दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह की लड़ाई के सम्बन्ध में गाँधीजी ‘डरबन’ से ‘जोहान्सबर्ग’ जा रहे थे। पता चला कि गोरों ने रास्ते में उन्हें मार डालने का षड़यंत्र किया हुआ है।
एक साथी ने गाँधीजी से प्रार्थना की कि वे उस रास्ते से न चल कर दूसरे रास्ते चले जाएं। उस पर गाँधी जी ने कहा यदि मैं मरने के भय से अपने कार्यक्रम को छोड़ दूँ तो मैं सचमुच जीवित रहने योग्य नहीं हूँ। सचाई के रास्ते में चलते हुए यदि मुझे मरना पड़े तो यह मेरे लिए एक सौभाग्य की ही बात होगी। उससे मेरा लक्ष्य नष्ट नहीं वरन् सफल ही होगा।
गाँधीजी उसी रास्ते गये और उस षड़यंत्र से उनकी रक्षा उस पठान ने की जिसे 1908 में उन्हें कत्ल करने के लिए नियुक्त किया गया था।