सामान्य गायत्री उपासना में इतना भी पर्याप्त है कि नित्य शुद्धतापूर्वक आसन पर बैठ कर गायत्री माता का ज्योतिर्मय ध्यान करते हुए कम से कम एक माला का जप नित्य कर लिया जाय। उसका विस्तृत विधान गायत्री महाविज्ञान ग्रन्थ के तीन भागों में बताया जा चुका है। जिन्हें जिस प्रयोजन के लिए जिस प्रकार की- जिस स्तर की साधना अनुकूल हो वे उसी को कर सकते हैं। ताँत्रिक विधान तथा योगाभ्यास पद्धति से भी विशिष्ट गायत्री उपासना की जाती है और उसके लघु-मध्यम एवं पूर्ण पुरश्चरण भी होते हैं। उनका उल्लेख यहाँ किया जाना अनावश्यक है। वह सब कुछ हम अपने गायत्री ग्रन्थों में लिख चुके हैं और समयानुसार अखण्ड-ज्योति के पृष्ठों पर उसका विस्तृत विवेचन आगे चलकर फिर करेंगे। अभी तो हमें गायत्री उपासना के उस उच्चस्तरीय-आत्मोन्नति के प्रयोजन से किये जाने वाले पञ्चकोशी साधना क्रम की ही चर्चा करनी है। गत तीन वर्षों से हर अक्टूबर मास की अखण्ड-ज्योति में एक वर्ष का साधना क्रम छापते रहे हैं। साधकों ने इस मार्ग पर चलते हुए आशातीत लाभ भी उठाया हैं। तीन वर्ष से चलते हुए उस साधना क्रम का यह चौथा वर्ष इस अक्टूबर मास से आरम्भ होना है। अस्तु अगले वर्ष का पाठ्यक्रम ही इन पंक्तियों में प्रस्तुत किया जायगा।
पाठक यह जान ही चुके हैं कि आत्मा के ऊपर पाँच आवरण उसी प्रकार चढ़े हुए हैं जिस प्रकार प्याज की गाँठ में, केले के तने में या एक के ऊपर एक कपड़े पहनने वाले के वस्त्रों में कई पर्त होते हैं। उसी प्रकार आत्मा पाँच आवरण ओढ़े हुए है। इन्हें (1) अन्नमय कोश, (2) मनोमय कोश, (3) प्राणमय कोश, (4) विज्ञानमय कोश, (5) आनन्दमय कोश कहते हैं। आत्मसाक्षात्कार करने के लिए इन आवरणों को हटाना पड़ता है, उनका परिशोधन करना होता है। जिस प्रकार किसान अपनी कृषि को (1) जोतने, (2) बोने, (3) सींचने, (4) रखाने और (5) काटने के पाँच संस्कारों द्वारा परिपूर्ण करके उपार्जित अन्न का लाभ घर को ले जाता है, उसी प्रकार आत्म-कल्याण की उपासना करने वाले को भी पाँच कोशों के अनावरण की साधना करनी पड़ती है। जिन लोगों की उपासना नित्य कर्म तक सीमित है, वे थोड़ा जप नित्य करके भी काम चला सकते हैं, पर जिन्हें आत्म-साक्षात्कार की पूर्ण कक्षा तक पहुँचना है, उन्हें गायत्री योग के अंतर्गत पञ्चकोशी उपासना को भी अपनाना ही पड़ता है। गायत्री माता की पाँच मुख वाली आकृति कल्पना के पीछे भी पञ्चकोशों की साधना द्वारा ही पूर्णता तक पहुँचने का अलंकारिक संकेत छिपा हुआ है।
