डरो रे। आँधियाँ नहीं जिनमें उमंग भरती है, छातियाँ जहाँ संगीनों से डरती है। शोणित के बदले जहाँ अश्रु बहता है, वह देश कमी स्वाधीन नहीं रहता है। मसाल, अंधड़ पर उछल चढ़ो रे। कि रर्चो पर अपने तन का चाम मढ़ो रे।

—रामधारी सिंह ‘दिनकर


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