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(श्री अनिल पटेरिया निर्झर)
जब जब सौ सौ बाँह पसारे
खड़ा तिमिर हो बीच राह।
तुम दीपक से जलते जाओ।
उठती झंझाओं को आखिर इक दिन झुक जाना ही होगा।
बढ़े प्रलय तो, उसे सहम कर आखिर रुक जाना ही होगा॥
मंजिल दूर भले हो लेकिन उर में दृढ़ विश्वास यही है।
क्षुब्ध धरा के इस आँगन में सुख को फिर आना ही होगा॥
पग पग से तुम डगर नापते, अंगारों पर चलते जाओ॥ तुम.॥
ज्योति तुम्हारी बिखरे, जो भूतल से अम्बर तक छा जाये।
और सिसकती मानवता फिर विहसे मंगल मोद मनाये॥
पर यह भी सच है, इसमें तुमको तिल तिल कर जलना होगा।
हो सकता है, क्रूर काल तुमको ठोकर भी देता जाये॥
पर तुम गिर गिर कर फिर फिर, उठ उठ कर पुनः सँभलते जाओ॥ तुम.॥
जग में जीते वही, परिस्थितियों से जो टकराया करते।
चट्टानों को तोड़ लात से अपना मार्ग बनाया करते॥
उन सुमनों का ही सौरभ अब तक छाया सारे कानन में।
जो काँटों से बिंधते, लेकिन म्लान नहो मुस्काया करते॥
सौरभ का आगार ढूँढ़ना जो चाहो, तो काँटों में भी नी पलते जाओ॥ तुम.॥