गत तीन वर्षों में अन्नमय कोश की साधना के संदर्भ में रविवार को बिना नमक शक्कर का अस्वाद व्रत, भोजन को एक दो लगावन तक सीमित करने की शिक्षा दी गई है। आहार शुद्धि पर इसलिए जोर दिया जाता है कि मन की शुद्धता-अशुद्धता का आधार वही है। यदि अन्न अशुद्ध होगा तो मन भी अशुद्ध रहेगा और अशुद्ध मन न कभी ध्यान भजन में एकाग्र होता है। और न श्रद्धा-विश्वास को ही ग्रहण करता है। मन का परिशोधन अन्न की शुद्धि पर निर्भर है। इसलिए साधना- समर में उतरने वाले को सबसे पहले आहार शुद्धि पर ध्यान देना पड़ता है। शुद्ध कमाई का, शुद्धता-पूर्वक बनाया हुआ, भगवान का प्रसाद मानकर, औषधि एवं अमृत की भावना से भोजन करना आवश्यक है। स्वाद के लिए नहीं, वरन् शरीर रक्षा के लिए ही खाया जाना चाहिए। पेट की थैली को देखते हुए उसमें आधा आहार, चौथाई जल और चौथाई वायु के लिए स्थान रहने देना चाहिए । अर्थात् भोजन की मात्रा इतनी रहनी चाहिए, जिससे पेट पर अनावश्यक भार न पड़े, आलस्य न आवे। जल्दी-जल्दी नहीं, वरन् धीरे-धीरे अच्छी तरह चबा कर ग्रास को उदरस्थ किया जाय। यह सब बातें गत वर्षों में बताई जा चुकी हैं। उनका जान लेना ही पर्याप्त नहीं, वरन् लाभ तभी है जब अभ्यास में लाया जाय।
उपवास आत्मिक साधना का आवश्यक अंग है।
सप्ताह में एक दिन हमें उपवास रखना चाहिए। नींबू, शहद मिला हुआ जल, दूध, छाछ, शाकों का रसा जैसे पेय पदार्थों से काम चला कर उपवास करना अच्छा रहता है। जो दोनों समय उपवास न कर सकें वे सप्ताह में एक बार तो कर ही लिया करें। जिनसे एक बार भी निराहार न रहा जा सके वे उस समय पेय पदार्थ ले सकते हैं। देश की खाद्य समस्या को देखते हुए सप्ताह में एक बार अन्नाहार का त्यागना देश-भक्ति का भी काम है। एक समय उपवास करके जो अन्न बचाया है, उसके पैसे आत्मा को भोजन देने के लिए- स्वाध्याय योग्य सत्साहित्य खरीदने के लिए सुरक्षित रखे जाने चाहिएं। शरीर का भोजन घटा कर आत्मा की खुराक बढ़ाने का शुभारम्भ इस प्रकार के साप्ताहिक उपवास से आरम्भ करना चाहिए। आगे यही पद्धति बढ़ते हुए भौतिक शारीरिक लाभों की तुलना में आत्मिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए परिपुष्ट होती चली जाती है।
दिन में दो बार से अधिक भोजन नहीं करना चाहिए। आवश्यकतानुसार प्रातः या तीसरे पहर दूध, छाछ, नींबू, शहद मिला जल जैसे प्रवाही पदार्थ लिये जा सकते हैं। बीच-बीच में कुछ न कुछ खाते रहने की आदत स्वास्थ्य की दृष्टि से भी और आत्मिक दृष्टि से भी अनुपयुक्त है। इसे साहसपूर्वक छोड़ ही देना चाहिए।
इस चौथे वर्ष की साधना में पेय पदार्थों की ओर कदम बढ़ाया जाना चाहिए। जो खाते हैं वही नहीं, वरन् जो पीते हैं, वह भी अन्न है। हमारा पेय शुद्धता युक्त हो। पीने का पानी शुद्ध बर्तन में हो, छना हुआ और ढका हुआ रहे, हाथ धोकर उसे लिया जाय और मंजे हुए शुद्ध बर्तन में पिया जाय। पीते समय एक साथ गट-गट ही न चढ़ा लिया जाय, वरन् धीरे-धीरे एक-एक घूँट को मुँह में रखकर उसे चूसते हुए- अमृत की भावना करते हुए- प्रसन्न चित्त से उसे पीना चाहिए। इस प्रकार पिया हुआ जल वस्तुतः औषधि की तरह काम करता है। उससे जल चिकित्सा का प्रयोजन पूरा होता है और आत्म-शोधन में आवश्यक सहायता मिलती है।
