प्राणमय कोश का अनावरण

October 1964

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प्राणमय कोश के अनावरण के लिए गत तीन वर्षों में तीन प्राणायाम बताये जा चुके हैं। सन् 61 के अक्टूबर अंक में ‘प्राणाकर्षण प्राणायाम’ सन् 62 में ‘लोम-विलोम सूर्य वेधन प्राणायाम’ और सन् 63 में ‘नाड़ी शोधन प्राणायाम’ के पाठ्यक्रम गायत्री उच्चस्तरीय पंचकोशी साधना करने वाले नैष्ठिक साधकों को बताये गए थे। इन तीनों को एक-एक वर्ष किया जाना था। साधकों ने वैसा ही किया भी है।

सामान्यतः नित्य उपासना करने के लिए बैठते समय प्रथम संध्या वन्दन के बाद कर्म (पवित्री करण, आचमन, शिखा बन्धन, सामान्य प्राणायाम, न्यास, पृथ्वी पूजन)करने चाहिएं। इसके बाद आह्वान, पूजन। इतना प्रारम्भिक कृत्य करने के पश्चात् सामान्यतः गायत्री जप आरम्भ कर दिया जाता है। पर पंचकोशी साधना के साधकों को जप से पूर्व पन्द्रह मिनट प्राणमय कोश की साधना भी आवश्यक होती है। पिछले वर्षों एक-एक ही प्रकार के प्राणायामों का अभ्यास करना होता था। इस वर्ष तीनों का सम्मिश्रित स्वरूप पाँच मिनट—कुल मिलाकर पन्द्रह मिनट करना होगा। विगत तीन वर्षों के तीनों प्राणायामों का उल्लेख यहाँ फिर किया जाता है, जिससे कि नये साधकों को उनका स्वरूप समझने और साधक क्रम आरम्भ करने में सुविधा हो।

1-प्रथम वर्ष का प्राणाकर्षण प्राणायाम—

(1)”प्रातःकाल नित्य कर्म से निवृत्त होकर पूर्वाभिमुख पालथी मार कर बैठिए। दोनों हाथ घुटनों पर रखिए। मेरुदण्ड सीधा रखिए। नेत्र बन्द कर लीजिए। ध्यान कीजिए कि अखिल आकाश में तेज और शक्ति से ओत-प्रोत प्राणतत्व व्याप्त हो रहा है। गरम भाप के, सूर्य के प्रकाश में चमकते हुए बादलों जैसी शक्ल के प्राण का उफान हमारे चारों ओर उमड़ता चला आ रहा है और उस प्राण उफान के बीच हम निश्चिन्त, शान्त-चित्त एवं प्रसन्न मुद्रा में बैठे हुए हैं।”

(2)”नासिका के दोनों छिद्रों से धीरे-धीरे साँस खींचना आरम्भ कीजिए और भावना कीजिए कि प्राणतत्व के उफनते हुए बादलों को हम अपनी साँस द्वारा भीतर खींच रहे हैं। जिस प्रकार पक्षी अपने घोंसले में, साँप अपने बिल में प्रवेश करता है, उसी प्रकार वह अपने चारों ओर बिखरा हुआ प्राण-प्रवाह हमारी नासिका द्वारा साँस के साथ शरीर के भीतर प्रवेश करता है और मस्तिष्क, छाती, हृदय, पेट, आँतों से लेकर समस्त अंगों में प्रवेश कर जाता है।”

(3) “जब साँस पूरी खिंच जाय तो उसे भीतर रोकिये और भावना कीजिए कि—”जो प्राणतत्व खींचा गया है, उसे हमारे भीतरी अंग-प्रत्यंग सोख रहे हैं। जिस प्रकार मिट्टी पर पानी डाला जाय तो वह उसे सोख जाती है, उसी प्रकार अपने अंग सूखी मिट्टी के समान हैं और जलरूपी इस खींचे हुए प्राण को सोख कर अपने अन्दर सदा के लिए धारण कर रहे हैं। साथ ही प्राणतत्व में सम्मिश्रित चैतन्य, तेज, बल, उत्साह, साहस, धैर्य, पराक्रम सरीखे अनेक तत्व हमारे अंग-प्रत्यंग में स्थिर हो रहे हैं।”

