जीवन में सादगी की आवश्यकता और उपयोगिता

October 1964

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यह निश्चित है कि हमारा जीवन जितना बनावटी होगा, हमारी आवश्यकतायें जितनी बढ़ी हुई होंगी, उतना ही हमें अपनी शक्तियों को उनकी प्राप्ति के लिए किए जाने वाले प्रयत्न में लगाना होगा, जैसा कि आजकल हो रहा है। प्रतिमाह सौ रुपये से लेकर हजार रुपया पाने वाला व्यक्ति जीवन में अभाव ही महसूस करता है। उसका निर्वाह नहीं होता और जन-साधारण का जीवन इसकी पूर्ति के लिए भाग-दौड़ में ही लगा रहता है। नीति-अनीति से जैसे भी बने, मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जुटा रहता है। जीवन के किसी उत्कृष्ट पहलू, आदर्श दृष्टिकोण , महान् लक्ष्य पर सोचने-विचारने का उसे समय ही नहीं मिलता। अधिकाँश मनुष्य गरीब से लेकर अमीर तक सभी अपनी आवश्यकता की पूर्ति के गोरखधन्धे में ही लगे रहते हैं। इधर आमदनी बढ़ती है तो उधर आवश्यकतायें भी सुरसा की तरह मुँह फाड़ कर खड़ी हो जाती हैं और यह भी निश्चित है कि हमारी दिन-रात बढ़ने वाली आवश्यकताओं का कभी अन्त नहीं हो सकता। इन पर नियन्त्रण प्राप्त करने का एक ही आधार है और वह है सादगी के आधार पर अपनी आवश्यकताओं का निर्धारण करना।

वस्त्रों की आवश्यकता इसलिए होती है कि हम अपने शरीर को ढक सकें। सर्दी-गर्मी से शरीर का बचाव कर सकें और यह साधारण मूल्य के कपड़े से सम्भव है। गाँधी जी तो खादी की एक धोती और एक चद्दर में ही काम चला लेते थे। सन्त-महात्मा एवं महापुरुषों का काम थोड़े से कपड़ों से ही चल जाता है। फिर क्या आवश्यकता पड़ जाती है कि हम लोग बड़ा महँगा कीमती कपड़ा खरीदें और उसे नई-नई तर्जों एवं डिजाइनों में बनवायें। बाजार में गये, जो चीजें हमने देखीं, जी ललचाया और खरीद लाए। एक स्त्री 10-15 रुपए की चार साड़ियों में अपना काम भली प्रकार चलाती रह सकती है, फिर क्या आवश्यकता पड़ जाती है कि—सौ, दो सौ रुपए कीमत की एक-एक साड़ियाँ खरीद कर बक्स भरे जावें? गर्मी में सामान्य आदमी एक धोती, कुर्ता, बनियान आदि में काम चला सकता है पर यहीं हमारे देश में लोगों को कीमती सूट पहने देखा जाता है, भले ही अन्दर से पसीने बह रहे हों।

यह सच है कि हम वस्त्रों का संग्रह, खरीद तन ढकने के लिए नहीं करते वरन् अपनी तड़क-भड़क के लिए फैशन, बनाव आदि की दृष्टि से करते हैं। सर्दी गर्मी से बचने के लिए कपड़े नहीं पहनते लेकिन हम कैसे अच्छे लगते हैं, इसके लिए वस्त्र पहनते हैं और इसीलिए हर वर्ष सैकड़ों रुपया कपड़ों के नाम पर बाजार में बहाते हैं, फिर भी कहते हैं हमारी आवश्यकताएँ पूर्ण नहीं होती।

भोजन कितना आवश्यक है जीवन निर्वाह के लिए और सभी लोग कहते है—क्या करें दिन भर पेट के लिए सब कुछ करना पड़ता है। लेकिन वस्तुतः मनुष्य का पेट बहुत कम में भर जाता है। रोटी-साग गरीब-अमीर सभी को प्रायः मिल जाता है लेकिन फिर भी लोग कहते हैं “क्या करें पेट ही नहीं भरता”। इसका कारण यह नहीं कि हमारा पेट कोई बड़ी भारी टंकी बन गया है। सच तो यह है कि हम पेट भरने के लिए नहीं खाते, अपने स्वाद के लिए मिठाइयाँ, पकवान्, चाट-पकौड़ी न जाने क्या-क्या उड़ाते हैं और अपनी कमाई का पैसा गंवाते हैं, साथ ही इसके कारण बीमारियों के शिकार होकर डॉक्टर, वैद्य, हकीमों के पास जाते है, फिर दवाओं के नाम पर खर्च करते हैं। यदि आदमी पेट भरने की दृष्टि से ही खाए तो बहुत कम खर्चे में काम चल सकता है।

