विज्ञानमय कोश का जागरण

October 1964

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

विज्ञानमय कोश का परिमार्जन आत्मा पर चढ़े हुए मल आवरण एवं विक्षेपों को हटाने से होता है। इस संदर्भ में प्रथम वर्ष कृतघ्नता का पाप छोड़ने का साधन कराया गया था और प्रातःकाल उठते ही शैया पर उन सबका स्मरण अभिनंदन करने को कहा गया था, जिनने अपने साथ कोई उपकार किया है। इन्हीं भावनाओं का प्रकटीकरण श्राद्ध और तर्पण जीवित और स्वर्गस्थ सभी अपने प्रति उपकार करने वालों के लिये किया जाना चाहिए। माता-पिता, बड़े भाई, बड़ी भावज, बड़ी बहिन आदि घर में जो भी अपने से बड़े हों, उनको नित्य प्रातः चरण स्पर्श पूर्वक प्रणाम इसी भावना से किया जाना चाहिये। स्त्रियाँ अपनी सास, ननद, जिठानी, ससुर, पति आदि के लिए इसी प्रकार अभिवन्दन किया करें। सबसे नम्र और मधुर बोलना चाहिये। तथा शिष्ट व्यवहार करते हुए अपनी अध्यात्म परायणता का परिचय देना चाहिये।

द्वितीय वर्ष में किसी को भी, छोटों को भी ‘तू’ न कहकर ‘तुम’ या ‘आप’ कहने की सभ्य परम्परा का आरम्भ कराया गया था। यह निरहंकारिता का अभ्यास है। हम किसी को भी अपने से छोटा न समझें और न अपने को किसी से बड़ा मानें, इसी भावना में सज्जनता का परिचय मिलता है। अहंकारी, दूसरों को तिरस्कार पूर्ण संबोधन करने वाले को तो एक प्रकार से असुर ही माना गया है। मार-पीट करना तो पिशाचपन है। किसी बच्चे को मारना पीटना मनुष्य से नहीं असुर से ही बन पड़ता है। विज्ञानमय कोश का लाभ प्राप्त करने वाले को इस प्रकार की दुष्टताएं छोड़ कर निरहंकारिता ही अपनानी पड़ेगी।

तीसरे वर्ष सादगी की शिक्षा की गई थी। आहार विहार, वस्त्र, वेश, विन्यास, संभाषण, व्यवहार, हर क्षेत्र में सादगी का समावेश हो। फैशन, ठाठ-बाट, तड़क-भड़क, प्रदर्शन और बनावट छिछोरे लोगों की भोंड़ी पहचान है। संजीदा और समझदार लोगों को सादगी ही शोभा देती है। विद्या की परख विनय से, श्रेष्ठता की पहचान ‘सादगी’ से होती है।

इस चौथे वर्ष में विज्ञानमय कोश के साधकों को ‘उदारता’ का अभ्यास करना चाहिये। अपने समय, श्रम, धन एवं प्रभाव का एक अंश जन साधारण में सद्भावनाओं की अभिवृद्धि के लिये लगाना चाहिये। पूरा जीवन स्वार्थ में ही नहीं लगाना चाहिये वरन् उसका एक बड़ा भाग परमार्थ के लिये —लोक सेवा के लिये भी सुरक्षित रखना चाहिये। गायत्री के प्रति, सद्बुद्धि एवं श्रेष्ठता के प्रति, आस्था रखने वालों को उदार तथा सेवाभावी होना ही चाहिये।

अपने स्वजन, सम्बन्धी और परिचितों को सद्विचारों की, सत्कर्मों की प्रेरणा देने के लिये संपर्क बनाना, आदर्शवाद के सम्बन्ध में चर्चा एवं समर्थन करना हर अध्यात्मवादी का परम पवित्र कर्त्तव्य है। इसके लिए जिससे जितना समय निकालना सम्भव हो, उसे उतना अवश्य ही निकालना चाहिये। अपनी आजीविका का एक अंश ‘ज्ञान यज्ञ’ के लिये नियमित रूप से निकालना चाहिये। जिसकी आमदनी सौ रुपया मासिक हो उसे एक रुपया तो इस कार्य के लिये निश्चित रूप से निकालना ही चाहिये, कि उससे अपने समीपवर्ती लोगों को आत्मोत्कर्ष की, प्रेरणा की साधन सामग्री मिलती रहे। हमारे घरों में ऐसे ज्ञान मन्दिर रहने चाहियें, जिनसे स्वाध्याय का उपयुक्त साहित्य निरन्तर बढ़ता रहे और उससे अपने घर के तथा पड़ोस के लोग लाभ उठाते रहें।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles