शिक्षकों का महान उत्तरदायित्व

October 1964

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हमारे धर्म शास्त्रों में माता-पिता आचार्य तीनों को बालक के जीवन निर्माण में महत्वपूर्ण माना है। माँ-बाप उसका पालन-पोषण संवर्धन करते हैं तो आचार्य उसके बौद्धिक, आत्मिक, चारित्रिक गुणों का विकास करता है, उसे जीवन और संसार की शिक्षा देता है। उसकी चेतना को जागरुक बनाता है। इसी लिए हमारे यहाँ आचार्य गुरु को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है, उसे पूजनीय माना गया है। आचार्य के शिक्षण, उसके जीवन व्यवहार, चरित्र से ही बालक जीवन जीने का ढंग सीखता है, आचार्य की महती प्रतिष्ठा हमारे यहाँ इसी लिए हुई।

पुरानी आचार्य परम्परा परिस्थितियों वश समय के परिवर्तन के कारण समाप्त हो गई है फिर भी आज का शिक्षक अध्यापक बहुत कुछ अंशों में उसका ही आधुनिक रूपांतर है। समय के साथ शिक्षा पद्धति-पाठ्यक्रम आदि में परिवर्तन हो सकता है लेकिन गुरु और शिष्य का सम्बन्ध सदैव रहता है और रहेगा।

आज हमारे यहाँ शिक्षक हैं अध्यापक हैं, वे छात्रों को निर्धारित पाठ्यक्रम के अनुसार शिक्षा भी देते हैं किन्तु सबसे महत्वपूर्ण बात जीवन निर्माण का व्यावहारिक शिक्षण आज नहीं हो पाता। आज गुरु -शिष्य—शिक्षक और छात्र का सम्बन्ध पहले जैसा नहीं रहा। केवल कुछ अक्षरीय ज्ञान दे देने, एक निश्चित समय तक कक्षा में उपस्थित रहकर कुछ पढ़ा देने के बाद शिक्षक का कार्य समाप्त हो जाता है तथा पाठ पढ़ने के बाद विद्यार्थी का।

अध्यापक और विद्यार्थी के बीच जो स्नेह भाव, आत्मीयता सौहार्द, समीपता की आवश्यकता है वह आज नहीं है और यही कारण है कि आज का विद्यार्थी डिग्री, डिप्लोमा ले लेता है लेकिन व्यावहारिक जीवन का शिक्षण, चरित्र, ज्ञान, उत्कृष्ट व्यक्तित्व का उसमें अभाव रहता है। इन सबके बिना विद्या अधूरी है। जो जीवन को प्रकाशित न करे, पुष्ट न बनावे वह विद्या किस काम की?

और चरित्र निर्माण की, व्यावहारिक ज्ञान की शिक्षा पुस्तकों से, नहीं मिल सकती। वह भी व्यक्ति की समीपता से उसके चरित्र आचरण को देखने समझने से प्राप्त होती है, जो आज की शिक्षा पद्धति में नहीं के बराबर है। निःसन्देह हमारी प्राचीन शिक्षा पद्धति में इस का बहुत ध्यान रखा गया था। आचार्य और विद्यार्थी का सहजीवन आश्रमों में बीतता था। उस समय विद्यार्थी पाठ ही नहीं सीखता था अपितु आचार्य के जीवन से चरित्र व्यवहार की सीख भी लेता था। इसी सत्य पर प्रकाश डालते हुए एक बार कवीन्द्र रवीन्द्र ने कहा था।

“शिक्षा के सम्बन्ध में एक महान सत्य हमने सीखा था। हमने यह जाना था कि मनुष्य से ही मनुष्य सीख सकता है। जिस तरह जल से ही जलाशय भरता है, दीप से ही दीप जलता है, उसी प्रकार प्राण से प्राण सचेत होता है। चरित्र को देखकर ही चरित्र बनता है। गुरु के संपर्क, सान्निध्य, उनके जीवन से प्रेरणा लेकर ही मनुष्य मनुष्य बनता है। आज का “शिक्षक महोदय प्राण नहीं, दे सकता चरित्र नहीं देता, वह पाठ दे सकता है। इसी लिए आज का छात्र किसी दफ्तर, अदालत का एक बाबू बन सकता है लेकिन मनुष्य नहीं बन पाता।”

