गायत्री उपासना का भावनात्मक और वैज्ञानिकता दोनों ही दृष्टियों से बड़ा महत्व है। भावना की दृष्टि से विचार किया जाय तो मानव-जीवन के चरित्र उत्कर्ष का बीज- मन्त्र उसे कहा जा सकता है। सामान्यता मनुष्य सबसे अधिक अपेक्षा ‘सद्बुद्धि’ की ही करता है। जिस औजार से उसे निर्माण कार्य करना है उसे ही टूटा-फूटा भौंथरा और अनगढ़ रखता है । इस भूल के फलस्वरूप ही उसे जीवन लक्ष्य से वंचित रहना पड़ता है।
सृष्टि के समस्त प्राणियों की तुलना में सबसे श्रेष्ठ साधन सम्पन्न शरीर मनुष्य को मिला है। बोलने, सोचने, लिखने, करने, मिल-जुल कर रहने और खोजने की जो विशेषताएं मनुष्य को प्राप्त हैं, उन्हीं के बलबूते पर उसने उन्नति के उच्च शिखर तक पहुँचने में सफलता पाई है। जितनी सुविधाएं मनुष्य को प्राप्त हैं, उसका हजारवाँ भाग भी सृष्टि के अन्य प्राणियों को प्राप्त रही होतीं तो वे अपने को धन्य मानते। आश्चर्य इसी बात का है कि इतनी सुविधाएं रहते हुए भी लोग दुःखी क्यों हैं? निरन्तर चिन्तित खिन्न, उदास, क्षुब्ध और अशान्त क्यों रहते हैं? इसका एक ही कारण है कि उनकी विचारणा का- प्रज्ञा का - सद्बुद्धि का परिष्कार नहीं हुआ। यदि वे सोचने का तरीका सही बना लेते तो आज जो अगणित समस्याएं और कठिनाइयाँ सामने उपस्थित हैं उनमें से एक भी दृष्टिगोचर न होती। सोचने का तरीका यदि सीख लिया जाय तो फिर इसी जीवन में स्वर्ग की अनुभूतियाँ बिखरी हुई दिखाई पड़ने लगें। निस्सन्देह विचारणा की अशुद्ध प्रणाली ने ही स्वर्गीय सुविधाओं से सम्पन्न मानव प्राणी को नारकीय परिस्थितियों में- दुःख-दारिद्रय में पड़े रहने के लिए विवश किया है। यदि सुख शान्ति की स्थिति सचमुच अभीष्ट हो तो उसके लिए एक उपाय अनिवार्यतः करना पड़ेगा और वह उपाय है- अपनी विचार पद्धति का संशोधन।
गायत्री महामन्त्र में इसी मर्म- रहस्य का उद्घाटन किया है। मानव जाति को सन्देश दिया है कि कोल्हू के बैल बने फिरने, मृगतृष्णा में भटकते रहने की अपेक्षा मूल तथ्य को समझो। सुख प्राप्ति के लिए प्रयत्न तो करो, पर प्रयत्नों से पूर्व स्थिति को समझ भी लो कि वह कहाँ से और कैसे मिलेगा?
गायत्री मन्त्र बताता है कि विचार संशोधन, भावनात्मक परिष्कार वह आवश्यक तत्व है, जिसे प्राप्त किये बिना न किसी को आज तक सुख-शान्ति मिली है और न आगे मिलेगी। वस्तुएं क्षणिक सुख दे सकती हैं। वासना और तृष्णा की मदिरा में कुछ ही क्षण उन्मत्त रहा जा सकता है। उनकी परिणति तो दूनी अशान्ति, दूनी हानि और दूनी असफलता में ही होती है। इसलिए हमें अपने मानसिक संस्थान को शुद्ध करने का सबसे अधिक प्रयत्न करना चाहिए। अपनी एक-एक प्रवृत्ति का सूक्ष्म निरीक्षण करना चाहिए और उन पर चढ़े हुए कुसंस्कारों का साहसपूर्वक परिष्कार करना चाहिए। वस्तुतः इसी का नाम साधना है। साधना का केन्द्र-बिन्दु इसी प्रयास एवं पुरुषार्थ को कहा जाता है।
गायत्री में ईश्वर से यही माँगा है कि - “प्रभु हमें आपने मानव शरीर देकर असीम अनुकम्पा की है। अब मानव बुद्धि देकर हमें उपकृत और कर दीजिए ताकि हम सच्चे अर्थों में मनुष्य कहला सकें और मानव जीवन के आनन्द का लाभ उठा सकें।” गायत्री के 24 अक्षरों में परमात्मा के ‘सवितु’ ‘वरेण्यः’ ‘भर्गः’ और ‘देव’ गुणों का चिन्तन करते हुए उन्हें अपने जीवन में धारण करने की आस्था बनाते हुए यह संकल्प किया गया है कि परमात्मा के अनुग्रह एवं वरदान की