केवल सत्य ही जीतता है।

October 1964

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

व्यावहारिक जीवन में यह सभी चाहते हैं कि लोग हमारे साथ सत्य बोलें, सदाचरण करें और सहानुभूति प्रकट करें। आत्मा अपनी श्रेष्ठता, सत्य के द्वारा ही तो व्यक्त करता है। सत्य आत्मा का नैसर्गिक गुण है। इस विशेषता के कारण ही मनुष्य अपने समीपवर्ती लोगों से सदैव सत्य व्यवहार की ही अपेक्षा किया करते हैं। चोर, बदमाश, लफंगे, उठाईगीर तक भी दूसरों से झूठी बात सुनकर जल-भुन उठते हैं और इसका प्रतिकार लेने के लिए तुल पड़ते हैं। हम दूसरों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं, यह दूसरी बात है पर एक बात जो प्रत्येक प्राणी में समान रूप से दिखाई देती है, वह यह है कि सभी सत्य के प्रति आदर-भाव रखते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि सत्य ही आत्मा की अभिव्यक्ति है। तत्वदर्शियों का कथन है कि “परमात्मा यदि किसी के समक्ष प्रकट होना चाहे तो उसे प्रकाश से अपना शरीर और सत्य से अपनी आत्मा को धारण करना पड़ेगा।”

मानव जीवन की सुव्यवस्था का आधार सत्य है। हम सभी से सत्यानुसरण की अपेक्षा रखते हैं, इसका अर्थ यही हुआ कि लोगों को प्रसन्नता, आदर-भाव, व्यवस्था, स्वस्थ चिन्तन, परिपूर्णता और सुख की प्राप्ति सत्य से होती है। जब तक लोग पारस्परिक विश्वास प्राप्त नहीं कर लेते, तब तक किसी प्रकार का कारबार चला नहीं सकते। किसी से अधिक देर तक संपर्क भी इस प्रकार नहीं रखा जा सकता। असत्य के अन्धकार में जब तक वस्तु स्थिति ठीक प्रकार जान नहीं पड़ती तब तक भ्रमवश कोई विश्वास भले ही प्राप्त कर ले किन्तु सत्य का प्रकाश उदय होते ही विद्रूप उत्पन्न हो जायेगा। घृणा और तिरस्कार, निन्दा और निरादर की परिस्थितियाँ आते देर न लगेगी। व्यवस्था ही इस बात की द्योतक है कि लोग आपस में कितना विश्वास करते हैं। जो लोग मूर्ख बनाकर धोखादेही को ही जीवन का व्यापार मानते हैं, वे बड़ी भूल कर रहे हैं। यह अपने दायित्व के प्रति अकर्त्तव्य की भावना है, इससे किसी को किसी अच्छे परिणाम की आशा नहीं करनी चाहिए। सन्त इमर्सन का कथन है-”व्यापार-जगत में विश्वास व्यवस्था का यदि लोप हो जाये तो सारे मानव-समाज का ढाँचा ही अस्त व्यस्त हो सकता है।”

इस बात की सत्यता का अनुमान आज की परिस्थितियों से भली-भाँति लगाया जा सकता है। दुकानदार लोग दूसरों को ठगने और अधिक धन कमाने की गरज से दूध में पानी, घी में वनस्पति, खोये में आटा मिलाकर ग्राहक की जेब काट लेते हैं। थोड़ी देर के लिए इस पर उन्हें बड़ी प्रसन्नता होती है, किन्तु दूसरे दिन बच्चा बीमार हो जाता है तो डॉक्टर के पास जाता है। डॉक्टर भी सस्ते मूल्य की दवाएं महंगे चार्ज लेकर उससे अनुचित मुनाफा कमाता है। डॉक्टर को वकील, वकीलों को फर्नीचर वाले, फर्नीचर वालों को इनकम-टैक्स वाले, सारे के सारे एक ही जाल में बुरी तरह से जकड़े हैं। किसी को भी चैन नहीं मिल पाता। यह सारी अव्यवस्था इस कारण है कि लोगों में ईमानदारी की प्रवृत्ति नहीं रही और एक दूसरे को ठगने के कुचक्र में फँस कर सभी कोई घाटा उठा रहे हैं।

लोग समझते हैं कि दूसरों को धोखा देते रहना आसान है। इसे वे अपनी सफलता का आसान तरीका मानते हैं, किन्तु चालाकी देर तक छिपती नहीं। असलियत का अन्त में पता चल ही जाता है। समय पर “ढोल की पोल” खुले बिना रहती नहीं। जब सही स्थिति का पता चल जाता है, तो सभी उससे घृणा करने लगते हैं, दूर भागते हैं। सचाई और ईमानदारी का ही एक मार्ग “साँच को आँच” की कहावत के अनुसार उनका कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता। प्रारम्भ में सत्यशील लोगों को भले ही घाटा उठाना पड़े, किन्तु जब लोगों की नजर में उसका मूल्य चढ़ जाता है तो सम्मान भी मिलता है और सफलता भी। सत्य का मार्ग किसी भी प्रकार घाटे का सौदा नहीं कहा जा सकता।

