हनुमान जी को पूजिए पर वैसे ही बनिए भी

October 1964

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संसार सागर की यात्रा के लिए हमारा शरीर एक नाव है। शरीर के ऊपर हमारा पार उतरना या डूब जाना, बहुत कुछ निर्भर करता है। जिस तरह छिद्रयुक्त , जीर्ण-शीर्ण, कमजोर नाव से चंचल, गतिशील, संघर्षयुक्त जल धारा को पार करना कठिन है उसी तरह रोगी, निर्बल, असमर्थ शरीर से जीवन यात्रा भली प्रकार पूरी करना सम्भव नहीं होता। विजय, सफलता, आनन्द, उल्लासमय जीवन बहुत कुछ स्वस्थ एवं बलवान शरीर पर निर्भर करता है। शरीर मनुष्य के लिए एक ऐसी ईश्वरीय देन है जिस के अभाव की पूर्ति संसार में अन्य कोई भी वस्तु नहीं कर सकती।

हृदय बुद्धि जैसे महत्वपूर्ण उपकरण भी अपना अस्तित्व-सतेज स्वस्थ शरीर में ही कायम रख सकते हैं। शरीर के अस्वस्थ होते ही बुद्धि मंद हो जाती है। विवेक जाता रहता है। हृदय अपना आनन्द संगीत बन्द कर देता है। मनुष्य के लिए शेष रह जाती है जीवन की भयानकता, कठोरता, अशान्ति, क्लेश, अपमान। वह जीवित होते हुए भी मृत तुल्य हो जाता है।

हमारा शरीर उस शीशे के ग्लोब की तरह है जिसके माध्यम से लालटेन की दीप शिखा अपनी ज्योति बाहर प्रकट करती है। गन्दा, कालिख, धुयें से खराब शीशा रोशनी को भली प्रकार बाहर प्रकट नहीं होने देता। जीर्ण-शीर्ण कमजोर शरीर भी आत्म ज्योति की प्रकाश किरणों को संसार में व्यक्त होने नहीं देता। स्वस्थ एवं तेजस्वी शरीर ही आत्मा के तेजस्वी प्रकाश को धारण करके जीवन को आभामय-ज्योतिर्मय बना सकता है।

शास्त्रकार ने शरीर को ही सब धर्मों का साधन बताते हुए कहा है “ शरीर माद्यं खलु धर्मसाधनम् !” स्वस्थ शरीर के द्वारा ही जीवन और जगत के धर्म-कर्त्तव्यों का भार वहन किया जा सकता है। वस्तुतः बिना मजबूत शरीर के न हम किसी का ऋण चुका सकते, न अपना कर्त्तव्य पूर्ण कर सकते हैं। दुर्बल शरीर से न किसी की सेवा ही हो सकती है। शरीर आत्मा का मन्दिर है। बापू ने कहा है “शरीर आत्मा के रहने की जगह होने से तीर्थ जैसा पवित्र है।” आवश्यकता इस बात की है कि हम इसे तीर्थ की तरह ही स्वच्छ-सुन्दर विकारशून्य बनाने का प्रयत्न करें।

शरीर के माध्यम से ही जीवन और जगत का सौंदर्य आनन्द लाभ किया जा सकता है। शरीर में जब भरपूर उछल-कूद, मन में अपार उत्साह होता है तो यह संसार क्रीड़ा भूमि सा दीखता है। स्वर्ग लगने लगता है। और जब शरीर असमर्थ अयोग्य बलहीन हो जाता है तो यह संसार नरक तुल्य जान पड़ता है। जीवन भार स्वरूप लगने लगता है। पाश्चात्य विद्वान बीचर ने कहा है “शरीर वीणा है और आनन्द संगीत। यह जरूरी है कि यन्त्र दुरुस्त रहे।” आनन्द का संगीत स्वस्थ शरीर में ही स्पन्दित होने लगता है।

शरीर का रोगी जीर्ण-शीर्ण, कमजोर होना अपने आप में एक बहुत बड़ा पाप है। जार्ज बर्नार्डशा ने कहा है “यदि कोई बीमार पड़ेगा तो मैं उसे जेल भेज दूँगा।” बीमारी सजा है प्रकृति के नियमों का उल्लंघन करने की। रोगी होना अपने आप में अपराधी होना है। मुख्यतया मनुष्य की अपनी भूलें, वे परिस्थितियाँ जिनमें वह रहता है और जिनके निर्माण में खास तौर से वह स्वयं ही उत्तरदायी है, मुख्य होती हैं। रोगी हो जहाँ मनुष्य अपने लिए नरक या जीवन का द्वार खोलता है वहाँ समाज की उन्नति में भी बाधा पहुँचाता है। क्योंकि एक ओर तो वह व्यक्ति समाज के लिए जो कुछ करता वह रुक जाता है, दूसरे अन्य लोगों का समय-श्रम-धन रोगी के लिए लगने लगता है। परिवार के लोगों में चिन्ता फैलती है।