एक मात्र विभूति ‘सद्बुद्धि’ को भी हम प्राप्त करते रहेंगे। अपने जीवन को उस ढाँचे में ढालेंगे, जिसमें कि सद्बुद्धि सम्पन्न महामानव अपने को ढालते चले आये हैं। उसी संकल्प को बार-बार पूरी निष्ठा और भावनापूर्वक दुहराने का नाम गायत्री जप है। जप का सच्चा स्वरूप समझते हुए जो उस उपासना को करते हैं, वे उसका अनिर्वचनीय लाभ प्राप्त भी कर लेते हैं। वे इस अमृत को पाकर अमर बन जाते हैं और इस मृत्यु-लोक में रहते हुए भी दिव्य-लोक में निवास करने का स्वर्गीय आनन्द पग-पग पर अनुभव करने लगते हैं।
वैज्ञानिकता की दृष्टि से गायत्री उपासना के अगणित भौतिक लाभ भी हैं। कष्टों और आपत्तियों में पड़े हुए, विपत्तियों में फंसे हुए, अभाव और दरिद्र से पीड़ित, असफलता की ठोकरों से विक्षुब्ध व्यक्ति यदि इस महामन्त्र का आश्रय लेते हैं तो उन्हें आशा की किरणें दृष्टिगोचर होती हैं। जिन्हें अपना भविष्य अन्धकारमय दीख रहा था और आपत्तियों के कुचक्र में पिस जाने का भय सता रहा था, उन्हें उस उपासना से नया प्रकाश मिलता है। अभावग्रस्त व्यक्ति दारिद्रय से और रुग्ण मनुष्य पीड़ाओं से छुटकारा प्राप्त करते देखे गये हैं। कामनाओं की जलती हुई आग तृप्ति और शान्ति में परिणत होते देखी गई है। इस अवलम्बन का सहारा लेकर गिरे हुए लोग ऊपर उठते हैं। इस प्रकार के प्रतिफल कि सी जादू से नहीं, वरन् एक वैज्ञानिक पद्धति से उपलब्ध होते हैं। गायत्री उपासना मनुष्य के विचारों और कार्यों में एक नया मोड़, एक नया परिवर्तन प्रस्तुत करती है। जिसका अंतर्जगत बदले तो उसके बाह्य जीवन में परिवर्तन प्रस्तुत होना ही चाहिए। होता भी है। इसे ही लोग गायत्री माता का अनुग्रह एवं वरदान भी मानते हैं।
अनेक व्यक्तियों को गायत्री उपासना के फलस्वरूप अनेक प्रकार के कष्टों से छुटकारा पाते और अनेक सुविधाएं उपलब्ध करते हुए देखकर हमें यही अनुमान लगाना चाहिए कि इस साधन पद्धति में ऐसे वैज्ञानिक तथ्यों का समावेश है, जिनके कारण साधक की अन्त :-भूमि में आवश्यक हेर-फेर उपस्थित होते हैं और वह असफलताओं एवं शोक सन्तापों पर विजय प्राप्त करते हुए तेजी से समुन्नत, समर्थ एवं सफल जीवन की ओर अग्रसर होता है।
गायत्री का महात्म्य भावनात्मक दृष्टि से भी है और वैज्ञानिक दृष्टि से भी इसी से इस महान् अध्यात्म सम्बल को श्रद्धापूर्वक अपनाये रहने और उसे नित्य नियम में स्थान दिये रहने के लिए शास्त्रकार ने ये निर्देश किया है। ऋषियों ने प्रत्येक विवेकशील व्यक्ति के लिए गायत्री की निष्ठापूर्वक उपासना करने के लिए जोर दिया है और जो उस उपयोगी व्यवस्था का लाभ नहीं उठाना चाहते, उनकी भूल को उन्होंने कटु भर्त्सना के साथ निन्दनीय भी ठहराया है। गायत्री उपासना न करने वाले को उन्होंने चाण्डाल तक कहा है।
गायत्री उपासना हमारे हित में ही है। उस माध्यम से मनुष्य निश्चय ही अपनी बहुत आत्मोन्नति कर सकता है। अखण्ड-ज्योति परिवार के सदस्यों की गत पच्चीस वर्षों से यह प्रेरणा निरन्तर दी जाती रही है और प्रसन्नता की बात है कि उनमें से अधिकाँश इस सम्बल को अपने जीवन का आधार बना भी चुके हैं। जिन्होंने अभी इस मार्ग पर चलना आरम्भ नहीं किया है, उन्हें चाहिए कि अवलम्बन के एक परीक्षण के रूप में गायत्री उपासना आरम्भ करें और देखें कि उनके उज्ज्वल भविष्य की सम्भावना उत्पन्न करने में कैसे आश्चर्यजनक ढंग से यह महान् उपासना सहायक होती है।