(4) “जितनी देर साँस आसानी से रोकी जा सके उतनी देर रोकने के बाद धीरे-धीरे साँस बाहर निकालिए, साथ ही भावना कीजिए कि प्राणवायु का सारतत्व अब वैसा ही निकम्मा वायु बाहर निकाला जा रहा है जैसा कि मक्खन निकाल लेने के बाद निस्साद दूध हटा दिया जाता है। शरीर और मन में जो विकार थे वे सब इस निकलती हुई साँस के साथ घुल गये हैं और काले धुएं के समान अनेक दूषणों को लेकर वह बाहर निकल रहे हैं।”

(5)”पूरी साँस बाहर निकल जाने के बाद कुछ देर बाहर साँस रोकिए अर्थात् बिना साँस के रहिए और भावना कीजिए कि अन्दर के जो दोष बाहर निकाले गये थे, उनको वापिस न लौटने देने की दृष्टि से दरवाजा बन्द कर दिया गया है और वे बहिष्कृत होकर हमसे बहुत दूर उड़े जा रहे हैं।”

“इस प्रकार पाँच अंगों में विभाजित इस प्राणाकर्षण प्राणायाम को नित्य ही जप से पूर्व करना चाहिए। आरम्भ 5 प्राणायाम से किया जाय। अर्थात् उपरोक्त क्रिया पाँच बार दुहराई जाय। इसके बाद हर महीने एक प्राणायाम बढ़ाया जा सकता है। यह प्रक्रिया धीरे-धीरे बढ़ाते हुए एक वर्ष में आधा घण्टा तक पहुँचा देनी चाहिए।”

2-लोम-विलोम सूर्य वेधन प्राणायाम

प्रथम वर्ष में उपरोक्त प्राणाकर्षण प्राणायाम सिखाया गया था और द्वितीय वर्ष में लोभ-विलोम सूर्य भेदन प्राणायाम का अभ्यास बताया गया था, जिसकी पद्धति निम्न प्रकार है :—

(1) किसी शान्त एकान्त स्थान में प्रातः काल स्थिर चित्त होकर बैठिए। पूर्व की ओर मुख, पालथी मारकर सरल पद्मासन से बैठना, मेरुदण्ड सीधा, नेत्र अधखुले, घुटनों पर दोनों हाथ। यह प्राण मुद्रा कहलाती है, इसी पर बैठना चाहिए।

(2) बाएँ हाथ को मोड़कर तिरछा कीजिए। उसकी हथेली पर दाहिने हाथ की कोहनी रखिए। दाहिना हाथ ऊपर उठाइए। अँगूठा दाहिने नथुने पर और मध्यमा तथा अनामिका उँगलियाँ बाएं नथुने पर रखिए।

(3) बाएं नासिका के छिद्र को मध्यमा (बीच की) और अनामिका (तीसरे नम्बर की) उँगली से बन्द कर लीजिए। साँस फेफड़े तक ही सीमित न रहे, उसे नाभि तक ले जाना चाहिए और धीरे-धीरे इतनी वायु पेट में ले जानी चाहिए, जिससे वह पूरी तरह फूल जाय।

(4) ध्यान कीजिए कि सूर्य की किरणों जैसा प्रवाह वायु में सम्मिश्रित होकर दाहिने नासिका छिद्र में अवस्थित पिंगला नाड़ी द्वारा अपने शरीर में प्रवेश कर रहा है और उसकी ऊष्मा अपने भीतरी अंग प्रत्यंगों को तेजस्वी बना रही है।

(5) साँस को कुछ देर भीतर रोकिये। दोनों नासिका छिद्र बन्द कर लीजिए और ध्यान कीजिए कि नाभि चक्र में प्राण वायु द्वारा एकत्रित हुआ तेज नाभि चक्र में एकत्रित हो रहा है। नाभि स्थल में चिरकाल से प्रसुप्त पड़ा हुआ सूर्य चक्र इस आगत प्रकाशवान प्राण वायु से प्रभावित होकर चमकीला हो रहा है और उसकी दमक बढ़ती जा रही है।

