जीवन का कुछ उद्देश्य भी तो हो

October 1964

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मनुष्यों और पशु-पक्षियों की तुलना करते हुए शास्त्रकार ने लिखा है-”ज्ञानं हि तेषाँधिको विशेषः।” अर्थात् आहार-विहार, भय, निद्रा, कामेच्छा की दृष्टि से मनुष्य और पशु में कोई विशेष अन्तर नहीं पाया जाता । शारीरिक बनावट में भी कोई बड़ी असमानता दिखाई नहीं पड़ती। खाने-पीने, चलने, उठने, बैठने, बोलने, मल-मूत्र त्याग के सभी साधन पशु और मनुष्यों को प्रायः एक जैसे ही मिले हैं। पर मनुष्य में कुछ विशेषतायें इन प्राणियों से भिन्न हैं। उसकी रहन-सहन की रुचि, उचित-अनुचित का भय, भाषा-भाव आदि कितनी ही विशेषतायें यह सोचने को विवश करती हैं कि वह इस सृष्टि का श्रेष्ठ प्राणी है। उसकी रचना किसी उद्देश्य पर आधारित है। इन सम्पूर्ण विशेषताओं का कारण उसका ज्ञान है। साधारण तौर पर शरीर यात्रा चलाने और मन को प्रसन्न करने की क्रिया पशु भी करते हैं किन्तु इसके पीछे उनका कोई विधिवत् विचार नहीं होता। यह कार्य वे अपनी अन्तः प्रेरणा से किया करते हैं। उनके जीवन में जो अस्तव्यस्तता दिखाई देती है उससे प्रकट होता है कि उन्हें उचित अनुचित का ज्ञान नहीं होता।

मनुष्य का प्रत्येक कार्य विचारों से प्रेरित होता है। यह भी कहा जा सकता है कि मनुष्य को विचार शक्ति इसलिये मिली है कि उचित अनुचित को ध्यान में रख कर वह सृष्टि संचालन की नियमित व्यवस्था बनाये रखने में प्रकृति को सहयोग देता रहे। जो केवल खाने-पीने और मौज उड़ाने की ही बात सोचते हैं। इसी को जीवन का श्रेय मानते हैं उनमें और मनुष्येत्तर पशुओं, पक्षियों और कीट-पतंगों में अन्तर कहाँ रहा? यह क्रियायें तो पशु भी कर लेते हैं।

विचार-बल संसार का सर्व श्रेष्ठ बल है। विचार शक्ति का सूचक है। पशु निर्विचार होते हैं इसलिये वे परस्पर अपनी भावनाओं का आदान-प्रदान नहीं कर सकते, उनकी कोई लिपि नहीं, भाषा नहीं। किसी प्रकार का संगठन बना कर अपने प्रति किये जा रहें, अत्याचारों का वे प्रतिवाद नहीं कर सकते। इसीलिए शारीरिक शक्ति में मनुष्य से अधिक सक्षम होते हुए भी वे पराधीन हैं। विचार शक्ति के अभाव में उनका जीवन क्रम एक बहुत छोटी सीमा में अवरुद्ध बना पड़ा रहता है।

विश्रृंखलित, ऊबड़-खाबड़ धरती को क्रम बद्ध व सुसज्जित रूप देने का श्रेय मनुष्य को है। घर, गाँव, शहर, देश आदि की रचना सुविधा और व्यवस्था की दृष्टि से कितनी अनुकूल है। अपनी इच्छायें, भावनायें दूसरों से प्रकट करने के लिए भाषा-साहित्य और लिपि की महत्ता किससे छिपी है। आध्यात्मिक अभिव्यक्ति और साँसारिक आह्लाद प्राप्त करने के लिए कला-कौशल, लेखन, प्रकाशन की कितनी सुविधायें आज उपलब्ध हैं। यह सब मनुष्य की विचार शक्ति का परिणाम है। मनुष्य को ज्ञान न मिला होता तो वह भी रीछ, बन्दरों की तरह जंगलों में घूम रहा होता। सृष्टि को सुन्दर रूप मिला है तो वह मनुष्य की विचार-शक्ति का ही प्रतिफल है। विचारों का उपयोग निःसन्देह अतुल्य है।

विचारों की विशिष्ट शक्ति का स्वामी होते हुए भी मनुष्य का जीवन निरुद्देश्य दिखाई दे तो इसे दुर्भाग्य ही कहा जायेगा। जिसके कार्यों में कोई सूझ न हो, विशिष्ट आधार न हो, उस जीवन को पशु-जीवन कहें तो इसमें अतिशयोक्ति क्या है। हवाई जहाज निराधार आकाश में उड़ता है। अभीष्ट स्थान तक पहुँचने का उसे निर्देश न मिलता रहे तो वह कहीं से कहीं भटक जायेगा। कुतुबनुमा की सुई वायुयान चालक को बताती रहती है कि उसे किस दिशा में चलना है। इस निर्देश के आधार पर ही वह सैंकड़ों मील का रास्ता पार कर लेता है। प्रत्येक प्राकृतिक पदार्थ किसी न किसी उद्देश्य से निर्मित है। सूर्य प्रतिदिन आसमान में आता है और लोगों को प्रकाश, गर्मी और जीवन देने का अपना लक्ष्य पूरा करता रहता है। वृक्ष, वनस्पति, वायु-जल, समुद्र, नदियाँ सभी किसी न किसी लक्ष्य को लेकर चल रहे हैं। इस संसार में यह व्यवस्था तभी तक है जब तक प्रत्येक वस्तु, प्रत्येक पदार्थ अपनी अवस्था के अनुसार अपने कर्तव्य कर्म पर स्थिर है।

