नारी समस्या का आध्यात्मिक हल

October 1964

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आज नारी के उत्थान, उसके विकास, समानाधिकार, उत्कर्ष की चारों ओर से आवाज उठाई जा रही है। धन में, पद में, शिक्षा-दीक्षा में, समाज के मंच पर, घर में, बाजार में, सब जगह नारी को पुरुषों के समान हक मिलने चाहिएं। ऐसा सभी विचारक, सुधारक, जन-नेता कहते हैं और वस्तुतः यह एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है। इस ओर प्रयत्न होंगे, होने ही चाहिए।

लेकिन क्या इससे ही मूल समस्या का समाधान हो जायगा? क्या इन तथ्यों से ही नारी और पुरुष के जीवन में एकता आ जायगी? इन प्रश्नों का उत्तर यदि हम इस सम्बन्ध में अब तक प्राप्त की गई सफलताओं में से ढूंढ़ें तो मालूम होता है कि मूल प्रश्न ज्यों का त्यों ही पड़ा हुआ है। आजकल हमारे यहाँ तथा संसार में बहुत जगह नारी को पुरुषों के साथ समानता के वैधानिक अधिकार मिल गये हैं और वे व्यवहार में भी आने लगे हैं लेकिन मूल रूप से नारी पुरुष से उतनी ही दूर है जितनी मध्ययुग में थी। अभी नारी हमारे सार्वजनिक जीवन का सहज अंग नहीं बन पाई है। नारी शब्द के साथ ही हमारे मन में एक विशेष भेदपूर्ण पदार्थ की कल्पना काम करने लगती है। पुरुष शब्द के उच्चारण पर हम कोई महत्व नहीं देते । उसे अपने समाज की सामान्य-सी बात समझकर सहज और गौण रूप में स्वीकार कर लेते हैं। लेकिन नारी के विषय में ऐसा नहीं है। हम उसे एक विजातीय-तत्व समझकर उसके आगे-पीछे, ऊपर-नीचे, आकार-प्रकार के बारे में दिमाग दौड़ाने लगते हैं। उसकी ओर आकर्षित होते हैं। उसे अपने से भिन्न पदार्थ समझकर उसकी समीक्षा करने लगते हैं।

बाह्य-जीवन में समानता के अनेकों अधिकार मिल जाने पर भी पुरुष और नारी के बीच भेद की स्थिति आज मूल रूप से बनी हुई है हम इस सम्बन्ध में एकता अभी नहीं कर पाये। बाजार में नित्य ही अनेकों पुरुष हमारी आँख के सामने होकर निकलते हैं लेकिन उसका हमारे मन, मस्तिष्क पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता लेकिन एक नारी को देखकर हम कौतूहल की तरह उसकी ओर घूर-घूरकर देखने लगते हैं। अच्छी बुरी भावना कुछ भी हो सकती है लेकिन एक विजातीय पदार्थ की तरह नारी और पुरुष के बीच आज भी असमानता की एक महत्वपूर्ण खाई बनी हुई है जिसे हमारी संवैधानिक एवं सामाजिक व्यवस्था भी पार नहीं कर पाई है।

यह समस्या सामाजिक अथवा राजनैतिक ढाँचे से परे है। इसका आधार आध्यात्मिक है। आन्तरिक है। बाहरी नहीं। यही कारण है कि नारी की समानता के अनेकों बाहरी प्रयत्न होते हुए भी नारी पुरुष से दूर ही है, एक विजातीय पदार्थ के रूप में। इसलिए नारी और पुरुष की समानता के लिए बाह्य प्रयत्नों के साथ-साथ हमें आध्यात्मिक प्रयत्न भी करने होगे, जिनके ऊपर ही नारी पुरुष की विभेदता का मूलाधार अवलम्बित है।

जब तक हम शरीर-भेद, लिंग-भेद द्वारा नारी और पुरुष का परिचय प्राप्त करते रहेंगे तब तक यह विभेदता कभी दूर नहीं हो सकती। पुरुष नारी को नारी समझेगा और नारी पुरुष को पुरुष। फिर समानता का आधार ही क्या रह जाता है? समानता का आधार आत्मा है जो स्त्री पुरुष दोनों में एक समान है। नारी और पुरुष ही नहीं यदि पुरुष-पुरुष के बीच भी शारीरिक आधार पर परिचय प्राप्त करने का प्रयत्न होगा तो वहाँ भी अनेकों भेदभाव, विकार जन्म ले लेंगे। इसलिए नारी और पुरुष में समानता पैदा करनी होगी तो हमें मानसिक आधार पर परिचय प्राप्त करना होगा। आत्मा के आधार पर मानना, समझना पड़ेगा। यदि हम किसी नारी को आत्मा की दृष्टि से देखेंगे तो हमारे उसके बीच भेद का कोई आधार ही नहीं मिलेगा। अपनी तरह उसकी भी आत्मा को समझकर उसे विश्वात्मा का सहज अंग जानकर शान्त रहेंगे।

