नारी को समुन्नत किया जाए

January 1963

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पुरुष विष्णु है स्त्री लक्ष्मी, पुरुष विचार हे स्त्री भाषा, पुरुष धर्म है स्त्री बुद्धि, पुरुष तर्क है स्त्री रचना, पुरुष धैर्य है स्त्री शान्ति, पुरुष प्रयत्न है स्त्री इच्छा, पुरुष दया है स्त्री दान, पुरुष मंत्र है स्त्री उच्चारण, पुरुष अग्नि है स्त्री ईंधन, पुरुष समुद्र है स्त्री किनारा, पुरुष धनी है स्त्री धन, पुरुष युद्ध है स्त्री शान्ति, पुरुष दीपक है स्त्री प्रकाश, पुरुष दिन है स्त्री रात्रि, पुरुष वृक्ष है स्त्री फल, पुरुष संगीत है स्त्री स्वर, पुरुष न्याय है स्त्री सत्य, पुरुष सागर है स्त्री नदी, पुरुष दण्ड है स्त्री पताका, पुरुष शक्ति है स्त्री सौंदर्य, पुरुष आत्मा है स्त्री शरीर।

उक्त भावों के साथ विष्णु पुराण में बताया है कि पुरुष और स्त्री की अपने-अपने स्थान पर महत्ता, एक से दूसरे के अस्तित्व की स्थिति, एक से दूसरे की शोभा आदि सम्भव है। एक के अभाव में दूसरा कोई महत्व नहीं रखता। स्त्री पुरुष की समान भूमिका का दर्शन वैदिक काल में बड़े ही व्यवस्थित रूप में था। पुरुषों की तरह ही स्त्रियाँ भी स्वतन्त्र थीं, साथ ही जीवन के सभी क्षेत्रों में भाग लेती थीं। राजनीति, समाज, धर्म सभी में नारी का महत्वपूर्ण स्थान था। कोई भी कार्य नारी के अभाव में पूर्ण नहीं माना जाता था। शिक्षा, संस्कृति में उनका समान अधिकार था। स्त्रियाँ यज्ञोपवीत धारण करती थीं, यज्ञ, वेदाध्ययन आदि में पूरा-पूरा भाग लेती थीं। इसी समय लोपा मुद्रा, धोबा, गार्गी, मैत्रेयी आदि वेदों की मन्त्र द्रष्टा, ब्रह्मवादिनी हुई।

इतना ही नहीं स्त्रियों को विशेष आदर सम्मान का अधिकार देते हुए मनु भगवान ने लिखा है “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता”। जहाँ नारियों का सम्मान नहीं होता उन्हें पूज्य भाव से नहीं देखा जाता, वहाँ सारे फल, क्रियाएँ नष्ट हो जाती हैं।

“यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते, सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः।”

दुर्व्यवहार की कुचेष्टा-

परिस्थितियों के बदलने के साथ ही नारी जीवन की दुर्दशा शुरू हो गई और कालान्तर में उसके स्वतन्त्रता, समानता, आदर के अधिकार छीन कर उसे घर की चहार दीवारी, पर्दों की ओट में बन्द कर दिया गया। बाह्य आक्रमणों के काल से भारतीय नारी जीवन की भारी दुर्दशा हुई और नारी का गौरव, सम्मान, अधिकार सब छीन लिए गये। नारी एक निर्जीव गुलाम की तरह पीड़ित की जाने लगी। उसका दमन होने लगा।

नारी का परिवार में जो गृहलक्ष्मी, गृहिणी का स्थान था, वहाँ उसे सास, ससुर, पति, देवर, नन्द, जिठानी के अत्याचारों का सामना करना पड़ा, पति के मर जाने पर उसे राक्षसी, कुलटा, दुराचारिणी कहा जाने लगा, अथवा जीवित ही ज्वाला में झोंक दिया गया सती के नाम पर। समाज में किसी व्यक्ति का देख लेना, बात चीत कर लेना उसके चरित्र का कलंक समझा जाने लगा। पुरुष ने साम दाम दण्ड भेद से मनचाहा नारी पर शासन किया, अत्याचार किये उस पर।

फलतः मानव जीवन का अर्द्धांग बेकार, हीन, अयोग्य बन गया। आधे शरीर में लकवा दौड़ जाने पर सारे शरीर का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाता है। ठीक यही बात हमारे जीवन के साथ हुई। हमारे सामाजिक पतन, का मुख्य कारण स्त्रियों की यह दुरवस्था भी रही है।

