सर्व सम्पन्न श्रावस्ती नगर में भयंकर अकाल पड़ा, पशु-पक्षी नर-नारी खाद्य के अभाव में कीड़ों की तरह मरने लगे। सारी नगरी मरघट सी दिखाई दे रही थी। महात्मा बुद्ध ने यह देखा तो बड़े दुःखी हुए। उन्होंने श्रावस्ती के धनीमानी व्यक्ति यों को बुलाया और ऐसे भीषण समय में देश की सहायता के लिए कहा किन्तु किसी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। सब उठ उठकर चले गये। धनवानों को तो अपने भण्डार भरे रखने थे स्वयं के लिए, मानवता के लिए खर्च करना उन्हें अपव्यय लगता था। लोग कहीं जबरन उनसे खाद्य सामग्री न छीन लें इस भय से दरवाजे बन्द करके बैठ गये। महात्मा बुद्ध काफी निराश हुए। इतने में ही एक कुलीन घर की लड़की आई और बोली “महात्मन्! आज से मैं श्रावस्ती नगरी के अकाल पीड़ितों की सेवा की प्रतिज्ञा करती हूँ। सबके भोजन जुटाने के लिए मैं प्रयत्न करूंगी”। लोग एक छोटी सी बालिका के मुँह से ऐसी बात सुनकर दंग रह गये । कई मजाक भी करने लगे। “बेटा सुप्रिया! इतने बड़े राज्य का, नगर का भरण-पोषण कैसे करोगी? तुम्हारे घर वाले तो कुछ देंगे भी नहीं।” महात्मा बुद्ध ने पूछा।
“महाराज मुझे घरवालों के देने न देने की चिन्ता नहीं है। मैं घर-घर भिक्षा माँगूँगी, नगर-नगर जाकर लोगों को पीड़ितों की सहायता के लिए प्रेरणा दूँगी, जिससे ऐसे संकट में अनेकों का भला होगा। देश के लिए, मानवता के लिए मैं भीख माँगूँगी, घर-घर घूमूँगी। महाराज आप आशीर्वाद दें।” सुप्रिया ने कहा। महात्मा बुद्ध को एक आशा की चिनगारी नजर आई। बालिका के संकल्प से प्रसन्न होकर उसे आशीर्वाद दिया।
बालिका घर-घर घूमकर क्षुन्धार्तों के लिए अन्न माँगने लगी। जिनके पास था वे मना न कर सके। देखते-देखते इतना अन्न जमा होने लगा कि भूख से प्राण त्यागने वालों की आसानी से जीवन रक्षा होने लगी।
तथागत ने शिष्यों को बुलाकर कहा - “संसार में सत्य बहुत है, धर्म बहुत है, पर उसका उद्बोधन करने वाले नहीं हैं। सुप्रिया ने घर-घर जाकर धर्म का उद्बोधन किया और लोगों की धर्म बुद्धि को जगाया तो आज सहज ही एक बड़ी कठिनाई हल हो गई। तुम भी इसी मार्ग को अपनाना, ऐसा ही आचरण करना।”