(6) दाहिने नासिका छिद्र को अँगूठे से बन्द कर लीजिए। बायाँ खोल दीजिए। साँस को धीरे-धीरे बाएं नथुने से बाहर निकालिए और ध्यान कीजिए कि चक्र को सुषुप्त और धुँधला बनाये रहने वाले कल्मष इस छोड़ी हुई साँस के साथ बाहर निकल रहें हैं। इन कल्मषों के मिल जाने के कारण साँस खींचते समय जो शुभ्र वर्ण तेजस्वी प्रकाश भीतर गया था वह अब मलीन हो गया और पीत वर्ण होकर साँस के साथ बाएं नथुने की इड़ा नाड़ी द्वारा बाहर निकल रहा है।

(7) दोनों नथुने फिर बन्द कर लीजिए।

फेफड़ों को बिना साँस के खाली रखिए। ध्यान कीजिए कि बाहरी प्राण बाहर रोक दिया गया है। उसका दबाव भीतरी प्राण पर बिलकुल भी न रहने से वह हल्का हो गया है। नाभि चक्र में जितना प्राण सूर्य पिण्ड की तरह एकत्रित था, वह तेज-पुँज की तरह ऊपर की ओर अग्नि शिखाओं की तरह ऊपर उठ रहा है। उसकी लपटें पेट के ऊर्ध्व भाग, फुफ्फुस को बेधती हुई कण्ठ तक पहुँच रही हैं। भीतरी अवयवों में सुषुम्ना नाड़ी में से प्रस्फुटित हुआ यह प्राण-तेज अन्तः प्रदेश को प्रकाशमान बना रहा है।

(8) अँगूठे से दाहिना छिद्र बन्द कीजिए और बाएं नथुने से साँस खींचते हुए ध्यान कीजिए कि इड़ा नाड़ी द्वारा सूर्य प्रकाश जैसा प्राणतत्व साँस से मिलकर शरीर में भीतर प्रवेश कर रहा है और वह तेज सुषुम्ना विनिर्मित नाभिस्थल के सूर्य चक्र में प्रवेश करके वहाँ अपना भण्डार जमा कर रहा है। इस तेज सञ्चय से सूर्यचक्र क्रमशः अधिक तेजस्वी बनता चला जा रहा है।

(9) दोनों नासिका छिद्रों को बन्द कर लीजिए। साँस को भीतर रोकिए। ध्यान कीजिए कि साँस के साथ एकत्रित किया हुआ तेजस्वी प्राण नाभि स्थित सूर्यचक्र में अपनी तेजस्विता को चिर-स्थायी बना रहा है। तेजस्विता निरन्तर बढ़ रही है और यह अपनी लपटें पुनः ऊपर की ओर अग्नि शिखा की तरह ऊर्ध्वगामी बना रही है। इस तेज से सुषुम्ना नाड़ी निरन्तर परिपुष्ट हो रही है।

(10) बायाँ नथुना बन्द कीजिए और दाहिने से साँस धीरे-धीरे बाहर निकालिये। ध्यान कीजिए कि सूर्य चक्र का कल्मष धुएं की तरह तेजस्वी साँस में मिलकर उसे धुँधला पीला बना रहा है और पीली प्राण-वायु पिंगला नाड़ी द्वारा बाहर निकल रही है। भीतरी कषाय कल्मष बाहर निकालने से अन्तःकरण बहुत हल्का हो रहा है।

(11) दोनों नासिका छिद्रों को पुनः बन्द कीजिए और उपरोक्त नं॰ 6 की तरह फेफड़ों को साँस से बिल्कुल खाली रखिए। नाभि चक्र से कण्ठ तक सुषुम्ना का प्रकाश पुञ्ज ऊपर उठता देखिए। भीतरी अवयवों में दिव्य ज्योति जगमगाती अनुभव कीजिए।