अशुद्ध पेयों का हमें परित्याग करना चाहिए। गन्दे ढंग से, गन्दे पात्रों में, गन्दे लोगों के द्वारा लाया हुआ जल न लेने का बचाव करना चाहिए। क्योंकि जल में संस्कार ग्रहण करने की शक्ति अन्न से भी अधिक रहती है, यदि तमोगुणी स्थिति का जल प्रयोग किया जाय तो उससे साधना क्रम में बाधा ही पड़ेगी। सामूहिक जल पात्रों में जहाँ हर कोई मन माने ढंग से बिना हाथ धोये पानी भरता पीता है, काँच के गिलास बिना माँजे धोये काम में आते रहते हैं, वहाँ तभी पानी पीना चाहिए जब उसके बिना काम न चलता हो। होटलों की चाय दुहरी हानि पहुँचाती है। चाय का नशा तो हानिकारक है ही। होटलों की गन्दगी उसमें “गिलोय नीम चढ़ी” की उक्ति चरितार्थ करती है। शराब, भाँग, ताड़ी जैसे नशीले पेय आत्म- कल्याण के इच्छुकों को त्यागने ही पड़ते हैं। धुँआ पीना भी अन्न में माना जायगा। तमाखू खाना-पीना गाँजा, चरस, मादक आदि भले ही धुएं या उत्तेजना के रूप में ही क्यों ना हों, हमारे जीवन कोषों और मस्तिष्कीय कोष्ठकों में प्रवेश करके तमोगुण उत्पन्न करते हैं और यह तमोगुण आत्मिक प्रगति के मार्ग में एक भारी बाधा बनकर खड़ा रहता है। नशेबाजी से हमें बचना ही चाहिए। भले ही वह बीड़ी पीने जैसी छोटी-सी ही क्यों न हो। इस वर्ष हमें नशेबाजी और अशुद्ध जल के प्रयोग को बन्द करने का प्रयत्न करना चाहिए, जिन्हें यह बुरी आदतें पड़ गई हों उन्हें उसे छोड़ना चाहिए। एक साथ न छूट सकें तो इस वर्ष इनका उपयोग आधा तो तुरन्त ही कर देना चाहिए।
गत वर्ष निरालस्यता और ब्रह्मचर्य पर अधिक ध्यान देने के लिए कहा गया था। इस वर्ष उनकी परिपुष्टि के लिए और भी अधिक ध्यान देना चाहिए। गृहस्थों को भी जितना अधिक ब्रह्मचर्य पालना संभव हो सके पालना चाहिए। शरीर के ओज और पोषण को कम से कम नष्ट करना चाहिए। समय का एक क्षण भर बर्बाद न करना, निरन्तर काम में लगे रहना, प्रातःकाल दिनचर्या बनाकर उसे पूरा करने में मशीन की तरह लगे रहना, यह आध्यात्मिक व्यक्ति का आवश्यक कर्तव्य है। समय ही जीवन है, जीवन ही समय है। जिन्हें अपना जीवन बर्बाद करना अभीष्ट न हो, उन्हें अपने समय का एक क्षण भी बर्बाद न करके उसका श्रेष्ठतम सदुपयोग करने के लिए कटिबद्ध होना चाहिए। अन्नमय कोश की साधना के लिए इस वर्ष गायत्री के उच्चस्तरीय पञ्चकोशी साधकों को उपरोक्त विधि व्यवस्था को ध्यानपूर्वक समझना चाहिए और तत्परतापूर्वक उसका प्रयोग आरंभ करना चाहिए।