आगामी साढ़े आठ वर्ष

January 1963

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आये दिन लोग हमें पूछते रहते हैं कि चीन के युद्ध का क्या परिणाम होगा और यह कितने दिन चलेगा? प्रश्नकर्ताओं में से अधिकाँश लोग वे होते हैं जो अपने कमाने खाने की सरल व्यवस्था में लड़ाई के कारण विक्षेप उत्पन्न हुआ समझते हैं और उस झंझट को जल्दी ही सुलझा हुआ देखना चाहते हैं। कुछ ऐसे भी होते हैं जो डरते हैं कि लड़ाई बढ़ी तो हमें धन जन की हानि उठानी पड़ेगी। कुछ को कौतूहल और जिज्ञासा प्रधान होती है। कुछ लोग भविष्यवाणियों की सचाई को परखने के लिए ऐसा पूछते रहते हैं। इन लोगों में धैर्य और साहस उत्पन्न करने वाले उत्तर समय-समय पर हम देते भी रहते हैं। आज इस लेख में इस सम्बन्ध की सार्वजनिक चर्चा करेंगे।

लड़ाई कब तक चलेगी?-

हममें से प्रत्येक को यह भली प्रकार समझ लेना चाहिए कि यह लड़ाई अभी 8॥ वर्ष और चलेगी। अज्ञातवास से लौटते ही हमने यह घोषणा की थी कि सूक्ष्मदर्शी तपस्वियों और योगियों के मतानुसार भारत के लिए आगे के दश वर्ष अग्नि परीक्षा के समान महत्वपूर्ण, और प्रसव वेदना के समान कष्टकारक होंगे। सहस्रपुटी मकरध्वज रसायन की तरह उसे अगिन संस्कार सहने और कच्ची धातु से भट्टी में अनेक शोधन संस्कार सहन कर परिपक्व धातु बनने जैसी कष्ट साध्य प्रक्रिया में होकर गुजरना पड़ेगा। अष्टग्रही योग का प्रभाव, या और भी जो चाहे सो इसे कहा जाय पर नियति की एक निश्चित व्यवस्था यह है कि हमें कठिनाइयों के एक बड़े दौर में होकर गुजरना पड़ेगा। उस बात को कहे हमें 1॥ वर्ष बीत गया, अभी 8॥ वर्ष और बाकी हैं। इतनी अवधि तक भारत के प्रत्येक नागरिक को एक शूरवीर सैनिक की तरह ढाल तलवार लेकर नियति का स्वागत करने के लिये तत्पर रहना चाहिए, रहना भी होगा।

गोलाबारी एक साधारण बात-

लड़ाई के मोर्चे पर अभी गोलाबारी बन्द है। यह फिर भड़केगी या नहीं, यदि भड़केगी तो कब मारकाट शुरू होगी? इसका कोई बड़ा महत्व नहीं है। गोलियाँ चलाने या बन्द होने से लड़ाई की स्थिति पर बहुत थोड़ा अन्तर पड़ता है। युद्ध के वास्तविक कारण यदि बने रहें और युद्धरत पक्ष अपने दाव घात के लिये कुछ दिन लड़ाई रोके रहें तो उसे युद्धबन्दी नहीं माना जा सकता। प्राचीन काल में सेनाएँ रात्रि के समय नहीं लड़ा करती थीं क्योंकि उस समय अन्धकार में लड़ना किसी भी पक्ष को सुविधाजनक न था। दिन निकलते ही लड़ाई फिर शुरू हो जाया करती थी। उस समय रात्रि की बन्दी को कोई भी लड़ाई की समाप्ति नहीं मानता था। उसे क्षणिक विराम ही समझा जाता था। आज भी वही स्थिति है। चीन थोड़े दिनों अपनी सुविधा और तैयारी के लिए कुछ समय लड़ाई बन्द रख सकता है। बीच बचाव कराने की कोशिश वाले लोगों को भी कुछ समय और गुजार देने का श्रेय मिल सकता है पर इससे वस्तु स्थिति में कोई अन्तर नहीं आता। लड़ाई की तैयारी फिर भी जारी रहेगी और युद्ध की स्थिति बराबर बनी रहेगी।