स्वस्थ बलवान शरीर फटे कपड़ों में भी सुन्दर लगता है। रोगी और निस्तेज व्यक्ति सुन्दर कपड़ों के सौंदर्य को भी भद्दा बना देता है। उसे कितना ही सजायें वह अनाकर्षक और कुरूप ही लगेगा।

उत्तम स्वास्थ्य ही जीवन का सौंदर्य है आनन्द की खान है। स्वास्थ्य और बल की उपासना की प्रथम कक्षा मानव देह है। शरीर को स्वस्थ, बलवान, तरोताजा, स्फूर्तिवान, तेजस्वी बनाना आवश्यक है। यही वह आधार है जिससे जीवन में अन्य शक्ति स्रोत खुलने की सम्भावना हो सकती है। स्मरण रहे स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन निवास करता है। बलवान शरीर ही आत्मा का तेज गुण धारण करने में समर्थ होता है। कान्तिवान हँसमुख चेहरा, तेज ओज ही दूसरों के लिए आकर्षण का प्रकृत केन्द्र होता है। मनुष्य के शारीरिक स्वास्थ्य पर ही शक्ति , सामर्थ्य के अन्य स्रोत निर्भर करते हैं। इसलिये शरीर को सर्व प्रथम बलवान, स्वस्थ, तेजस्वी बनाने पर ध्यान देना चाहिए।

वैयक्तिक जीवन में शरीर के बाद नम्बर आता है हृदय और बुद्धि का। कवीन्द्र रवीन्द्र ने कहा है “हे भगवान! यह शरीर तेरा मन्दिर है अतः इसे मैं हमेशा पवित्र रखूँगा, आपने मुझे यह हृदय दिया है, मैं इसे प्रेम से भर दूँगा, आपने मुझे यह बुद्धि दी है मैं इस दीपक को हमेशा निर्मल और तेजस्वी बनाये रखूँगा।” शरीर के साथ-साथ हृदय बुद्धि का भी अपने-अपने क्षेत्र में स्वस्थ सतेज होना आवश्यक है।

अक्सर देखा जाता है कि कई व्यक्ति शरीर से स्वस्थ होते हैं लेकिन उनका हृदय बुद्धि अविकसित ही रह जाते हैं। बहुत से पहलवान कहाने वाले लोग बुद्धि के ठस और हृदय से प्रेम, आनन्द, निर्मलताशून्य होते हैं। आज तो यह एक धारणा-सी बन गई है कि जो शरीर से तगड़ा होगा बुद्धि से कमजोर रहेगा। जो बुद्धिमान होगा उसका शरीर दुर्बल होगा लेकिन वस्तुतः यह विश्वास गलत है। शरीर, मन, हृदय तीनों में से एक के निर्बल होने पर भी मनुष्य बलवान नहीं कहा जा सकता।

हमारे यहाँ हनुमान को सर्वांगीण बल का प्रतीक माना गया है। स्थान-स्थान पर हनुमान की मूर्ति कहीं न कहीं बगीचे, शहर से बाहर खुले मैदान में मिलती है। यह हमारे यहाँ किसी समय बलोपासना के व्यापक प्रसार का स्मृति चिन्ह है। श्री हनुमान के व्यक्तित्व का परिचय देते हुए कहा है।

मनोजवं मारुत तुल्यवेगं

जितेन्द्रियं बुद्धिमना वरिष्ठम।

वातात्मजं वानरयूथ मुख्यं

श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये॥

इस छोटे से श्लोक में सर्वतोमुखी शक्ति के प्रतीक हनुमान का चित्रण मिलता है। वे केवल शरीर से ही बलवान नहीं थे मन की भाँति चंचल—स्फूर्तिवान, भी थे। ‘मारुत तुल्य वेग‘ हवा के सदृश्य वे वेगवान थे। शक्ति उपासना का आदर्श शरीर को वज्र के समान, बनाने की प्रेरणा देता है तो उसे वायु के सदृश्य वेगवान भी। हनुमान का शरीर ऐसा ही था। वे चट्टानों को चूर-चूर कर देते थे तो दस कोस भी चले जाते थे। वे वायु जैसे गतिवान थे।

शक्ति प्रतीक हनुमान शरीर के साथ-साथ मन से भी अपार बलशाली थे। उन्होंने वासना को जीत लिया था। वे जितेन्द्रिय थे, बुद्धिमान थे। उनका शक्ति , व्रत, तप प्रधान जीवन सभी प्रकार श्रेष्ठ था। शरीर और मन पर उनका पूरा-पूरा अधिकार था। वे बुद्धिमानों में भी श्रेष्ठतम थे। हृदय से वे सभी प्रकार निर्मल पवित्र और सरल थे, तो परम भक्त भी थे। हनुमान राम के अनन्य भक्त थे।

