प्रेम ही परमेश्वर है

January 1963

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इस संसार की बनावट कुछ ऐसी है कि मनुष्य को अपनी जीवन यात्रा के लिए दिन रात संघर्ष करना पड़ता है। उथल पुथल, खींचातानी, परेशानियों, राग द्वेष से संसार का वातावरण बहुत कटु मालूम पड़ने लगता है। वर्तमान में तो संसार की यह दौड़ और भी तेज हो गई है, मानव जाति भागी जा रही है बिना लक्ष्य के। उसका दम फल रहा है। चैन नहीं मिल रहा है मनुष्य को लाख प्रयत्न करने पर भी। वह अपने सुख के लिए तरह तरह के साधन जुटाता है किन्तु दुःखों, परेशानियों का क्रम एक के बाद एक नये रूप में आ रहा है। तो क्या इस संसार का और मनुष्य का निर्माण इसीलिए हुआ था? सम्भव है संसार को दुःखों का घर बताने का सिद्धान्त जिन्होंने बनाया उन्होंने यही निर्णय अपने जीवन में किया होगा। किन्तु मंगलमय प्रभु का अमंगल कार्य क्यों? मंगलमय भगवान ने तो अपनी मंगलमय इच्छा के फलस्वरूप ही इस सुन्दर संसार का निर्माण किया है।

प्रभु की मंगलमयी सत्ता-

जो चैतन्य सत्ता इस स्थूल संसार का धारण पोषण कर रही है, जो आत्मरूप में सब में व्याप्त है, वह प्रेम ही है। व्यष्टि और समष्टि में आत्मा का वह प्रेम प्रकाश ही ईश्वर की मंगलमयी रचना का सन्देश दे रहा है। जब मनुष्य आत्मा के उस प्रेम प्रकाश का अवलम्बन लेता है तभी वह संसार को आनन्द और सुखों का घर मानने लगता है और तभी उसे सच्चा सुख मिलता है। प्रेम ही आत्मा का प्रकाश है। जो इस प्रकाश में जीवन पथ पर अग्रसर होता है, उसे संसार शूल नहीं फूल नजर आता है, दुःखों का घर नहीं वरन् स्वर्ग मालूम होता है।

प्रेम ही एक ऐसा प्रकाश है जिसका अवलम्बन लेकर मनुष्य इस संघर्षमय संसार में जीवन यात्रा को सफल कर सकता है। प्रेम ही जीवन की सर्वोच्च प्रेरणा है। अन्य प्रेरणाएँ अन्धकार की जनक हैं। प्रेम प्रेरित कर्मों से संसार की रचना होती है। अन्य तो उसके विनाश और बुराई बढ़ाने के कारण बनते हैं। जीवन को समृद्ध बनाने, परम ध्येय की मंजिल तक ले जाने का एक ही रास्ता, एक ही नियम है, वह है प्रेम । आत्मा का प्रकाश प्रेम है, यही प्रभु का विधान मंगलमयी सृष्टि के लिए है। जो इसे जीवन में प्रधानता देता है उसके लिए संसार ही स्वर्ग है, प्रभु का मन्दिर है, जीवन क्रीड़ा का सुन्दर उद्यान है।

प्रभु का लक्ष्य और स्वरूप

प्रेम का लक्ष्य प्रेम स्वरूप की प्राप्ति के लिए है किन्तु हम तो जो कुछ कर रहे हैं सब अपने लिए, अपने अहम् की तुष्टि के लिए, स्वार्थ के लिए। जिस काम में हमारा स्वार्थ सधता हो वही काम तो हमें अच्छा लगता है। अपनी भूख, शान्ति, रक्षा, साज सामान इकट्ठा करने के लिए ही तो हमारी सारी कार्य प्रणाली चल रही है। किन्तु यह सब तो सौदेबाजी, लेन देन का कार्य है जिसका उद्देश्य कुछ पुरस्कार प्राप्ति ही है। यह तो दुनिया का साधारण नियम है। प्रेम का नियम इससे बिलकुल भिन्न है। प्रेम सौदा नहीं है। प्रेम कुछ पाने की इच्छा से नहीं किया जाता बल्कि देने की भावना से किया जाता है। प्रेम पुरस्कार नहीं लेता, बदला नहीं चाहता। प्रेम दान का नियम है जो निरन्तर देता रहता है, यदि लेता भी है तो केवल प्रेम ही। प्रेम की पूर्ति प्रेम से होती है। स्वयं के कृतार्थ होने के लिए प्रेम किया जाता है। प्रेम, प्रेम के लिए कीजिए। किसी स्वार्थ, लेने की भावना के लिए नहीं। जो कुछ भी आपके पास है, उन्मुक्त भाव से लुटाते रहिए प्रेम के लिए।

