“बेटा ले ये दो टुकड़े मिठाई के हैं। इनमें से यह बड़ा टुकड़ा तू स्वयं खा लेना और छोटा टुकड़ा अपने साथी को दे देना।”
“अच्छा माँ” और वह बालक दोनों टुकड़े लेकर बाहर आ गया अपने साथी के पास। साथी को मिठाई का बड़ा टुकड़ा देकर छोटा स्वयं खाने लगा। माँ यह सब जंगले में से देख रही थी। उसने आवाज देकर बालक को बुलाया।
“क्यों रे! मैंने तुझसे बड़ा टुकड़ा खुद खाने और छोटा उस बच्चे को देने के लिये कहा था, किन्तु तूने छोटा स्वयं खाकर बड़ा उसे क्यों दिया? “
वह बालक सहज बोली में बोला-”माताजी दूसरों को अधिक देने और अपने लिये कम से कम लेने में मुझे अधिक आनन्द आता है।”
माता जी गंभीर हो गई । वह बहुत देर विचार करती रहीं बालक की इन उदार भावनाओं के संबंध में। उसे लगा सचमुच यही मानवीय आदर्श है और इसी पर विश्व शाँति की सारी संभावनाएँ निर्भर हैं। मनुष्य अपने लिए कम चाहे और दूसरों को अधिक देने का प्रयत्न करे तो समस्त संघर्षों की समाप्ति और स्नेह, सौजन्य की स्वर्गीय परिस्थितियां सहज ही उत्पन्न हो सकती हैं।