नारी का विकास आवश्यक-

राष्ट्र को विकास और स्वतन्त्रता की नई प्रेरणा देने वाले महापुरुषों ने इस कमी को अनुभव किया और समाज को सशक्त सबल बनाने के लिए स्त्रियों के अधिकारों की नई परिभाषा करनी पड़ी। उनकी दुरवस्था, शोषण, उत्पीड़न को बन्द करके पुरुष के समान अधिकार देने का पूरा-पूरा प्रयत्न किया। राजा राममोहन राय ने सती प्रथा के विरुद्ध आवाज उठाई। महर्षि दयानन्द ने नारी के अधिकारों का व्यापक आन्दोलन ही चलाया। स्वामी विवेकानन्द के समाज को चेतावनी दी कि “जिस देश राष्ट्र में नारी की पूजा उसका सम्मान नहीं होगा, वह राष्ट्र, समाज कभी भी उन्नत और महान नहीं हो सकता। लाला लाजपतराय ने कहा “स्त्रियों का प्रश्न पुरुषों का प्रश्न है। दोनों का ही एक दूसरे के जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है। पुरुषों की उन्नति के लिए सदैव ही स्त्री के सहयोग की आवश्यकता है।” महामना मदन मोहन मालवीय ने विधिवत् विद्वानों का सम्मेलन करके स्त्रियों के लिए यज्ञोपवीत, वेदाध्ययन, यज्ञ आदि सामाजिक कृत्यों में पूर्ण अधिकारों की घोषणा की। शारदा एक्ट, मैरेज एक्ट आदि बने। विवाह आदि की मर्यादायें निश्चित की गईं। भारतीय संविधान में लड़की को भी उत्तराधिकार, आर्थिक क्षेत्र में तथा अत्याचार के विरुद्ध बोलने का अधिकार देकर नारी जाति की स्वतन्त्रता, सुरक्षा, विकास और उसकी समानता का प्रयत्न किया गया।

लक्ष्य से बहुत पीछे-

इन सब प्रयत्नों के बावजूद अभी भारतीय नारी अपने लक्ष्य से बहुत पीछे है। पर्दा प्रथा, दहेज लड़के-लड़की में असमानता का भाव आदि कुछ कम अभिशाप नहीं हैं नारी के लिए। अब भी भारतीय स्त्रियों की बहुत बड़ी संख्या घर की चहार दीवारी के भीतर कैद है। उन्हें सदाचार शील आदि का बहाना लेकर पर्दे बुर्का आदि में बन्द कर रखा है। जिस पौधे को पर्याप्त प्रकाश, हवा नहीं मिलती वह मुरझा जाता है। अधिकाँश स्त्रियों में भी पीले चेहरे, बीमारियाँ, रोग, कुछ कम नहीं फैल रहे हैं। अब भी स्त्री को वासना तृप्ति का साधन समझा जाता है। एक स्त्री के मरने पर ही नहीं, उसके जीवित रहते दूसरे ब्याह, दूसरी स्त्रियों से संपर्क किए जाते हैं। बड़े-बड़े नगरों, शहरों में वेश्याओं के केन्द्र नारी जीवन की दुर्गति और समाज के कलंक के रूप में अब भी प्रकट अथवा अप्रकट रूप में स्थित हैं।

हमारे पारिवारिक जीवन में नारी पर घर वालों के द्वारा होने वाले अत्याचार अब भी बने हुए हैं। उन्हें सताया जाता है। ताड़ना दी जाती है। गुलामों की तरह रहने को बाध्य किया जाता है। अन्य लोगों को खाने को अच्छा मिलता है जबकि सारा काम करने वाली बहू रूखा सूखा खाकर पेट भरती है। यह उन चन्द शहरी या शिक्षित घरानों की बात नहीं वरन् भारत के अस्सी प्रतिशत परिवारों की कहानी है जो गाँवों में बसे हैं। दहेज क्या नारी का अपमान नहीं है?

प्राचीन सम्मान पुनः मिले-

सुधार के विभिन्न प्रयत्नों के बावजूद भी यथार्थ की धरती पर भारतीय नारी का जीवन अभी बहुत बड़े क्षेत्र में अविकसित पड़ा है । यह हमारे सामाजिक जीवन, पुरुष के अर्द्धांग की विकृति है जिसने सारी प्रगति को ही अवरुद्ध कर रखा है। अन्ध परम्परा, अन्ध विश्वास, रूढ़िवाद, संकीर्णता व्यर्थ के अभिमान को त्याग कर नारी को उसके उपयुक्त स्थान पर प्रतिष्ठित करना आवश्यक है। इसी में पुरुष और समाज तथा राष्ट्र को उन्नति निहित है नारी का उत्थान पुरुष का उत्थान है। नारी की प्रगति पुरुष की प्रगति है। दोनों का जीवन परस्पर आश्रित है।


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