शरीर मन बुद्धि हृदय के साथ-साथ मनुष्य का एक बल और होता है वह है संगठन बल। संगठन के साथ ही व्यक्ति जीवित हर सकता है। शक्तिवान् मनुष्य भी समाज के सहयोग के अभाव में प्रभावशील नहीं रह सकता। असंगठित समाज-जातियाँ बहुत जल्दी ही नष्ट हो जाती हैं। लेकिन समाज के लिए वह किसी काम का नहीं तो व्यर्थ है। आवश्यकता इस बात की है कि अन्य शक्तियों के साथ-साथ संगठन कुशलता भी होनी चाहिए। समूह में रह कर काम करना और समाज को संगठित बनाने का सामर्थ्य भी होना आवश्यक है। हनुमान जी बानर सेना में प्रधान थे। उनके नेतृत्व में बानर सेना ने बड़े-बड़े काम किए।

शरीर मन बुद्धि-हृदय के विकास के साथ-साथ हम को संगठन को शक्ति शाली सामर्थ्यवान बनाने के लिए भी प्रयत्न करना आवश्यक है। क्योंकि संगठन में ही शक्ति है। असंगठित रहने वाले बड़े-बड़े योद्धा भी नष्ट हो जाते हैं।

शारीरिक, मानसिक एवं संगठन सम्बन्धी शक्तियों का क्या उद्देश्य है, ऐसा क्यों आवश्यक है? शक्ति के प्रतीक हनुमानजी के जीवन से सहज ही इन प्रश्नों का उत्तर मिल जाता है। शक्ति साधनों का उपयोग किस लिए? राम-सेवा के लिए। रामदूत बनने में ही हनुमानजी अपना गौरव समझते हैं। भगवान का अवतार अधर्म का नाश और धर्म की स्थापना करने के लिए होता है। सच्चे भगवद् भक्त को भी अपनी गति विधियों का निर्धारण इसी आधार पर करना होता है। राम सेवा का तात्पर्य है आसुरी शक्तियों का उन्मूलन। रावण की तरह समाज को पद दलित करने वाले तत्वों के खिलाफ संघर्ष करके समाज को सभी भाँति सुरक्षित, स्वतन्त्र, सुखी बनाने की राम सेवा में लग जाना शक्ति का सर्वोत्तम उपयोग है। हनुमानजी अपने तन-मन संगठन सभी शक्तियों के साथ राम-सेवा के पुनीत उद्देश्य में लग गये थे।

शक्तियों का उपयोग दूसरों का शोषण, दलन, अपहरण करने में करना, समाज के लिए आतंक, अत्याचार, असुरता की भावना पैदा करना रावण का मार्ग अपनाना है। शक्ति तो हनुमान की तरह राम के पीछे चल कर ही पुण्यवान हो पाती है। ऋषि कहता है।

“आर्तत्राणाय यः शस्त्र न प्रहर्तु मनागसि।”

“तेरे शस्त्र पीड़ितों की रक्षा करने के लिए हैं, निरपराधों को सताने के लिए नहीं।” किसी सच्चे बलवान का बल समाज की निर्बलता की कमी की पूर्ति करने के लिए होना चाहिए न कि समाज को और भी निर्बल सिद्ध करने के लिए। जो निर्बल हैं, कमजोर हैं, असमर्थ हैं, उन्हें अपनी शक्ति का सहारा देकर बलवान बनाना, जीवन के सहज स्वाभाविक अधिकार प्रदान करना, यही बलवान का धर्म है। बलवान माँ अपने नन्हें शिशु को अपनी शक्तियों से पाल-पोस कर एक दिन सामर्थ्यवान बना देती है। स्मरण रहे शक्तियों का महत्व बनाने में है-निर्माण में है, नष्ट करने में नहीं। समाज को कमजोर बनाने के लिए शक्तियाँ नहीं हैं। इससे शक्ति वान का पतन होता है, उसकी शक्तियाँ भी धीरे-धीरे नष्ट हो जाती हैं। शक्ति का रचनात्मक उपयोग शक्तियों को बढ़ाता है और शक्ति शाली को तेज, सामर्थ्य प्रदान करता है।

शरीर, मन, हृदय, बुद्धि की शक्तियों का विकास कीजिए। शरीर से मन, बुद्धि की शक्ति बलवान हैं। मन से हृदय की प्रेम शक्ति , निर्मलता, पवित्रता, सदाचार की शक्ति महान् हैं। और इन सब शक्तियों का समाज की रचना में उपयोग करना, संगठित होकर कार्य करना और भी महत्वपूर्ण है। सभी भाँति शक्ति शाली बनिये। स्मरण रखिये शक्ति ही जीवन है। चहुँमुखी बल का संचय करके हनुमान की प्रत्यक्ष उपासना कीजिए।


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