श्रम से ही जीवन निखरता है।

January 1963

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जिन वस्तुओं से जितना अधिक काम लिया जाता है वह उतनी ही चमकीली बनती हैं। बेकार पड़ी हुई वस्तुओं तो को जंग लग जाती है। जो मशीन काम में आती रहती हैं वे जल्दी ही खराब नहीं होती। बेकार पड़ी हुई मशीन कुछ ही समय में बेकार हो जाती है। उनके बाह्य आकार से लेकर आन्तरिक सूक्ष्म पुर्जे तक खराब, अनुपयोगी हो जाते हैं। मानव शरीर तो अन्य मशीनों से बहुत ही महत्वपूर्ण चेतन और जड़ की सम्मिलित रचना का सर्वोपरि नमूना है। उद्योग के अभाव में, बेकारी में शरीर और मानसिक स्थितियाँ विकृत हो जाती हैं, मनुष्य को मानसिक और शारीरिक रोगों को शिकार होना पड़ता है।

श्रम ही चमकता है

उद्यमशील व्यक्ति यों का मुख मण्डल सदैव चमकता हुआ दिखाई देता है और अकर्मण्य व्यक्ति सदैव क्लाँत, उद्विग्न, दुःखी और खोटी कल्पनाओं में फँसे देखे जाते हैं। परिश्रमी ही सबसे अधिक सुखी, प्रसन्न और सन्तुष्ट रहते हैं। वे भले ही भौतिक सम्पत्ति, समृद्धि में बड़े न हों किन्तु उनका आन्तरिक धन, जिसमें मानसिक सन्तोष, हल्केपन, और प्रसन्नता का वे अनुभव करते हैं वह संसार की सबसे बड़ी सम्पत्ति है।

परिश्रम से ही स्वास्थ्य में सुधार होता है। उद्यमी व्यक्ति थक कर अपनी शय्या में प्रवेश करता है और उसे स्वास्थ्यवर्धक उत्तम नींद आती है। प्रातः उठने पर वे तरोताजगी, प्रफुल्लता, व्यक्ति, प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। आलसी, अकर्मण्य ही दुःस्वप्नों, अनिद्रा में पड़े हुए सुबह भी आलस्य, चिन्ता-भार सा महसूस करते हुए उठते हैं।

परिश्रम, कर्म ही जीवन की स्थिति का कारण है। अकर्मण्यता, आलस्य मृत्यु की ओर अग्रसर होने का प्रयत्न है। गति (स्पन्दन) हीन लाश को लोग जल्द ही नष्ट कर डालते हैं। जब तक सोना है तब तक सोते रहे किन्तु जागते हुए रह कर आलस्य में, उद्योगहीनता में समय बिताना पतन, मृत्यु को निमंत्रण देना है।

आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए

परिश्रम, उद्योग जीवन की प्राथमिक आवश्यकता है, जिसकी पूर्ति के बिना अन्य आवश्यकता के लिए कोई स्थान नहीं है। भोजन, वस्त्र और जीवन की सभी आवश्यकताओं के लिए श्रम किया जाए, श्रम से ही इनकी प्राप्ति की जाए। बिना श्रम के अपनी आवश्यकता पूर्ण करना चोरी है। जिस तरह चोर किसी का धन, सम्पत्ति चुरा कर अपनी आवश्यकतायें पूर्ण करता है। वैसे ही श्रम के अभाव में जीवन की साधन सम्पत्ति जुटाना चोरी के साथ ही दूसरों का शोषण है। क्योंकि साधनों का अस्तित्व श्रम से ही है। दूसरों के श्रम से उपार्जित वस्तुओं का उपभोग, बिना श्रम का बदला चुकाये करना चारीडडडडडड शोषण तो है ही। अपनी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किसी न किसी रूप में श्रम करना आवश्यक है।

