नम्रता नैतिक और आध्यात्मिक क्षेत्र की वह भावना है, जो सब मनुष्यों में, सब प्राणियों में, स्थित शाश्वत सत्य से , ईश्वर से सम्बन्ध कराती है। इस तरह उसे जीवन के ठीक-ठीक लक्ष्य की प्राप्ति कराती है। जगत में उस शाश्वत चेतना का, ईश्वर का दर्शन कर, मनुष्य का मस्तक श्रद्धा से झुक जाता है, वह आत्मविभोर हो कर कह उठता है-
“सिया राम मय सब जग जानी,
करहुँ प्रणाम जोरि जुग पानी।”
घट घट वासी राम, परम सत्य के दर्शन कर, सन्तों ऋषियों ने उसे मस्तक नवाया। नम्रता का अर्थ ही है सर्वत्र आसीन शाश्वत ईश्वर की अनुभूति करना और उसे स्वीकार करना, महत्व देना।
आत्म विश्वास, शक्ति, सद्भावना, साहस, गम्भीरता, विनम्रता का ही दूसरा रूप है। जहाँ अनन्त शक्ति की उपस्थिति होती है वहाँ शाश्वत सत्य की अनुभूति होती है।
नम्रता की शक्ति-
नम्रता में शक्ति प्रियता और पदलोलुपता के लिये कोई स्थान नहीं है। क्योंकि ये सब अपने में, स्वार्थयुक्त, संकीर्णता से परिपूर्ण हैं जब कि नम्रता में सबका ध्यान, सबके पीछे अपने आपको गिनने का महत्व पूर्ण आदर्श है। जो अपनी शक्ति वृद्धि करेगा जो अपनी पदलोलुपता को चाहेगा, वह दूसरों को कुचलेगा, अपने लाभ के लिए। दूसरों का शोषण करेगा और विभिन्न प्रतिगामी कार्य करेगा जो नम्रता से मेल नहीं खाते। अतः स्वार्थ के लिये नम्रता में कोई स्थान नहीं। इसमें एकमात्र परमार्थ की ही गति है।
एक होती है हृदयहीन नम्रता, जिसमें अभिमानी मनुष्य अपने बड़प्पन को बनाये रखने अथवा बढ़ाते जाने के लिए झूठी नम्रता का स्वाँग करता है। ऐसी दिखावटी नम्रता का बाजार आज बहुत गर्म है। स्वार्थी, पदलोलुप, अभिमानी व्यक्ति ने नम्रता को भी अपने साधनों में से एक बना है। ऐसी दिखावटी नम्रता बड़ी खतरनाक है। सरल प्रकृति, सीधे स्वभाव के लोग अक्सर धोये जाते हैं।
मिथ्या भावुकता, आत्मविश्वास की कमी और हीन भाव युक्त गम्भीरता-विनम्रता भी नम्रता नहीं। इससे दूर रहा जाय।
पाप की परिभाषा-
विनोबा भावे ने कहा है-”संसार में दो तरह के पाप हैं। एक ही गर्दन जरूरत से ज्यादा तनी हुई है, घमण्ड के कारण अभिमान के कारण और दूसरे की जरूरत से ज्यादा झुकी हुई है। दीनता से दुर्बलता से। ये दोनों ही पाप हैं, एक उन्मत्त है दूसरा दबैल दुर्बल। गर्दन सीधी भी हो और लचीली भी लेकिन तनी हुई न हो और न झुकी हुई।”
यह स्थिति नम्रता में निहित है। अभिमान के लिए तो वहाँ कोई गुंजाइश ही नहीं है। नम्रता में दबैल होने का भाव इसलिए नहीं कि उसमें शाश्वत सत्य, ईश्वर की उपस्थिति का भाव रहता है।जिसकी सामर्थ्य के बल पर गर्दन सीधे रहती है और लचीली भी । क्यों कि वह सर्वत्र ईश्वर के दर्शन कर उसे स्वीकार करती है उसकी सामर्थ्य के समक्ष नतमस्तक होती है। लेकिन वह दीनता से झुकी हुई नहीं होती । वरन् सबमें स्थित ईश्वर के प्रति आदर सम्मान, विनय के लिए झुकी होती है।
सबकी सेवा का आधार-