आज शिक्षक और विद्यार्थी के बीच बहुत बड़ी खाई पैदा हो गई है सम्बन्धों की। यद्यपि इसका कारण आज की सामाजिक राजनैतिक परिस्थितियां भी हैं लेकिन जो शिक्षक हैं अध्यापक हैं वे व्यक्तिगत तौर पर इस जिम्मेदारी से नहीं बच सकते। एक बार शिक्षक दिवस पर बोलते हुए एक केन्द्रीय मन्त्री महोदय ने कहा था “आप तो विद्यार्थियों की परीक्षा साल में एक बार या दो बार लेते हैं किन्तु विद्यार्थी तो आप की परीक्षा प्रति दिन, प्रति घण्टे, प्रतिक्षण ही लेते रहते हैं। वे आपको कक्षा में आते देखते हैं, पढ़ाते देखते हैं, सद्व्यवहार और दुर्व्यवहार करते देखते हैं, और फिर कक्षा के बाहर दूसरों के साथ मिलते जुलते भी देखते हैं। वे जैसा आपको देखते हैं वैसा ही स्वयं भी सीखते हैं करते हैं। इसलिए जैसे आप होंगे वैसे ही आपके विद्यार्थी- भारत के से नौ निहाल भी होंगे।”

मंत्री महोदय के उक्त सारगर्भित शब्दों से शिक्षकों की जिम्मेदारी जो व्यक्ति गत रूप से उनके ऊपर है उससे इन्कार करने की कोई गुँजाइश नहीं रह जाती है और बच्चों में बढ़ती हुई अनुशासनहीनता, उच्छृंखलता, चारित्रिक त्रुटियों के लिए कुछ सीमा तक शिक्षकों को भी उत्तरदायी माना जाय तो ठीक होगा।

यहाँ तक भी कोई बड़ी बात नहीं कि शिक्षक बच्चों को अच्छी बातें नहीं सिखाते, किन्तु जब अपने गलत व्यवहार और चारित्रिक त्रुटियों से बच्चों के सामने गलत आचरण करते हैं, तो यह एक अक्षम्य सामाजिक अपराध ही है। हम देखते हैं कि छोटे-छोटे बच्चों के समक्ष अध्यापक लोग बीड़ी पीते हैं। भद्दे हँसी मजाक करते हैं। अपने दोस्तों के लिये, कई शिक्षक तो बच्चों के द्वारा बीड़ी, पान, सिगरेट मँगाते है। बड़े स्कूल कालेजों में विद्यार्थियों के साथ हँसी मजाक पूर्ण बराबरी का व्यवहार, कई अमंगल विषयों पर वार्तालाप करना, अपना चारित्रिक स्तर निम्न रखना, ऐसी कई बातें है जो विद्यार्थियों के समक्ष गलत उदाहरण पेश करती हैं। यद्यपि आजकल के विद्यार्थी भी दूध के धुले नहीं हैं तथापि शिक्षकों का उत्तरदायित्व अधिक है। बच्चा यदि गलत आचरण करता है तो वह अभिभावकों की त्रुटि का परिणाम है। इसी तरह विद्यार्थी यदि अनुशासनहीन और उद्दण्ड बनते हैं तो यह शिक्षकों की भूल-गलती का परिणाम ही माना जायगा।

यद्यपि आज का शिक्षक वर्ग उन वर्गों में से है जिस के उद्धार की सबसे अधिक आवश्यकता है। हमारे देश का शिक्षक बहुत ही सामान्य स्थिति में जीवन निर्वाह करता है। इसके अतिरिक्त जीवन की जटिलतायें बढ़ जाने, छात्रों की बढ़ी हुई संख्या के कारण भी आज के शिक्षक के लिए छात्रों से व्यक्तिगत संपर्क रखना कठिन हो गया है। लेकिन एक स्वतंत्र राष्ट्र के नागरिक के नाते अपने समस्त अभाव, अभियोगों, व्यक्तिगत कठिनाइयों में हम अपने उत्तरदायित्व पूर्ण कर्तव्यों से विमुख नहीं हो सकते। परोपकार और लोक कल्याण की भावना रख कर ही शिक्षकों को बच्चों के जीवन निर्माण की दिशा में अग्रसर होना पड़ेगा। यह सच है कि प्रारम्भिक जीवन के लम्बे शिक्षाकाल में विद्यार्थी और शिक्षक का संपर्क बड़े ही महत्व का है। यदि इस समय में बिना किसी लाभ की भावना से भी यदि बच्चों के जीवन निर्माण की दिशा में शिक्षक वर्ग ध्यान दें तो वह एक बहुत बड़ा पुण्य कार्य होगा। कोई सन्देह नहीं कि इन्हीं बच्चों में से महापुरुष, विद्वान, तपस्वी, लोक सेवी, जन नायक, कुशल नेता निकलकर न आयें। जिस देश में सुयोग्य व्यक्तियों की बहुतायत होती है, वह देश गिर नहीं सकता न उसे कोई हानि ही पहुँचा सकता।

हमारे देश, समाज, सभ्यता, संस्कृति का भार बहुत कुछ शिक्षकों के कन्धों पर ही रखा है। अपने इस उत्तरदायित्व को समझते हुए बच्चों के उत्कृष्ट व्यक्तित्व का निर्माण करने में अधिकाधिक प्रयास आवश्यक है। आज के शिक्षकों की यह बड़ी जिम्मेदारी है।


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