रोटी के लिए श्रम सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हुए महात्मा और उनके पूर्व चिन्तकों ने एक नई प्रेरणा मानव जाति को दी है। भारतीय जीवन व्यवस्था में तो हमारे ऋषियों ने पहले ही इसका व्यवस्थित कार्यक्रम बनाया था, और उसके अभ्यास के लिए जीवन के प्रारम्भ के वर्षों में ब्रह्मचारी को गुरु के आश्रम में रहकर कठिन श्रम करना पड़ता था। महाराजा जनक जैसे ज्ञानी भी हल चला कर जीवन निर्वाह की वस्तु उपलब्ध करते थे। आध्यात्मिक साधनाओं में लीन ऋषि मुनि भी वन के कन्दमूल फल, अथवा खेत में बिखरे पड़े रहने वाले दानों से जीवन निर्वाह करके अपना सम्पूर्ण समय लोक कल्याणार्थ आध्यात्मिक साधनाओं में बिताते थे। महर्षि दुर्वासा, कणाद, पिप्पलाद आदि इसी आदर्श के प्रतिष्ठापक थे। किन्तु हम श्रम के इस महत्व को भूल गये और इसी कारण आलस्य, अकर्मण्यता से हमारा पतन हुआ।

ज्ञान और कर्म का सम्बन्ध

ज्ञानी, ज्ञान की बातें कहना मात्र अपना काम समझने लगे। ब्राह्मण दान, दक्षिणा, भिक्षा को अपना अधिकार-सा समझने लगे। राजा महाराजा अपने आपको धरती पर भगवान का रूप समझने लगे। वणिक वृत्ति के लोगों ने बिना श्रम के तिकड़म, चालाकी, बुद्धि के चातुर्य को अपना पेशा मान लिया । उत्पादन का सारा बोझ किसान पर पड़ गया । किसान का शोषण होने लगा और उसे समाज का निम्न अंग मान लिया गया। फलतः आज तक भी किसान अपनी दीनावस्था में पड़े हुए हैं। अकर्मण्यता, आलस्य आदि ने हमारे पौरुष को ही नष्ट कर दिया। पुरुषार्थ, स्वाभिमान, उत्साह को दबा दिया। बिना श्रम के हमारा उत्थान भी नहीं हो सकता। भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, चोरी, बेईमानी मिलावट, धोखाधड़ी और इसके साथ ही फिजूलखर्ची, अपव्यय, फैशनपरस्ती का अस्तित्व उन कुसंस्कारों का परिणाम ही है जिनका परिष्कार श्रम की प्रतिष्ठा करने पर ही होगा।

पश्चिमी देशों ने श्रम के बल पर अपनी भौतिक और शारीरिक क्षमताओं में सर्वोपरि स्थान प्राप्त कर लिया। वे कुछ ही वर्षों में संसार के शक्ति -शाली समृद्ध राष्ट्र बन गये। यह हमारे लिए अनुकरणीय है।

दबाव से नहीं प्रेमपूर्वक

श्रम स्वेच्छापूर्वक किया जाना चाहिए। दबाव द्वारा अथवा किसी भय के कारण श्रम एक भार बन जाता है और जीवन के आकर्षण को नष्ट कर देता है। श्रम में जो सुखद आनन्द मिलना चाहिए वह नहीं मिलता। दबाव से मनुष्य का शरीर काम में लगा रहता है किन्तु मन साथ नहीं देता। ऐसी अवस्था में काम को टालने अथवा उसको जैसे-तैसे पूरा करने की भावना, अथवा सुघड़ता से करने की लगन में अभाव से कार्य के उपयुक्त परिणाम की आशा नहीं की जा सकती।

श्रम से प्रेम करना ही श्रम का सही आधार है प्रेमपूर्वक खूब श्रम करना और श्रम से उत्पन्न आमदनी, उत्पादन का भाग अपनी जरूरी आवश्यकता की पूर्ति में लगा कर शेष को समाज की सेवा में, जन कल्याण में लगा देना और फिर श्रम करने के लिए तैयार रहना श्रम की प्रतिष्ठा के लिए आवश्यक है। आवश्यकता से अधिक उत्पादन का संग्रह करते रहने से जब आवश्यकता पड़ने पर सरलता से उसकी पूर्ति हो जाती है तो श्रम की आवश्यकता महसूस नहीं होती और मनुष्य श्रम से जी चुराने लगता है। इसीलिए भारतीय जीवन दर्शन में परिग्रह का निषेध करके दान, त्याग परोपकार को आवश्यक धर्म कर्तव्य बताया गया है जिससे मनुष्य के पास कुछ संग्रह ही न हो और वह श्रम के लिए सदैव तैयार रहे।

