जीवन साधना के साधक—अरविन्द

October 1964

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स्वामी विवेकानन्द ने मानव अन्तरात्मा को जागृत करने के लिए जो प्रबल प्रयत्न किए थे उनका प्रभाव सारे भारतवर्ष पर—विशेषतया बंगाल पर पड़ा। अध्यात्म कायरों या भगोड़ों की बपौती नहीं वरन् शूरवीरों और सत्पुरुषों की जीवन नीति है, यह उपदेश करते हुए स्वामीजी देशव्यापी प्रचार कार्य में लगे थे। तेजस्वी नवयुवक उनसे बहुत प्रभावित हुए। धर्म, संस्कृति, समाज और राष्ट्र के प्रति निष्ठा पैदा करना और मानवता के महान उत्तरदायित्वों को समझते हुए महापुरुषों जैसी जीवन-नीति के लिए भावनाशील व्यक्तियों को तैयार करना स्वामी जी का लक्ष्य था। उस कषाय वस्त्रधारी महात्मा ने भारत के सच्चे सपूत की तरह उस अध्यात्म का प्रसार किया जिससे मृतकों में भी जीवन उत्पन्न होता है। स्वामी रामदास ने जिस प्रकार यवन काल में महाराष्ट्र को जाग्रत करके स्वतन्त्रता संग्राम के सेनानी पैदा किए थे, उसी प्रकार स्वामी विवेकानन्द ने देशभर में, विशेषतया बंगाल में ऐसी लहर उत्पन्न की, जिससे प्रभावित होकर भावनाशील लोग गौरवास्पद जीवन जीने के लिए आतुर हो उठे। यही भावना बंगाल के क्रान्तिकारी आन्दोलन के रूप में फूटी। यह प्रकट तथ्य है कि अंग्रेजों के विरुद्ध क्रान्तिकारी संघर्ष में बंगाल ही अग्रणी रहा।

आत्मदर्शी नेताओं द्वारा झकझोरकर जागृत की गई नई पीढ़ी भारत के अतीत को वापिस लाने के लिए जिन दिनों छटपटाहट अनुभव कर रही थी, उन्हीं दिनों 15 अगस्त 1872 में कलकत्ता में अरविन्द का जन्म हुआ। उस समय स्वराज्य की बात करना भी अपराध था पर अरविन्द की सतत साधना फलित हुई। 75 वर्ष के तप ने ठीक उनके जन्म दिन पर ही भारत में अपना पूर्ण स्वतन्त्रता का लक्ष्य प्राप्त कर लिया।

अरविन्द के पिता सुप्रसिद्ध सिविल सर्जन डॉक्टर कृष्णधन घोष, अपने इस बालक को उच्च शिक्षा दिलाकर सरकार में कोई बड़ा अफसर बनाना चाहते थे। अतएव 7 वर्ष की आयु में ही इंग्लैण्ड पढ़ने भेज दिया। 18 वर्ष की आयु में उनने सिविल सर्विस की परीक्षा दी और आई. सी. एम. प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर ली। इसी अवधि में अपने निरन्तर अध्यवसाय के द्वारा उन्होंने अंग्रेजी के अतिरिक्त , जर्मन, लैटिन, ग्रीक, फ्रेञ्च और इटली की भाषाओं, में भी निपुणता प्राप्त कर ली।

आई. सी. एस. पास करने पर उन्हें भारत सरकार द्वारा कोई उच्च पद दिया जाने वाला था। पर उनका जन्म गुलामी का पट्टा बाँधकर ऐश आराम की जिन्दगी बिताने के लिए नहीं हुआ था। उन्हें कुछ बड़े काम करने थे। सोचा यदि अफसरी मिल गई और सम्भव है फिर उसी में फँस गए तो प्रलोभन के बन्धन तोड़कर बाहर निकलना कठिन होगा। अतएव घुड़सवारी की परीक्षा देने से इनकार कर दिया, इस प्रकार वे जान बूझकर असफल बनने के लिए अड़ गये।

हीनताग्रस्त मस्तिष्क दूसरों के अन्धानुकरण में अपनी बड़ाई समझते हैं। जैसा कि आज अंग्रेजों के चले जाने पर भी उनके रहन-सहन, आहार-विहार, भाषा, भेष, नकल बनाने में अपना बड़प्पन अनुभव करते हैं। अरविन्द ऐसे ओछे न थे। 18 वर्ष वे इंग्लैंड में रहे और उन्होंने अंग्रेजों के जातीय गौरव और उपयुक्त गुणों को सीखा, स्वतन्त्र देश में रहकर उन्हें स्वतन्त्रता प्राण प्रिय लगने लगी। भारत लौटे तो उनके कण-कण में भारत को इंग्लैंड जैसा स्वतन्त्र, सम्पन्न और प्रबुद्ध बनाने की आकाँक्षा भरी हुई थी।

अरविन्द की प्रतिभा और व्यक्तित्व से बड़ौदा नरेश बहुत प्रभावित हुए और वहाँ उनकी नियुक्ति शिक्षा शास्त्री के रूप में हो गई। 13 वर्षों तक वे वहाँ प्रधानाध्यापक और वाइस प्रिंसिपल और निजी सचिव का काम योग्यतापूर्वक करते रहे। इस बीच उन्होंने सहस्रों छात्रों में जातीय जीवन भावनाएँ भरीं और उन्हें चरित्रवान देशभक्त बनाया।