असीम और सार्वभौम-

प्रेम किन्हीं सीमा, मर्यादा, समय, रूप, रंग, जाति, वर्ण आदि के नियमों में बँधा नहीं रहता। वह हर समय एक रस, अचल, सब के लिए होता है। यह प्रेम साधना का दूसरा नियम है। हम किसी से सुबह प्रेम करें और शाम को न करें, यह धोखा है। मन्दिर में आँसू बहाने वाला प्रेम यदि दुःखी, क्लान्त भाइयों को देखकर द्रवित न हो तो वह प्रेम नहीं ढोंग है। दूसरों का खून करने वाला व्यक्ति अपने घर के सदस्यों से प्रेम करे तो वह प्रेम नहीं स्वार्थ है, भोग है। दूसरों के बच्चों से कटु व्यवहार करने वाले माँ बाप अपने बच्चों से प्रेम नहीं कर सकते। दूसरों के साथ धोखेबाजी, चालाकी, कूटनीति छल−कपट बरतने वाले व्यक्ति किन्हीं से प्रेम करें, यह कठिन है। सच्चा प्रेम वह है जो घर, बाहर, मन्दिर, मस्जिद, समस्त जाति वर्ण में एक रस समान व्याप्त होकर हमारी नस-नस में समा जाए, और जीवन का अंग बन जाए। वही प्रेम, प्रेम कहलाने का अधिकारी है। यदि इस कसौटी पर उतरने वाले प्रेम पूजकों की संख्या बढ़ जावे तो यह धरती ही स्वर्ग बन जावे।

प्रेम आत्मा का सहज प्रकाश है जो प्रत्येक जीवन में स्थित है। उसे प्राप्त करने के लिए धन दौलत कुछ भी खर्च नहीं करना पड़ता। प्रेम का अथाह समुद्र हमारे चारों ओर बाहर भीतर उमड़ रहा है, केवल आवश्यकता इस बात की है कि हम अपनी हृदय गगरी में जो मल विक्षेप, अहंकार, स्वार्थ, पद प्रतिष्ठा आदि भरे पड़े हैं उन्हें निकाल कर इस प्रेम समुद्र का मधुर अमृत भर लें। यह एक सहज और स्वाभाविक क्रिया है किन्तु खेद है मनुष्य की अमीरी, उसकी पद प्रतिष्ठा, अहंकार इस सहज कार्य को सफल नहीं होने देते। यदि हमें प्रभु के प्रकाश, प्रेम को प्राप्त करना है तो इन बनावटी चोलों का त्याग करना होगा। पीड़ित मानवता में, दुनमुखी भाइयों में, अन्य जीव पशु पक्षियों के बीच हृदय खोल कर आना होगा, उन्हीं की पंक्ति में खड़ा होना होगा। यहाँ कोई निर्बल सबल, गरीब अमीर, ऊँचा नीचा नहीं हैं। प्रभु के सब पुत्र समान हैं। हमें हृदय खोल कर अपने सारे भौतिक आवरणों को दूर उतार कर प्राणी मात्र से प्रेम करना है। सबके साथ सहानुभूति सहयोग करके अपना कर्तव्य निभाना है। प्रेम सारे भौतिक आकर्षणों से ऊपर रहता है, इनका त्याग किए बिना सच्ची प्रेम साधना सम्भव नहीं हो सकती।

सभी तो अपने हैं-

महात्मा गाँधी एक कोढ़ी की स्वयं पट्टी आदि करते थे, अपने हाथों से घाव धोते थे, जबकि अन्य लोग दूर भागने का प्रयत्न करते थे। ईसा मसीह, चैतन्य महाप्रभु, रामकृष्ण आदि महापुरुषों के जीवन आज भी उनकी प्रेम साधना के ज्वलन्त उदाहरण हैं। उनके हृदयों से प्रेम की भागीरथी निरन्तर बहती रही, जिसमें प्राणीमात्र ने अपने आपको कृतार्थ किया। वहाँ कोई भेद भाव नहीं था। इस तरह जिसके हृदय में प्रेम का अखण्ड दीप जलता रहे, वस्तुतः वही सच्चा प्रेमी है। महर्षि रमण मनुष्यों से ही नहीं प्राणीमात्र से प्रेम करते थे। साँप, बिच्छू, पशु पक्षी, बन्दर, सिंह आदि उनके पास परिवार के सदस्यों की तरह आया करते थे और महर्षि उन्हें बड़े प्यार से खिलाया-पिलाया करते थे। प्रेम सर्वत्र व्याप्त है, किन्तु मनुष्य ने भेदभाव, स्वार्थ, अहंकार, रागद्वेष का जो रंगीन चश्मा चढ़ा रखा है, इसी के कारण उसके दर्शन नहीं हो पाते और इसीलिए वह रात दिन दुखी व्याकुल नजर आता है।