यह एक लोम-विलोम सूर्य वेधन प्राणायाम हुआ। साँस के साथ खींचा हुआ प्राण नाभि में स्थित सूर्य चक्र को जागृत करता है। उसके आलस्य और अन्धकार को बेधता है और वह सूर्यचक्र अपनी परिधि का वेधन करता हुआ सुषुम्ना मार्ग से उदर, छाती और कण्ठ तक अपना तेज फेंकता है। इन कारणों से इसे सूर्य वेधन कहते हैं। लोम कहते हैं सीधे को, विलोम कहते हैं उल्टे को। एक बार सीधा, एक बार उल्टा। फिर उल्टा, फिर सीधा। फिर उल्टा, फिर सीधा। बाएं से खींचना, दांये से निकालना। दाहिने से खींचना बायें से निकालना। यह उल्टा सीधा चक्र रहने से इसे लोम-विलोम कहते हैं। प्राणायाम की प्रकृति के अनुसार इसे लोम-विलोम सूर्य-वेधन प्राणायाम कहा जाता है।

3-तीसरे वर्ष के लिए ‘नाड़ी शोधन प्राणायाम’

(1) प्रातःकाल पूर्व को मुख करके कमर सीधी रखकर सुखासन से—पालथी मार कर बैठिये। नेत्रों को अधखुले रखिए।

(2) दाहिना नासिका छिद्र बन्द कीजिए। बांए छिद्र से साँस खींचिए और उसे नाभि चक्र तक खींचते जाइए।

(3) ध्यान कीजिए कि नाभि स्थान में पूर्णिमा के पूर्ण चन्द्रमा के समान पीतवर्ण शीतल प्रकाश विद्यमान है। खींचा हुआ साँस उसे स्पर्श कर रहा है।

(4) जितने समय में साँस खींचा गया था, उतने ही समय भीतर रोकिये और ध्यान करते रहिए कि नाभिचक्र में स्थित पूर्ण चन्द्र के प्रकाश को खींचा हुआ श्वास स्पर्श करके स्वयं शीतल और प्रकाशवान् बन रहा है।

(5) जिस नथुने से साँस खींचा था, उसी बांये छिद्र से ही साँस बाहर निकालिये और ध्यान कीजिए कि नाभिचक्र के चन्द्रमा को छूकर वापिस लौटने वाली प्रकाशवान् एवं शीतल वायु इड़ा नाड़ी की छिद्र नलिका को शीतल एवं प्रकाशवान् बनाती हुई वापिस लौट रही है।

(7) कुछ देर साँस बाहर रोकिए और फिर उपरोक्त किया आरम्भ कीजिए। बायें नथुने से ही साँस खींचिए और उसी से निकालिए। दाहिने छिद्र को अँगूठे से बन्द रखिए। इसी को तीन बार कीजिए।

(9) जिस प्रकार बायें नथुने से पूरक, कुम्भक, रेचक, बाह्य कुम्भक किया था, उसी प्रकार दाहिने नथुने से भी कीजिए। नाभिचक्र में चन्द्रमा के स्थान पर सूर्य का ध्यान कीजिए और साँस छोड़ते समय भावना कीजिए कि नाभि स्थित सूर्य को छूकर वापिस लौटने वाली वायु श्वास नली के भीतर ऊष्णता और प्रकाश उत्पन्न करती हुई लौट रही है।

(10) बायें नासिका स्वर को बन्द रखकर दाहिने छिद्र से भी इस क्रिया को तीन बार कीजिए।

(11) अब नासिका के दोनों छिद्र खोल दीजिए। दोनों से साँस खींचिए और भीतर रोकिए और मुँह खोल कर साँस बाहर निकाल दीजिए। यह विधि एक बार ही करनी चाहिये।

तीन बार बायें नासिका छिद्र से साँस खींचते और छोड़ते हुये नाभि चक्र में चन्द्रमा का शीतल ध्यान, तीन बार दाहिने नासिका छिद्र से साँस खींचते छोड़ते हुए सूर्य का उष्ण प्रकाश वाला ध्यान, एक बार दोनों छिद्रों से साँस खींचते हुए मुख से साँस निकालने की क्रिया यह सात विधान मिलकर एक नाड़ी-शोधन प्राणायाम बनता है।

शक्ति संचार साधना

प्राणमय कोश के अनावरण की साधना से शक्ति संचारक साधना क्रम का विशेष महत्व है। इस साधना के माध्यम से हिमालय स्थित गायत्री के परम सिद्ध देवपुरुषों की शक्ति एवं सहायता प्राप्त की जा सकती है। इस साधना क्रम में भी कोई विशेष परिवर्तन इस वर्ष नहीं है।