इंग्लैंड से लौटते ही उन्होंने बंगाल में क्रान्तिकारी आन्दोलन की नींव जमाने का कार्य आरम्भ कर दिया। संगठन के अतिरिक्त प्रचार को भी माध्यम बनाया। बम्बई के अंग्रेजी साप्ताहिक ‘इन्दु प्रकाश’ में पुरानों के बदले नये दीपक ‘शीर्षक लेखमाला’ चालू रखकर भारत के नव-निर्माण के लिए प्रत्येक देशभक्त आह्वान का आह्वान किया। उन दिनों पत्र कम निकलते थे, जो निकलते थे वे चाव से पढ़े जाते थे। इन लेखों का भारी प्रभाव पड़ा और उन्हें अनेकों साथी सहयोगी मिलने लगे। उन्होंने ‘तरुण संघ’ की स्थापना की जिसमें आगे चलकर भारत के कितने ही स्वतन्त्र क्रान्तिकारी संगठन सम्मिलित हो गए। राष्ट्रीय दैनिक ‘वन्देमातरम्’ के सम्पादक बने और क्रान्तिकारी दैनिक ‘युगान्तर’ का सञ्चालन किया। उन्होंने क्रान्तिकारी योजनाएं बनाने के लिए सुयोग्य विचारकों की एक ‘अनुशीलन समिति’ बनाई जो भारत की और संसार की परिस्थितियों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करके योजना तैयारी करती और ‘तरुण-संघ’ के सदस्य उन्हें कार्यान्वित करने में लग जाते। उन दिनों एक तरह से भारत में स्वाधीनता संग्राम की क्रान्तिकारी योजनाओं का समग्र सञ्चालन वे स्वयं ही कर रहे थे।

अरविन्द के जीवनोद्देश्य का परिचय पाणिग्रहण के दिनों अपनी पत्नी को लिखे गए पत्रों में भली प्रकार मिल जाता है। उनने एक पत्र में अपनी सहधर्मिणी को लिखा —तुम चाहो तो मुझे सनकी कह सकती हो, मुझे एक नहीं तीन तरह का पागलपन है। एक पागलपन यह है कि मुझे जो कुछ ईश्वर ने दिया है उसमें से के वल निर्वाह योग्य अपने लिए लेकर बाकी सबका सब जनता जनार्दन को लौटा देना चाहता हूँ। इस गए गुजरे समाज का अंग होते हुए भी यदि मैं अपने ऐश-आराम या संग्रह की बात सोचूँ, तब वह मेरे लिये चोरी, बेईमानी की तरह ही एक घृणित काम होगा। दूसरा पागलपन यह है कि— मैंने निश्चय किया है कि मैं ईश्वर को प्राप्त करके रहूँगा। आज के सम्प्रदायवादियों के आडम्बरों पर मेरा कोई भरोसा नहीं, तो भी यह पक्की निष्ठा है कि ईश्वर है और उसे कोई भी सच्चा मनुष्य प्राप्त कर सकता है। मैं मार्ग तलाश करूंगा, उस पर चलूँगा और कितना ही श्रम, समय एवं कष्ट क्यों न हो, मैं अपना ईश्वर प्राप्ति का लक्ष्य प्राप्त करके रहूँगा। तीसरा पागलपन यह है कि भारत माता को अपनी सगी माता जैसी भावना से पूजना चाहता हूँ। उसका सच्चा भक्त बनना चाहता हूँ। और इस मातृ भक्ति के लिए बड़े से बड़ा बलिदान करने की प्रसन्नता अनुभव करना चाहता हूँ।” सचमुच इनकी यह तीनों सनकें जीवन के अन्तकाल तक बनी रहीं और वे एक साधारण बंगाली से बढ़कर विश्व की महान विभूति इन सनकों के आधार पर ही बन सके।

लार्ड कर्जन ने बंगाल को दो भागों में बाँट देने के लिए जो ‘बंग भंग’ योजना रखी उससे सारा देश तिलमिला उठा। बंगाल में उसके प्रतिरोध के लिए सक्रिय आन्दोलन उठ खड़ा हुआ। अरविन्द घोष उसका नेतृत्व करने लगे। विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार, राष्ट्रीय स्वयं सेवकों का संगठन, अदालतों का बहिष्कार, शिक्षा का विस्तार तथा अँग्रेजों को आतंकित करने के उपाय इस आन्दोलन के अंग थे। उन्होंने नेशनल कालेज की स्थापना में प्रमुख भाग लिया और मात्र 75)मासिक वेतन पर काम करते रहे। काँग्रेस में उन्होंने प्रवेश किया और नेताओं की अग्रिम पंक्ति में जा पहुँचे।

सरकार उनके क्रान्तिकारी विचारों और कार्यों से आतंकित हो उठी। 2 मई सन् 1908 को कलकत्ता के मानिक तल्ला बाग में तलाशी हुई जिसमें बम पिस्तौल और कारतूसों का भण्डार मिला, चालीस युवक पकड़े गये जिनमें अरविन्द घोष भी थे। अलीपुर षडयन्त्र केस का


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