मनोमय कोश का परिष्कार

October 1964

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गीताकार ने मन को ही बन्धन मोक्ष का कारण और उसे ही भयंकर शत्रु तथा घनिष्ठ मित्र बताया है। कुसंस्कारी मन बन्धन का कारण होता है, अनेक विपत्तियाँ उत्पन्न करता और वह त्रास देता है जो बुरे से बुरा, निर्दय से निर्दय शत्रु भी नहीं दे सकता। उसके विपरीत जिसका मन सुसंस्कारी है, उसे इसी धरती पर जीवन मुक्ति का, स्वर्गीय सुख शान्ति का, देवलोक में रहने का आनन्द मिलता है। कुमार्गगामी मन ही मनुष्य को घृणित, निकृष्ट स्तर पर ले जाकर पटक देता है और वही यदि सन्मार्गगामी बन जाय तो सामान्य स्तर के मनुष्य को महामानव, नर-नारायण, पुरुष पुरुषोत्तम, सन्त, ऋषि और देवता बनने की परिस्थितियाँ उत्पन्न कर देता है।

मन को परिष्कृत करना गायत्री की पंचकोशी साधना का महत्वपूर्ण आधार है। पंचकोशी साधना के मनोमय कोश परिष्कार साधन में यह प्रयत्न करना पड़ता है कि हमारा मन कुसंस्कारिता से विरत होकर वैसा बने जैसे एक श्रेष्ठ मनुष्य का होना चाहिए। एक भ्रान्त धारणा यह फैल पड़ी है कि “पूजा के समय भगवान की छवि पर जिसका मन एकटक लगा रहे उसका मन वश में हो गया।” यह एकाग्रता की साधना मात्र है, जिसे मैस्मरेजम विद्या के ज्ञाता त्राटक आदि की सहायता से बड़ी आसानी से प्राप्त कर लेते हैं। हिसाब जोड़ने वाले मुनीम, निशाना साधने वाले बन्दूकची, मैस्मरेजम का खेल दिखाने वाले बाजीगर, सरकस में खेल करने वाले नट, शोध करने वाले वैज्ञानिक इस कला में निष्ठगत होते हैं, उनको अपना मन एक दिशा में लगा देने की सिद्धि मिली हुई होती है। यदि ऐसे लोग चाहें तो ईश्वर की अमुक छवि पर घन्टों ध्यान लगाये आसानी से बैठे रह सकते हैं। इतने पर भी यह नहीं कहा जा सकता है कि उनका मन संग्रहीत हो गया और वे मोक्ष के अधिकारी हो गये। माना कि एकाग्रता भी मन की एक सफलता है और उससे ध्यान साधना में एक सीमा तक सहायता मिल सकती है पर एकाग्रता को ही मन को जीतना कहा जाय तो यह वज्र-मूर्खता से कम भ्रान्ति न होगी।

मनोमय कोश की साधना मन को सुसंस्कृत बनाने का प्रयास है। परिष्कृत और पवित्र मन निस्सन्देह आत्मिक लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है फिर चाहे वह किसी छवि पर एकाग्र होता हो, चाहे न होता हो। एकाग्रता मस्तिष्क की सफलता है और विशालता हृदय की गरिमा। मन को एकाग्र करना एक तृण समान लाभ है, उसकी तुलना में हृदय का विशाल बना लेना हिमालय जैसी सफलता माना जा सकता है। गायत्री की पंचकोशी साधना में मन को एकाग्र होना उतना आवश्यक नहीं माना गया है, जितना अन्तःकरण का उदार, विशाल, महान् और पवित्र बनाना है। हमें इस तथ्य को भली प्रकार बार-बार हृदयंगम कर लेना चाहिए।

विगत तीन वर्षों में इस संदर्भ में कई साधना बताई जा चुकी हैं। हमारी मनोभूमि में क्या आस्थाएं जमें? इसकी एक सुव्यवस्थित संहिता ‘युग-निर्माण सत्संकल्प’ की थोड़ी-सी पंक्तियों में समाविष्ट हैं। इन थोड़ी-सी पंक्तियों में वह सब कुछ बता दिया गया है, जो हमारी मान्यताओं और आस्थाओं का आधार होना चाहिए। इस सत्संकल्प को हमें बहुत ही ध्यानपूर्वक, पूरे मनोयोग के साथ, दिन में कम से कम एक बार अवश्य ही पढ़ना चाहिए और चिन्तन एवं मनन द्वारा समय-समय पर यह विचार करते रहना चाहिए कि इस आस्था को जीवन में कितना उतार लिया गया तथा कितना उतारना शेष है। जो शेष हो उसकी पूर्ति के लिए रोज ही सोचना चाहिए और रोज ही एक कदम आगे बढ़ाना चाहिए। ‘सत्संकल्प’ के अनुरूप जीवन ढाल लेने में सफलता प्राप्त कर लेने की स्थिति को यदि ‘जीवन मुक्ति’ कहा जाय तो उसमें तनिक भी अत्युक्ति न होगी। मुक्त पुरुष का अन्तःकरण कैसा हो सकता है? उसकी गतिविधियाँ कैसी रह सकती हैं? इसका सजीव चित्रण इस छोटे-से संकल्प में मौजूद है। प्रयत्न यह होना चाहिए कि हमारी मनोभूमि ऐसी ही बने और हमारी गतिविधियों का निर्धारण इसी आधार पर हो। इसके लिए बार-बार जब भी अवकाश मिले तभी हमें चिन्तन मनन करना चाहिए। मनोमय कोश की यह साधना गत वर्षों में बताई जा चुकी है।