आक्रमणकारी के इरादे-

यह भली प्रकार समझ लेने की बात है कि चीन ने निर्जीव अनुपयोगी और उसके लिए सर्वथा अनावश्यक एक छोटे से भूखण्ड के लिए इतनी विपुल तैयारी के साथ युद्ध नहीं छेड़ा है। इतने नगण्य लाभ के लिये इतनी भारी जोखिम उठाने के लिये कोई बुद्धिमान कदापि तैयार न होगा। उसके इरादों में एक अत्यन्त क्रूर दुरभिसंधि छिपी हुई है। वह भारत को अपने साम्राज्य का अंग बनाकर संसार की सर्वोपरि शक्ति बनने के स्वप्न देख रहा है। उसकी यह रावण और भस्मासुर जैसी महत्वाकाँक्षा अब इतनी उग्र हो उठी है कि उसका समाधान तभी संभव है जब उसको मुँह कुचल देने की प्रतिपक्षी शक्ति का सामना करना पड़ेगा। भारत जब तक उतना समर्थ नहीं हो जाय कि सैनिक दृष्टि से उसके दाँत तोड़ सके जब तक चीन केवल अपने हथकण्डे बदलता रहेगा लड़ाई की तैयारी बन्द न करेगा। नेपोलियन और सिकन्दर की तरह आज तो उसे विश्वविजय की धुन है। इस नशे को उतारने की औषधि जब तक मिल न जाय तब तक उसका नशा ऐसा ही चढ़ा रहने वाला है। ऐसी दशा में शान्ति होने की आशा कैसे की जा सकती है?

पड़ौसी पाकिस्तान भी तो अपनी करतूतों से पीछे नहीं हट रहा है। उसे समझाने के लिए भी शक्ति की ही जरूरत पड़ेगी। हमें दुर्बल समझकर दोनों ही अपने-अपने ढंग से लाभ उठाने की सोच रहे हैं। और भी ऐसे अनेकों होंगे या हो सकते हैं जो हमें कमजोर समझने का अनुमान लगाते हों और अपने दाव घात तैयार कर रहे हों। भारत के सिर पर जिस प्रकार की अप्रत्याशित लड़ाई आकर सवार हो गई है, वैसा तभी हुआ करती है जब दूसरे लोग सामने वाले की कमजोरी का अनुमान लगाते हैं और उसे किसी भी बहाने दबाकर अनुचित लाभ उठा लेना सरल समझते हैं।

शक्ति की परीक्षा का प्रयत्न-

सम्भव है हमारे पड़ौसियों ने हमें ऐसा ही समझा हो और उसी की आजमायश के लिये पहली टक्कर इस लड़ाई के रूप में देकर शक्ति परीक्षा का प्रयास किया हो। हो सकता है कि इस प्रथम परीक्षा में आक्रमणकारी को अपना अनुमान गलत साबित होने का अवसर मिले और वह दूसरी टक्कर को अलाभकारी समझ कर पीछे हट जाय। और फिर किसी अन्य अवसर का प्रतीक्षा करे। यह शत्रु का अपना दृष्टिकोण हो सकता है कि वह क्या सोचे और क्या करे इससे अपना कोई वास्ता नहीं। हमें तो अब विवश होकर शक्ति संग्रह में लगना होगा और अपने को इतना मजबूत बनाना होगा कि दुर्बलता से अनुचित लाभ उठाने का लालच किसी पड़ौसी को न आवे। अपनी शक्ति और सुरक्षा के लिये हमें युद्ध स्तर पर ही तैयारी करते रहनी पड़ेगी और चाहे गोली चले या न चले हमें उसी तैयारी में प्रवृत्त रहना होगा जैसी कि युद्धकाल में होती है। हमारे लिये आठ वर्ष छह मास तक युद्ध की ही स्थिति बनी रहनी है। तीसरे महायुद्ध का-अणु शक्ति से मानव सभ्यता के विनाश का समीप आता खतरा भी अब जा रहा है। उस समय के लिये भी हमें शक्ति चाहिये। इस संग्रह का कार्यक्रम युद्ध स्तर की तैयारी से किसी भी प्रकार कम नहीं हो सकता।