सत्य की महिमा सदैव से ही गाई जाती रही है। शास्त्रकार ने लिखा है :-

अश्वमेध सहस्रञ्च सत्यञ्च तुलया धृतम्।

अश्वमेध सहस्राद्धि सत्यमेव विशिष्यते॥

“अश्वमेध फल और को सत्य को तौला गया। एक ओर हजार अश्वमेध यज्ञों के फल को रखा गया और दूसरी ओर एक सत्य के फल को तो सत्य का पलड़ा भारी रहा।”

सत्कर्म करने की प्रेरणा इसलिए दी जाती है कि इससे लोगों का नैतिक-विकास होता है। सच्चे आदमी का नैतिक बल इतना प्रबल होता है कि उसकी तुलना दस हजार हाथियों के बल के बराबर की जाती है। बड़ी-बड़ी बौद्धिक शक्तियाँ, मशीनी-ताकतें और मानवीय संगठन भी सत्य के समक्ष परास्त होते देखे गए हैं। हरिश्चंद्र की सत्यनिष्ठा के समक्ष विश्वामित्र को घुटने टेक देने पड़े, महात्मा गाँधी की वाणी में वह शक्ति थी कि ‘ब्रिटिश साम्राज्य’ जैसी शक्ति शाली सत्ता को भी हथियार डाल देने पड़े। गाँधीजी की वाणी सदैव सत्य से अनुप्राणित होती थी। मनुष्य की शक्ति , उसका व्यक्तित्व और उसकी महानता सभी उसकी सचाई में सन्निहित हैं, इसीलिए उसकी सर्वत्र प्रतिष्ठा भी की जाती है।

सत्य जीवन की कसौटी है। इसमें तपाया हुआ मनुष्य सोने जैसा खरा निकल आता है। परमात्मा का सान्निध्य सुख प्राप्त करने के सम्पूर्ण साधनों में सत्य का महत्व सर्वप्रथम है। प्रसिद्ध, सगुण-भक्त कवि- अब्दुर्रहीम खानखाना ने एक बड़ा ही मार्मिक दोहा प्रस्तुत किया है :-

साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।

जाके हिरदय साँच है, ताके हिरदय आप॥

अर्थात्- “परमात्मा वहीं निवास करता है, जहाँ सचाई होती है।” एक झूठ की तुलना तो सौ पापों के समान की गई है।

मनुष्य अपने जीवन में जितना ही अधिक सत्यता का समावेश करता जाता है, उसे उतना ही अधिक विराट-पुरुष की अनुभूति होने लगती है। वह शरीरों की विभिन्नता में, योनियों की विविधता में भी एक ही प्राण, एक ही चेतन आत्मा समाविष्ट हुआ देखता है। इससे उसकी दृष्टि अंतर्मुखी होने लगती है और आत्मिक महानतायें विकसित होने लगती हैं। इस संसार के बाह्य प्रयोजनों को वह सुविधा के और सहायक तो मानता है किन्तु इन्हें साध्य नहीं मानता। सत्य का साध्य है- विराट-पुरुष परमात्मा के दर्शन। इस भावना से वह अपनी व्यष्टि को समष्टिगत भावना में घुला देता है। इससे जीवन की दिशा ही बदल जाती है और मनुष्य दिन-दिन अधिक तेजी से अपने जीवन लक्ष्य की ओर अग्रसर होने लगता है। सत्य एक साधन है जो सरलता पूर्वक हमें परमात्मा के समीप पहुँचा देता है।

जब ऐसे प्रकाश का अन्तःकरण में उदय होता है तो आडम्बर का महत्व गिर जाता है। दूसरों में अपना प्रभाव पैदा करने, बड़प्पन दिखाने का भाव अब उसे तुच्छ प्रतीत होता है। सादगी ही उसका जीवन बन जाती है और विचारों में श्रेष्ठता आने लगती है। मानवता का यह प्रधान गुण है कि मनुष्य अपने विचारों का स्तर ऊँचा उठाये और लौकिक कामनाओं को बहुत छोटा मानकर केवल उन साधनों तक ही सीमित रहे जो केवल जीवन धारण के लिए पर्याप्त हों। महत्वाकाँक्षाओं की विपुलता ही मनुष्य को दिखावटीपन की ओर खींचती रहती है। इससे बचने का एक ही उपाय है कि हम इस विश्व की सत्यता को हर घड़ी अनुभव किया करें।

आकर्षण का मूल बिन्दु भी सत्य है। वाणी-सत्य के कारण अनावश्यक प्राण शक्ति का अपव्यय बचता है। ब्रह्मचर्य भी सत्य का एक अंग है। इससे शरीर स्वस्थ और निरोग रहता है। इसी प्रकार शरीर के जिस अवयव से हम प्राकृतिक उपभोग के अतिरिक्त अस्वाभाविक क्रियाओं का पालन नहीं करते तो हमारी शक्तियाँ बनी रहती हैं। शरीर में शक्ति धारण किये रहने से ही सौंदर्य स्थिर रहता है। यह भाव सत्य के अनुशीलन से ही हमारे अन्तःकरण में प्रादुर्भूत होता है।