प्रेम के लिए अपने आपका उत्सर्ग करने वाला जीवन ही वस्तुतः जीवन कहलाने लायक रहता है। अवस्था विचार, परिस्थितियाँ, मनुष्यों का विश्वास, यहाँ तक कि यह देह भी बदलती है। इस परिवर्तन प्रधान संसार में यदि अजर अमर रहता है, तो वह है प्रेम।

प्रेरणा की प्रबल शक्ति-

प्रेम का मूल्य बलिदान से ही चुकाया जाता है। महात्मा गाँधी ने देश से, मानवता से प्रेम किया था। और अन्त में इसी के लिए अपने आपको बलिदान किया। देश प्रेम के मतवाले राणा प्रताप अरावली की पथरीली घाटियों में भूखे प्यासे फिरते रहे। धर्म से प्रेम करने वाले तेग बहादुर, गुरु गोविन्द सिंह के बच्चों ने मुगलों के हाथों सहर्ष अपना बलिदान स्वीकार किया था। आजादी और देश प्रेम के अनेकों मतवालों ने सूली फाँसी, गोली, तोपों को सहर्ष स्वीकार किया था। ऐसे प्रेम पथिकों की भारत में, साथ ही विदेशों में भी कमी नहीं रही, जिन्होंने अपने विश्वास ध्येय उद्देश्य लक्ष्य आदि के लिए प्रेम किया अपने को जीवित ही तिलतिल मिटाया और अन्त में इसी के लिए बलिवेदी पर सहर्ष चढ़े।

अपने आराध्य प्रेम में मतवाली मीरा गाती थी-हेरी मैं तो प्रेम दिवानी मेरो दरद न जाने कोय, सूली ऊपर सेज हमारी किसविध सोना होय। प्रेम के मार्ग में बेशक काँटे बिछे हुए हैं, किन्तु जब प्रेमी उन काँटों को अपने प्रेम स्वरूप के लिए फूल मान कर आगे बढ़ता है, उन्हें अपने प्रेमी के लिए दिल से लगाता है, तभी मीरा का जहर अमृत बन जाता है। गाँधी जी को लगी गोली उनके अमर जीवन का कारण बन गई। भटकते हुए प्रताप आज मेवाड़ के मुकुट बन गये। कृष्ण प्रेम के मतवाले अंधे सूरदास, राम प्रेम के मतवाले तुलसीदास आज घर-घर मानव हृदय में मूर्त रूप में विराजमान हैं। जब प्रेम काँटों पर चलकर भी मतवाला दृढ़ स्थिर बना रहता है, तभी उसका वास्तविक स्वरूप निखरता है। जो इन विपन्नताओं में परीक्षा काल में भी प्रेम पथ पर अविचल भाव से खड़ा रहता है अपने सत्य के लिए, वही प्रेम साधना की अन्तिम सिद्धि तक पहुँच जाता है। असफलताओं में जो स्थिर रहे वही प्रेम जीवित रहता है।

परीक्षा और कसौटी-

सत्य की उक्त कसौटियों पर अपनी प्रेम साधना के पथ पर आगे बढ़िये, तुच्छ स्वार्थों, आकर्षणों, लेन-देन के लिए प्रेम शब्द का दुरुपयोग और उसको कलंकित मत कीजिए। उन्मुक्त भाव से प्रेम कीजिए समस्त मानव जाति से, प्राणी मात्र से, समस्त वसुधा से। प्रेम में गरीब, अमीर, ऊँचा-नीचा, मेरा-तेरा, भाषावाद, प्रान्तीयता, जाति-पाँति आदि का कोई स्थान नहीं है। इन संकीर्ण बन्धनों को तोड़ कर जब आप प्रेम पथ पर अग्रसर होंगे तभी उस दिव्य प्रेम स्वरूप का पुण्य साक्षात्कार सम्भव हो सकेगा। ज्योतिर्मयी आत्मा के पुण्य प्रकाश में प्रेम का अवलम्बन कीजिए और जीवन लक्ष्य की ओर अग्रसर हूजिए।


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