यह भी हो सकता है-

इन बातों का ध्यान रखते हुए अब गोली चलने या या चलने का विचार छोड़कर भारत की आत्मरक्षा के लिये अपने को सैनिक और नागरिक दृष्टि से सबल बनाने के लिए युद्ध स्तर पर ही तैयारी जारी करनी होगी। और जन साधारण को उसी तप, त्याग की वृत्ति का परिचय देते रहना होगा जैसा कि युद्ध के समय में दिया जाता है। शीत ऋतु की प्रतिकूलता कम होते ही सम्भव है चीन फिर आक्रमण करे। ऐसी दशा में हममें से प्रत्येक को घरेलू काम काजों की दूसरी व्यवस्था बनाकर सैनिक मोर्चे पर जाने के लिये और बड़ी से बड़ी कुर्बानी करने के लिए तैयार रहना चाहिए। हमने स्वयं भारत सरकार के रक्षा मन्त्री को लिखा है कि “आवश्यकता के समय कभी भी किसी भी काम के लिए, कहीं भी जाने के लिये हमें बुलाया जा सकता है। राष्ट्र रक्षा के लिये हर क्षण हम बड़ी से बड़ी कुर्बानी के लिए तैयार हैं।’ हमें भरोसा है कि इस प्रकार प्राण दान करने वालों में हम अकेले ही नहीं, हमारे साथ और भी बहुत से होंगे। पिछले चालीस वर्षा में स्वाधीनता संग्राम की प्रत्येक प्रवृत्ति में हमने जी खोलकर भाग लिया है। सालों जेल खाने की यंत्रणाएं सही हैं और त्याग बलिदान के भयंकर से भयंकर अवसरों का हँसते हुए स्वागत किया है । यदि पुनः मातृ-भूमि की रक्षा के लिए प्राणदान का अवसर आता है तो उसे हम सौभाग्य के अतिरिक्त और क्या समझ सकते है? मृत्यु का सब से श्रेष्ठ स्वरूप यही है कि वह उच्च आदर्श की रक्षा करते हुए, कर्तव्य पालन की वेदी पर किसी मनुष्य को प्राप्त हो। ऐसी मृत्यु हमारे लिये सबसे अधिक आनन्द और प्रसन्नता का वरदान बनेगी।

दूसरा महत्वपूर्ण युद्ध-मोर्चा -

किन्तु यदि ऐसा अवसर न भी आये तो भी हमें आगामी 8॥ वर्षों तक अग्नि परीक्षा में हर घड़ी तपते रहने के लिए प्रस्तुत ही रहना चाहिए। किसी भी समाज या राष्ट्र की सबसे बड़ी कमजोरी उसके नागरिकों की आत्मिक दुर्बलता हुआ करती है। यह दुर्बलता जहाँ होगी वहाँ सारे साधन होते हुए भी शोक, सन्ताप, क्लेश, कलह, अभाव, दारिद्र का ही वातावरण बना रहेगा। धन और शस्त्रों की समुचित व्यवस्था होते हुए भी यदि आत्मबल का अभाव रहे तो यह सारे साधन व्यर्थ ही सिद्ध होंगे। कायर सैनिक घबराहट, और बुज़दिली के कारण जीती बाजी को हार में बदल सकते हैं। शत्रु के सहायक बन सकते हैं और अपने हथियारों का लाभ शत्रु को दे सकते हैं। इसके विपरीत यदि सैनिकों की नस-नस में उच्च आदर्श भरा हो तो वे स्वल्प साधनों से भी मरते दम तक शत्रु से लोहा लेते रह सकते हैं। यही बात जीवन के हर क्षेत्र में लागू होती है। बेईमान स्वार्थी, कायर और दुर्बुद्धि मनुष्य अपने लिये ही नहीं और सब के लिये भी विपत्ति का कारण बनता है। ऐसे लोगों की संख्या जहाँ अधिक होगी वहाँ चारों ओर कमजोरी और अशान्ति ही छाई रहेगी। इस स्थिति को सुधारना और सँभालना भी रक्षा कार्यों का एक महत्वपूर्ण अंग होता है।

यह सरकार करे और यह हम करें-

कारखाने लगाकर अस्त्र-शस्त्र बनाये जा सकते हैं। ऊँचे वेतन देकर सैनिक भर्ती किये जा सकते हैं। टैक्स लगाकर धन प्राप्त किया जा सकता है। यह कार्य सरकार के लिये बहुत कठिन नहीं है। चतुर युद्ध विद्या विशारद मोर्चे पर ठीक रणनीति के द्वारा दुश्मन के दाँत खट्टे कर सकते हैं। पर जन-मानस में प्रविष्ट हुई दुष्प्रवृत्तियों को हटा सकना सरकार के बस बूते की बात नहीं है। यह कार्य धर्म, नीति और सदाचार की प्रेरणा दे सकने वाले व्यक्ति ही कर सकते हैं। हम लोग अब आगामी 8॥ वर्ष तक इस मोर्चे को सँभाले रहेंगे और राष्ट्र को सच्चे अर्थों में मजबूत बनाने के लिए- जन-मानस में कर्तव्यनिष्ठा, सदाचार, पराक्रम एवं आदर्शवाद को गहराई तक


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