इस तरह श्रम अस्तेय के सिद्धांत का निष्कर्ष है और अपरिग्रह की सिद्धि का साधन है। श्रम-शील चोर नहीं होता वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति स्वयं करता है। वही अपरिग्रही हो सकता है क्योंकि त्याग दान आदि के लिए उसके पास सच्ची कमाई है। हजारों आदमियों के श्रम से उत्पन्न साधन सम्पत्ति का मालिक बनने वाला एक करोड़पति यदि एक लाख रुपये समाज सेवा अथवा दान आदि में लगा देता है तो वह कोई बड़ी बात नहीं हुई। उसका पुण्य एक लोक दिखावा मात्र है, वास्तविक पुण्य नहीं। इसके विपरीत अपने श्रम से उत्पादन करने वाला एक किसान लोक कल्याण के कार्यों में कुछ रुपये भी लगा देगा तो सिद्धान्ततः वह बड़ा परोपकारी, समाज सेवक, परमार्थ प्रिय माना जाना चाहिए।

श्रम के वरदान

श्रम से जीवन में सुख शान्ति सन्तोष प्राप्त होता है क्योंकि अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति का आधार मनुष्य स्वयं होता है। स्वावलम्बन, आत्म निर्भरता एवं श्रमशीलता ही मनुष्य को सच्ची आत्म शान्ति प्रदान करते हैं। शोषक, चोर, परावलम्बी सदैव असन्तुष्ट दुःखी परेशान क्लेश युक्त देखे जाते हैं। गाँव का एक किसान अधिक सीधा, सरल, उत्साही और प्रसन्न है, रहता बनिस्बत एक चोरबाजारी करने वाले, रिश्वतखोर, धोखाधड़ी करने वाले के। श्रम और स्वास्थ्य का तो अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। अकर्मण्य आलसी, दूसरों के श्रम पर जीने वाले सदैव रोगी, निर्बल, क्षीणकाय देखे जा सकते हैं। शहरी जीवन चाहे वह अन्धेरे में रहने से, लीपा पोती करने से, वायु भर जाने से कितना ही सफेद मोटा, ताजा आकर्षक दिखाई दे, किन्तु गाँव के दुबले पतले कृषक के सामने उसके स्वास्थ्य का खोखलापन सरलता से जाना जा सकता है। क्षय, बुखार, दमा, पेट के रोग, स्नायविक विकार, जितने शहरी जीवन में घुसे हुए हैं उतने देहाती जीवन में नहीं देखे जाते। देहात आज भी श्रमशीलता के मन्दिर बने हुए हैं जिनकी तीर्थ यात्रा करे बिना हमारे समाज और राष्ट्र का उत्थान नहीं हो सकता। श्रम-केन्द्र देहातों को महत्व देकर ही हम अपने अस्तित्व को कायम रख सकते हैं। शहरों में श्रम की उपेक्षा करके जो कृत्रिम वातावरण बना, फैशनपरस्ती बढ़ी विलासिता पनपी उसी ने वहाँ स्वास्थ्य संकट पैदा कर दिया।

सादगी और सरलता का मार्ग

श्रम और स्वास्थ्य की तरह नैतिक सद्गुण तथा सादगी का भी निकटतम सम्बन्ध है। जहाँ श्रम होगा, मिट्टी, खान, जंगल, और निर्माण केन्द्र काम होता होगा। वहाँ बनाव शृंगार की, फैशन परस्ती की कोई गुंजाइश नहीं है। ग्रामीण जनता को कहाँ फुरसत है इसके लिए। कभी देखा है किसी खेत, गौशाला, में काम करती ग्रामीण स्त्री को फैशन की चमक-दमक भरी साड़ी पहने, मुँह पर तरह-तरह के रंग पोते। किसी किसान को कभी देखा है मोजे चमकदार जूते चढ़ाये क्रीज्ड पैंट कोट टाई हैट लगाये आँखों पर चश्मा चढ़ाये , जब वह अपने हल पर काम करता है। वही सीधा साधा परिधान “चार रोटी-एक लंगोटी” और उस पर भी हँसता गाता प्रफुल्लतापूर्ण जीवन। बादलों को देख कर वह मस्ती, खेतों की हरियाली छटा में से नवरक्त का संचार ये श्रमदेव के अमूल्य वरदान उन्हें ही प्राप्त होते हैं।


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