यह प्रवाह रविवार और गुरुवार को सूर्य उदय होने से एक घण्टा पूर्व से आरम्भ होकर ठीक सूर्य उदय होने पर बन्द हो जाता है। इसलिए उस एक घण्टे की अवधि में से अपनी सुविधा का आधा घण्टा अपनी साधना के लिये नियत रखा जा सकता है।

उपरोक्त दोनों दिन सायं काल यह प्रवाह 9 से 10 बजे तक चलता है। जिन्हें प्रातः अवकाश न मिलता हो तो सायंकाल की शक्ति संचार साधना कर सकते हैं। यह सप्ताह में एक बार ही आधा घण्टा की जाती है। रविवार गुरुवार में से प्रातः या रात को जो भी आधा घण्टा अपनी सुविधा का हो उसे नियत कर लेना चाहिए और फिर उसी क्रम को साल भर तक चलाते रहना चाहिये।

शक्ति संचार साधना का क्रम

पालथी मारकर, मेरु दण्ड सीधा रखकर, नेत्रों को अधखुले रखकर ध्यान मुद्रा में बैठिए। दोनों हाथों को घुटनों पर रखिए। उत्तर दिशा में मुँह कीजिये।

भावना कीजिए कि हिमालय के उच्च शिखर से कोई दिव्य शक्ति हमें आशीर्वाद, प्रेरणा और प्रोत्साहन भरा प्राण-प्रवाह हमारे लिये भेज रही है और हम उसे श्रद्धापूर्वक अपने अन्तः प्रदेश में धारण कर रहे है।

धारणा कीजिए कि अन्तरिक्ष से एक शुभ्र पीत आभा वाला, भाप के बादलों जैसा प्राण-प्रवाह उमड़ता चला आता है। धुनी हुई रुई या हलकी बरफ या दूध के झाग सरीखी एक मृदुल विद्युत-धारा अपने चारों ओर फैली हुई है। कुहरे की तरह उसने हमारी सब ओर की परिधि घेर ली है और हम उसके मध्य बैठे हुये आनन्द एवं उल्लास का अनुभव कर रहे हैं।

ध्यान कीजिये कि किसी दिव्य चेतना द्वारा प्रेरित प्राण-प्रवाह अपने सब इन्द्रिय-छिद्रों के रोम-कूपों द्वारा शरीर के भीतर प्रवेश करके अपने अंग प्रत्यंगों में संव्याप्त हो रहा है। उस प्रवाह के साथ-साथ अपने भीतर उच्च आस्था, श्रेष्ठ श्रद्धा, आशा, उत्साह, उदारता, दया, विवेक, आनन्द- उल्लास, नीति, धर्म, त्याग, संयम, परमार्थ आदि की उच्च-भावनाएँ भी धुली चली आ रही है और उन्हें उपलब्ध करके अपना अन्तःकरण महापुरुषों जैसा उदार, महान, दूरदर्शी एवं आदर्शवादी बन रहा है।

विश्वास कीजिये कि यह प्रवाह ईश्वरीय हैं। ऋषियों जैसी पवित्रता इसमें ओत-प्रोत है। यह शक्ति अपने भीतर प्रविष्ट होकर परमात्मा का पुण्य प्रकाश उत्पन्न कर रही है।

शक्ति संचार का यह बहुमूल्य क्रम जिन लोगों ने गत वर्ष नियमित रूप से अपनाया है, उनकी आशाजनक आत्मिक प्रगति हुई है। शरीर, मन और आत्मा पर इस शक्ति संचार का आश्चर्यजनक लाभ साधकों ने पिछले वर्षों अनुभव किया है। इस महान लाभ से किसी को वंचित नहीं रहना चाहिये।

प्रतिदिन तीनों प्राणायामों का सम्मिलित अभ्यास तथा शक्ति संचार साधनों का सप्ताह में एक बार आधा घण्टा, यह क्रम चलाते रहने से प्राणमय कोश के जागरण में आशाजनक सफलता मिलती है। साधक की प्राण शक्ति बढ़ती है। उसका साहस, धैर्य, पौरुष और प्राण तेज कई गुना अधिक बढ़ जाता है।


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