यदि शारीरिक परिचय भी हो तो केवल सेवा, सहयोग, सद्भाव एवं स्नेह के लिए ही हो सकता है। वासना की दृष्टि से शरीर परिचय निकृष्ट है। शरीर से शरीर का सम्बन्ध सेवा, स्नेह एवं सहयोग के लिए होना चाहिए। लेकिन आत्मिक दृष्टिकोण विचलित न हो। अन्यथा शरीर संपर्क के साथ ही शरीर भेद की दृष्टि उत्पन्न होगी और उससे विकार पैदा होगा।

स्त्री पुरुष का मूल भेद शरीर आकृति के आधार पर है आत्मा के आधार पर नहीं, इसलिए शरीर-प्रधान दृष्टिकोण न रखकर हमें आत्मा का दृष्टिकोण बनाना पड़ेगा। यह जितना व्यापक बनेगा उतना ही नारी पुरुष के बीच की असमानता दूर होगी। जब तक हमारे समाज में शरीर परायणता को महत्व मिलता रहेगा तब तक नारी और पुरुष का भेद समाप्त नहीं होगा। नारी और पुरुष के बीच परिचय का आधार आत्मा ही हो तो समस्या मूल रूप से हल हो जाती है।

फिर भी जो लोग यह दृष्टिकोण बनाने में असमर्थ हैं, जो आत्म-दृष्टि प्राप्त करने की स्थिति में नहीं हैं, उनके लिए ऋषियों ने मनीषियों ने एक दूसरा सरल मार्ग बताया है। यदि नारी को आत्मा-रूप में नहीं जान सकते तो उसे मातृशक्ति के रूप में पूजा उपासना की प्रतिमा के रूप में देखें। यह मातृशक्ति सर्वत्र व्याप्त है, नारी तो केवल उसकी मूर्तिमान प्रतिमा ही है। हमारे यहाँ इसी मातृशक्ति की पूजा के रूप में अनेक देवियों की मूर्तियाँ बनी हुई हैं। दुर्गा, सरस्वती, लक्ष्मी, काली, षोडश मातृकायें, राधा, सीता, गौरी कितने ही रूपों में आज भी नारी के मातृ रूप की पूजा हम कर रहे हैं।

इसलिए आत्मा की दृष्टि के सिवा नारी को देखने समझने, परिचय प्राप्त करने का यदि कोई दूसरा मार्ग है तो वह है उसका पूजनीय मातृ-स्वरूप।

सीता के फेंके गये आभूषणों के बारे में पूछने पर लक्ष्मण राम से कहते हैं।

नाहं जानामि केयूरे नाहं जानामि कुण्डले।

नूपुरे त्वमि जानामि नित्यं पादाभिवन्दनात्॥

“हे भगवन्! केयूर, कुण्डल आदि मैं नहीं जानता हूँ। यदि कुछ जानता हूँ तो पैरों के उन नूपुरों को जिन्हें मैं माता की पदवन्दना के समय देखा करता था।”

कितना उत्कृष्ट उदाहरण है, नारी के प्रति पुरुष के दृष्टिकोण का। लक्ष्मण ने कभी सीता के जेवर, शरीर को सौंदर्य के रूप में देखा ही नहीं। सीता उनके लिए मातृशक्ति की साकार मूर्ति थी जिस की चरण वन्दना में ही वे लीन रहते थे।

जहाँ पुरुषों को अपना दृष्टिकोण बदलने की आवश्यकता है, अपनी भावनाओं में परिवर्तन करने के जरूरत है, वहाँ नारी जाति को भी अपनी धारणाओं, अपने विश्वासों में परिवर्तन करने की आवश्यकता है। नारी स्वयं अपने आपको पुरुषों से अलग एक भिन्न तत्व समझती है और शारीरिक आधार पर ही अपना परिचय प्राप्त करती है। जब तक नारी वस्त्रों में, बनाव शृंगार में, फैशन में, जेवर आभूषणों में अपना व्यक्तित्व देखती रहेगी, पुरुषों के लिए कामिनी बन कर उनकी वासनाओं की तृप्ति के लिए ही अपना जीवन समझती रहेगी, या खा पीकर घर की चहार दीवारी में पड़े रहना ही अपना आदर्श समझेगी तब तक कोई भी शक्ति , नियम, कानून उसका उद्धार नहीं कर सकेंगे।

अपने उद्धार के लिए नारी को स्वयं भी जागरुक होना पड़ेगा। अपने आपको आत्मा, वह आत्मा जो पुरुषों में भी है, समझना होगा। मातृत्व के महान पद की प्रतिष्ठा को पुनर्जीवित रखने के लिए उसे सीता, गौरी, मदालसा, देवी, दुर्गा, काली की-सी शक्ति , क्षमता और कर्त्तव्य का उत्तरदायित्व ग्रहण करना होगा। कामिनी-विलास की सामग्री न बन कर अपने आपको आदर्श-पूज्यनीय गुणों का आधार बनाना होगा तभी वह गिरी हुई अवस्था से उठ सकती है। समाज में अपना अधिकार पूर्ण स्थान प्राप्त कर सकती है।

पुरुष और नारी में असमानता पैदा करने के लिए नारी के पुनरुत्थान के लिए हमें इन आध्यात्मिक प्रश्नों को आध्यात्मिक आधार पर हल करना होगा, तभी हमारा उद्देश्य सफल हो सकता है।


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