मानव-जीवन की महत्ता इस पर है कि हम वर्तमान साधनों का उपयोग अंतर्दर्शन या आत्म-ज्ञान प्राप्ति के लिए करें। उद्देश्य का मार्ग बहुधा किसी विशिष्ट दिशा की ओर ही होता है। प्रकृति जिस ओर ले जाना चाहे उधर ही चलते रहें तो इन प्राप्त शक्तियों की सार्थकता कहाँ रही? जैसा जीवन दूसरे प्राणी जीते हैं वैसा ही हम भी जियें तो विचारशीलता का महत्व क्या रहा? बुद्धि की सूक्ष्मता, आध्यात्मिक अनुभूतियाँ, विराट की कल्पना आदि, ठीक वायुयान का मार्ग-दर्शन करने वाले कुतुबनुमा की सुई के समान है, जिससे मनुष्य चाहे तो अपना उद्देश्य पूरा करने का निर्देशन प्राप्त कर सकता है। उद्देश्य कभी श्रमहीन और मात्र साँसारिक नहीं हो सकते। जिन साधनों से इहलौकिक रसानुभूति मिलती है वे केवल मानव-जीवन की सरसता और श्रेष्ठता को कायम रखने के अतिरिक्त और कुछ अधिक नहीं होते। इन्हीं के पीछे पड़े रहें तो अपना वास्तविक लक्ष्य-जीवन लक्ष्य-पूरा न हो सकेगा।

यदि यह विचार बना लिया कि हमारा उद्देश्य जीवन-मुक्ति है तो अभी से इसकी पूर्ति में लग जाइए। एक बार लक्ष्य निर्धारित कर लेने के बाद अपनी सम्पूर्ण चेष्टाओं को उसमें जुटा दीजिए। अपने धैर्य से विचलित न हों, जो राह पकड़ी है उस पर दृढ़तापूर्वक चलते रहें। तब देखें कि आप कितनी शीघ्रता से अपना जीवन-लक्ष्य प्राप्त कर सकते हैं।

“न निश्चिन्तार्था द्विरमन्ति धीरः।” अर्थात्- महापुरुषों का यह प्रधान सद्गुण है कि वे अपने जीवन उद्देश्य से कभी डिगते नहीं। महापुरुषों के जीवन में उद्देश्य की एकता और तल्लीनता, लगन और तत्परता इस ऊँचे दर्जे तक पाई जाती है कि वह पाठक के अन्तःस्थल को झकझोरे बिना मानती नहीं। आपकी महानता की कसौटी भी इसमें है कि आप अपने लक्ष्य के प्रति कितने आस्थावान् हैं? उसकी पूर्ति के लिये आप कितना त्याग और बलिदान करते हैं?

उद्देश्य बना लेना ही पर्याप्त नहीं हो सकता। यह भी परखना पड़ेगा कि आपका ध्येय कितना मूल्यवान है। उद्देश्य उच्च न हुआ तो परिस्थिति बदलते ही उस विचारणा का बदल जाना भी सम्भव है। असाधारण लक्ष्यों में ही वह शक्ति होती है जो मनुष्य को नियमित प्रेरणा देती रहे और उसे उत्साह से ओत प्रोत रखती रहे। मंजिल तक पहुँचने में जो बाधाएँ आती हैं उनसे संघर्ष करने और धैर्यपूर्वक अन्त तक डटे रहने की क्षमता लक्ष्य की उत्कृष्टता से ही सम्भव होती है।

आत्म-कल्याण के उद्देश्य की पूर्ति के लिए उच्च गुणों की आवश्यकता पड़ती है। बहुतेरे कष्ट उठाने होते हैं अपने को संकट में डालना पड़ता है। यह बात सच है कि कष्ट सहन करते-करते असाधारण सहिष्णुता उत्पन्न हो जाती है किन्तु आरम्भ में मानवोचित साहस का परिचय तो देना ही पड़ता है। लोभ, मोह, मद, मत्सर, काम और क्रोध के प्रबल मनोविकार भी अपना हथियार चलाने से बाज नहीं आते। इन सब आघातों को धैर्यपूर्वक, ध्येय सिद्धि तक सहन करना पड़ता है। जो इस निश्चय में दृढ़ हो जाता है। “देहं वा पातयेत् कार्यं वा साधयेत्” अर्थात् सिद्धि या मृत्यु ही जिनका सिद्धान्त बन जाता है वे ही अन्त तक लक्ष्य प्राप्ति के दुर्गम पथ पर टिके रहते हैं। ऐसे लोगों को ही सफलता के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त होता है।

इसमें सन्देह नहीं है कि जीवन-लक्ष्य प्राप्ति कठिन प्रक्रिया है किन्तु इस प्रकार उद्देश्य संरक्षण से ही मनुष्य का नैतिक विकास होता है। जो अपने शरीर और मन को कष्टपूर्ण कसौटी में भली भाँति कस लेते हैं उन्हीं का चरित्र उज्ज्वल बनता है। नैतिक विकास और चारित्रिक संगठन ही आध्यात्म का विशुद्ध उद्देश्य है। विकारों को दूर करना और सद्गुणों का अभिवर्द्धन ही धर्म है। इसलिए आध्यात्मिक, धार्मिक एवं नैतिक विकास के साधकों को सर्व प्रथम अपना जीवन-लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए। उद्देश्य की आँच पर तपाई हुई आत्मायें ही संसार का कुछ कल्याण कर सकती है। “उद्देश्य हीना पशुभिः समाना :- अर्थात् जिनके जीवन का कोई उद्देश्य नहीं उनमें और पशुओं में कोई अन्तर नहीं होता।


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