जब इस प्रकार सत्य के प्रति निष्ठा और असत्य के प्रति घृणा का भाव आता है तो मानवीय मनोभूमि के रहस्य जानने की दिशा में प्रवृत्त होती है। अब प्रत्येक वस्तु के पैदा होने के कारण पर विचार प्रारम्भ करता है। रात में असंख्यों तारागण, दिन में सूर्य देवता की यात्रा, चन्द्रमा की कलाओं का पूर्ण दृश्य, पृथ्वी, पशु, पक्षी, वृक्ष, नदी, पहाड़, इन समस्त की रचना का सूक्ष्म विधान जानने की ओर प्रयुक्त हुआ। मन अन्ततोगत्वा, आत्मज्ञान की भूमिका में प्रवेश करता है। इससे उसमें अंतर्मुखी जागृत होती है। ऐसी अवस्था में यदि पर्याप्त ज्ञान बाह्य सहारा न भी मिले तो भी मनुष्य अपने मन में श्रेष्ठ संस्कार तो पैदा कर ही सकता है। यह शिक्षा पद्धति किसी आधुनिक शिक्षा-पद्धति से कम महत्वपूर्ण नहीं। जिसमें केवल साँसारिक विषयों के विवेचन की तार्किक कुशलता भरी हो, उस विद्या से आत्म-विद्या कहीं अधिक श्रेष्ठ है। इसके लिये बौद्धिक शिक्षा की उतनी आवश्यकता नहीं जान पड़ती जितना मानवीय अन्तःकरण में सत्य के समावेश की। श्रुति का कथन है :-

सत्य स्वतन्त्र रूप से साधन भी है और लौकिक व्यवहार में तप, ब्रह्मचर्य आदि विशेषण भी उसे ही बनना पड़ता है। मन, वाणी और कर्म की एकता सत्य के साँचे में ढालने से ही सर्वांगपूर्ण सत्य का ज्ञान होता है। मुंडकोपनिषद् में ऋषि ने सत्य की महिमा इस प्रकार बताई है :-

सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष आत्मा

समग्ज्ञानेन ब्रह्मचर्येण नित्यम।

अन्तः शरीरे ज्योतिर्मयो हि शुभ्रो

यं पश्यन्ति यतयः क्षीण दोषाः॥

(मु॰ 3। 1। 5)

“उस परमात्मा को जो सबके शरीर के भीतर हृदय में विराजमान है, जो विशुद्ध ज्ञान स्वरूप और सर्वथा निर्दोष है, उसे दोषों का शोधन करते हुये साधक जन सत्य-सम्भाषण, सत्य-तप और सत्य एवं ब्रह्मचर्य से उत्पन्न ज्ञान द्वारा ही जान सकते हैं।”

शक्ति और सामर्थ्य इसी सूक्ष्म दर्शिता के परिणाम स्वरूप प्राप्त होती है। किसी वस्तु को सही रूप में देखने का दृष्टिकोण जब प्राप्त होता है, उसको सम्पन्न करने की क्षमता तभी उत्पन्न होती है। जब तक किसी वस्तु के प्रति हमारा अनुमान सही नहीं निकलता, तब तक हम में उसे प्राप्त करने की सामर्थ्य भी नहीं होती। असफलता की आशंका बनी रहती है। इसलिए हमें सर्व प्रथम उस असीम सत्य के प्रति आस्थावान होना पड़ता है।

सच्चा व्यक्ति जहाँ भी जाता है अपने चरित्र और व्यक्तित्त्व की छाप दूसरों पर डाले बिना छोड़ता नहीं। वाक्-शक्ति के द्वारा लम्बे-चौड़े प्रवचन, कथा, उपदेश दिये जा सकते हैं किन्तु जिससे लोगों को प्रभावित किया जा सके और दूसरों को भी सन्मार्ग की दिशा में गतिमान् किया जा सके, उस शक्ति का नाम है सत्य। ऐसे लोगों का संपर्क चाहे वह दो घड़ी का ही क्यों न हो सारे जीवन भर भूलता नहीं।

सत्यवान् व्यक्ति कम बोलते हैं किन्तु उनकी वाणी में जो माधुर्य होता है उसका प्रभाव जादू जैसा पड़ता है। उनके व्यवहार में वह सरलता होती है, वह सम्मोहन होता है जो अनेकों दूसरों को खींच कर अपने पास बुला लेता है। सत्य के ईंट और गारे से बनी हुई जीवन की इमारत तेज तूफानों में भी सुदृढ़ खड़ी रहती है। बनावटीपन, ढोंग, छल और कपट के झोंपड़े तो थोड़ी-सी हवा चलते ही उखड़ कर दूर जा गिरते हैं। सचाई में ही वह बल होता है जो दूसरों को भी ऊँचे उठाता है। इस संसार में विजयी वे होते हैं जिनके जीवन सत्य से प्रकाशवान होते हैं। जीवन का प्राण और बल सत्य ही है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118