प्रातःकाल उठते ही अपनी दिनचर्या बनाना, रात को सोते समय अपने कार्यों की व्यवस्था एवं उत्कृष्टता निकृष्टता का लेखा-जोखा लेना, पूजा उपासना का ही एक अंग मानना चाहिए। यह प्रक्रिया आत्म-शोधन के लिए एक अनिवार्य पद्धति है, जिसे प्रत्येक साधक को बिना चूक एवं बिना नागा अपनाये ही रहना चाहिए। भजन में स्थान, साधक एवं परिस्थिति अन्य कठिनाई से कभी चूक भी हो सकती है, पर उठते और सोते समय अपने उत्थान पतन का विचार विश्लेषण करना तो ऐसा सरल एवं स्वाभाविक है कि उसमें नागा होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता।

स्वाध्याय आत्मा की खुराक है। जिस प्रकार शरीर को भोजन दिया जाता है, उसी प्रकार जीवनोत्थान के लिए प्रकाश, प्रेरणा एवं मार्ग-दर्शन देने वाला साहित्य मनोयोगपूर्वक नित्य ही पढ़ना चाहिए। यह कार्य प्राचीन कथा, पुराण दुहराते रहने से नहीं, वरन् उस साहित्य द्वारा पूरा होगा जो हमारी आज की समस्याओं पर आज की परिस्थितियों के अनुरूप सुझाव एवं प्रकाश प्रदान कर सकें। सत्संग का उद्देश्य आज की परिस्थितियों में ऐसा साहित्य ही पूरा कर सकता है। तथाकथित ‘सत्संगी’ तो हमें उल्टे भ्रम-जंजाल में फँसा कर पथ भ्रष्ट कर देते हैं। प्रबुद्ध सत्संग की पूर्ति पढ़े लिखे लोगों को स्वाध्याय द्वारा और बिना पढ़े लिखे लोगों लोगों को उसे सुनकर करनी चाहिए। मनोमय कोश की साधना में प्रबुद्ध साहित्य के स्वाध्याय का महत्वपूर्ण स्थान है।

व्यक्ति का मन समाज के समग्र मन का ही एक अंश है। चारों ओर दूषित मनोविकारों का साम्राज्य छाया हुआ हो तो उसका प्रभाव सामान्य स्तर के मन भी ग्रहण करते ही हैं। इसलिए अपने मन की शुद्धता अक्षुण्ण बनाये रहने के लिए यह आवश्यक हैं कि अपने संपर्क में आने वाले लोगों का मन भी शुद्ध बनाने के लिए यथा संभव प्रयत्न करें। जिस प्रकार शरीर की ही नहीं, वस्त्र, मकान, अन्न, जल, वायु आदि की स्वच्छता पर भी ध्यान रखना पड़ता है, वैसे ही अपनी मानसिक शुद्धि के लिए अपने संपर्क में आने वाले लोगों का मानसिक स्तर सुधारना आवश्यक है। सद्ज्ञान प्रसाद की कार्य पद्धति युग-निर्माण योजना की रीढ़ है। उसके अनेकों प्रकार—लोक सेवा के अनेकों उपाय—समय-समय पर बनाये जाते रहते हैं। अपनी परिस्थिति के अनुसार हमें यह प्रयत्न करना ही चाहिए कि जहाँ तक अपना संपर्क क्षेत्र हो, वहाँ तक सद्विचारों का, सत्प्रेरणाओं का प्रकाश फैले। इसके लिए हमें दीपक का अनुकरण करना चाहिए और कुछ समय नियमित रूप से ज्ञान यज्ञ के लिए देते रहना चाहिए। मनोमय कोश की साधना का यह एक महत्वपूर्ण अभ्यास है।

इस चौथे वर्ष में कुविचारों को सद्विचारों से काटने का अभ्यास करना चाहिए। अपने मन में उठने वाले विचारों पर सूक्ष्म समीक्षा दृष्टि गड़ाये रहना चाहिए और जब भी कुविचार उठते देखें तो उनके विरोधी काटने वाले सद्विचारों का प्रवाह मन में जारी कर देना चाहिए। काम विकार उठते ही सुन्दर शरीर के भीतर भरी हुई गन्दगी का स्मरण करने लगना, लोभ के विचार आते ही धन और शरीर की नश्वरता एवं अनीति से उपार्जन के दुष्परिणामों का चिन्तन करना, क्रोध आते ही अपने से भी वैसी ही भूलें होते रहने की बात सोचना और जिस पर क्रोध किया जा रहा है, उसके प्रति ममता आत्मीयता का आरोपण करने लगना, इन उपायों से दुष्ट विचारों को सद्विचारों से काटा जा सकता है। संघर्ष किये बिना कुविचार हटाये नहीं जा सकते। इसलिए अपनी दुर्वासनाओं के विरुद्ध सद्भावनाओं की सेना तैयार कर लेनी चाहिए और यह नोट कर रखना चाहिए कि जब अमुक प्रकार के कुविचार उठेंगे तब उनका प्रतिरोध अमुक प्रकार के सद्विचारों से किया करेंगे। अवसर आते ही उनका प्रयोग भी आरम्भ कर देना चाहिए।

कुविचारों से संघर्ष करने का यह अभ्यास इस चतुर्थ वर्ष की साधना का पाठ्यक्रम है। इसे जो जितने उत्साहपूर्वक अपनायेगा, उसे आत्मिक प्रगति की दिशा में गायत्री की उच्चस्तरीय पंचकोशी साधना के अभ्यास में उतनी ही सहायता मिलेगी। मनोमय कोश के परिष्कार की यह बहुत ही महत्वपूर्ण एवं उत्कृष्ट साधना है। उपासकों को इसे पूरी श्रद्धा के साथ अपनाना चाहिए।


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