कृतज्ञता

January 1963

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भारतेन्दु हरिशचन्द्र बड़े दानी थे। असीम दानशीलता और उदारता से वे निर्धन हो चुके थे। उनकी स्थिति ऐसी हो गयी थी कि आने वाले पत्रों का जवाब भी वे कंगाली के कारण नहीं दे सकते थे। वे लिख-लिख कर उसे लिफाफे में बन्द करके मेज पर प्रतिदिन रख देते । टिकट के अभाव में उन्हें नहीं भेज पाते। एक दिन उनका एक मित्र उनसे मिलने आया। उसने भारतेन्दुजी की मेज पर पत्रों का ढेर देखकर पाँच रुपये के टिकट मंगवाये और उन पत्रों को पोस्ट आफिस पहुँचाया।

कुछ समय बाद भारतेन्दु जी की स्थिति सुधरी। आर्थिक समस्या सुलझी। अब उनके वे मित्र जब भी आते भारतेन्दु जी उनकी जेब में एक पाँच का नोट चुपके से रख देते और पूछने पर कहते आपने मुझे पाँच रुपये ऋण दिये थे वे हैं ।

यही क्रम कई बार चलता रहा। एक दिन वह मित्र बोला-अब मुझे आपके यहाँ आना बन्द करना पड़ेगा।

इस पर भारतेन्दु जी ने आँखें डबडबाते हुए कहा- मित्र आपने मुझे ऐसे समय सहायता दी थी जिसे मैं जीवन भर नहीं भूल सकता । यदि मैं प्रति दिन भी एक पाँच रुपये का नोट आपको देता रहूँ तो भी आपके ऋण से उऋण नहीं हो सकता।


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