इसी तरह हम रहन-सहन, रीति-रिवाज, त्यौहार-वार के नाम पर दिखावे के लिए अपने नाम या बड़प्पन के लिए किस तरह अनाप शनाप खर्च करते हैं? भारतीय नागरिक की कमाई का बहुत बड़ा अंश इन्हीं में खर्च हो जाता है। हालाँकि इसके लिए हमारी प्राचीन परम्परायें, रूढ़ियां आदि कम उत्तरदायी नहीं हैं फिर भी विचारशील व्यक्ति प्रयत्नपूर्वक इस तरह के फालतू खर्चे को रोक सकते हैं।

तथा कथित “जीवन स्तर” “स्टेंडर्ड आफ लिविंग” की प्रचलित व्याख्या ही यह हो गई है कि मनुष्य कितना कीमती वस्त्र पहनता है, खाने पीने, मौज मजे करने में, कितना अधिक खर्च करता है। समाज में ब्याह शादी, दावत-भोज आदि के नाम पर कौन कितना धन फूँकता है, इसके आधार पर ही उसका बड़प्पन आँका जाता है और इस सब के कारण मनुष्य दिन रात कमाने की फिक्र में लगा रहता है। यदि लोगों के जीवन उद्देश्य के बारे में अन्वेषण किया जाय तो निन्यानवे प्रतिशत “कमाना और खा पीकर जीवन बिता देना” ही निकलेगा और खाना, पीना, पहनना, मौज मजे करना भी ऐसा जिससे अन्त में मनुष्य को कोई लाभ नहीं मिलता, उसे पश्चाताप ही हाथ लगता है। सम्पूर्ण जीवन इसी गोरख-धन्धे में लगा देना और फिर उसका नतीजा शून्य! कैसी विडम्बना है! कैसी मरीचिका है!

सादगी भारतीय जीवन-पद्धति का एक महत्वपूर्ण नियम रहा है और शायद सादा-जीवन बिता कर ही हमारे पूर्वजों ने ज्ञान की महान् साधना की होगी। उस ज्ञान की—जिसके कारण समस्त संसार भारत को सभ्यता का सूर्य, ज्ञान विज्ञान का देश मानते रहे, जिसके बल पर भारत जगद्गुरु कहलाया।

सादगी एक ऐसा नियम है जिसके सहारे हम अपने वैयक्तिक तथा सामाजिक जीवन की बहुत-सी समस्याओं सहज ही हल कर सकते हैं। सादगी के द्वारा अपना बहुत-सा समय, धन, खर्च होने वाली शक्तियाँ बचा सकते हैं और उनका अपने उत्कर्ष के लिए सदुपयोग कर सकते हैं।

इसीलिए हमारे पूर्वजों ने जीवन के बाह्य विभाग को कम महत्व दिया है। सादगी से जीवन बिताने के लिए कहा है ताकि हम अपनी शक्ति व्यर्थ नष्ट न कर उसका सदुपयोग अच्छे कार्यों में कर सकें। ऋषियों का जीवन इसी सत्य का प्रतीक था और किसी भी महान् पथ का संधान करने वाले महापुरुष को सादगी का मार्ग ही अपनाना पड़ता है। अपनी आवश्यकतायें बहुत कम, सामान्य रखनी पड़ती हैं जिनसे जीवन का निर्वाह सहज रूप में होता रहे।

सादगी जहाँ व्यक्तिगत जीवन में लाभकारी होती है, वहाँ सामाजिक जीवन में भी संघर्ष, रहन-सहन की असमानता कृत्रिम अभाव महंगाई आदि को दूर करके वास्तविक समाजवाद की रचना करती है। सादगी समाजवाद का व्यावहारिक नियम कर दिया जाय तो कोई अत्युक्ति न होगी। समाज में, जीवन संघर्ष इसलिए बढ़ गया है कि प्रत्येक अपने लिए अधिक से अधिक माँग करता है, अपनी शक्ति के अनुसार साधन सामग्री जुटा लेता है, इससे दूसरों का हक भी छिनता है और समाज में अभाव पैदा होता है। अभाव से महँगाई बढ़ती है। सादगी सिखाती है कि जितनी आवश्यकता है, जितने से जीवन सरलता से चल जाता है उतना ही काफी है। फिर छीना-झपटी, अभाव क्यों रहेगा? न किसी का हक छिनेगा न महँगाई बढ़ेगी। यदि संसार के सभी लोग सादा जीवन बिताने लगें तो इसमें कोई सन्देह नहीं कि मानव-जाति की अनेकों आर्थिक और सामाजिक समस्यायें सुलझ जाएं। जीवन सरल हो जाय।

इसलिए जीवन को सादा बनाइए, इससे आपका और समाज का बहुत बड़ा हित साधन होगा।


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