सबमें ईश्वर की उपस्थिति देखकर उसे करने के साथ-साथ ही मनुष्य सब की सेवा के कटिबद्ध होता है । नम्रता मानसिक भाव है। उसका बाह्य, सक्रिय रूप सेवा है। सब की सेवा आध्यात्मिक एकता और समता का मूलाधार है। जहाँ जहाँ आध्यात्मिक अनुभूति-ईश्वरीय तत्व के दर्शन होंगे, मनुष्य वहीं सेवा के लिए अपने आपको प्रस्तुत करेगा। सेवा का मूलाधार है किसी व्यक्ति , पदार्थ में उत्कृष्टता, शाश्वत तत्व, अथवा किसी तरह की विशेषता के दर्शन करना और साथ ही उसे जीवन में स्वीकार करना।
सुधार की पुण्य प्रक्रिया-
आत्म सुधार की पहली आवश्यकता है अपने दोषों को स्वीकार करना, जो नम्रता से ही सम्भव है। अभिमानी आदमी अपने दोषों को कभी स्वीकार नहीं करता। फलतः उसके दोषों की जटिलता बढ़ती ही जाती है। नम्रता मनुष्य को उसकी सही स्थिति का ज्ञान कराती है। अपनी स्थिति का ज्ञान, अपने दोषों की स्वीकृति मनुष्य को आत्म सुधार के लिए पर्याप्त सामर्थ्य प्रदान करती है। महात्मा गाँधी ने जो नम्रता के एक बड़े उपासक थे, लिखा है-
“ऊँचे से ऊँचे वृक्ष भी आकाश को नहीं छू पाते। महानतम मनुष्य भी जब तक वे शरीर के बन्धन में हैं, दोषपूर्ण ही हैं। निर्दोष कोई मनुष्य नहीं, ईश्वर भक्त भी नहीं। पर इस कारण कि अपने दोषों को जानते हैं और अपने आपको सुधारने के लिए सदैव तैयार रहते हैं, वे ईश्वर के भक्त और महान पुरुष कहलाने के, निर्दोष होने के अधिकारी हैं।” इतना ही नहीं गाँधी जी ने फिर आगे सबके साथ अपनी समानता करते हुए लिखा है कि मैं उसी तरह दूषित हो जाने वाला शरीर का जामा पहने हूँ जैसा कि मेरे साथी मनुष्यों में दुर्बलतम पहने हुए हैं। और मैं उसी प्रकार भूलें कर सकता हूँ जैसे कि कोई और।
नम्रता मनुष्य को उसके निज स्वरूप का, दोषों का, स्थिति का ज्ञान कराती है, उन्हें स्वीकार करती है और सुधारने की प्रेरणा भी। मनुष्य के सुधार का, उन्नति का यही मूलाधार है। जहाँ अभिमान के कारण अपने दोषों की स्वीकृति नहीं, अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान नहीं, वहाँ सुधार के लिए कोई रास्ता नहीं, सिवाय इसके कि मनुष्य अपने दोषों को और भी जटिल बनाये।
प्रबल पुरुषार्थ का उद्गम-
नम्रता का अर्थ आलस, सुस्ती, हीनता का भाव नहीं,। नम्रता, प्रबल, तीव्रतम पुरुषार्थ है, वह पुरुषार्थ जो सबके कल्याण के लिए होता है। नम्रता का पुरुषार्थ किसी आक्रमणकारी सिकन्दर, नैपोलियन, डाकू या सेनापति का उद्दण्ड संकीर्ण पुरुषार्थ नहीं, यह है सार्वभौमिक पुरुषार्थ जिसके समक्ष इनकी कोई सत्ता ही नहीं। महात्मा बुद्ध की नम्रता के प्रबल पुरुषार्थ ने अंगुलिमाल जैसे खूँख्वार डाकू को भी भिक्षुक बना दिया। उन्होंने अपने प्रबल पुरुषार्थ से युग की गति को ही बदल दिया। प्रबल पुरुषार्थ था ईसामसीह का, जिसने उस समय के सशक्त रूढ़िवादी, साम्राज्यशाही, अन्धविश्वासों के विरुद्ध आवाज उठाई और लोगों को एक नई दिशा प्रदान की। सिकन्दर अपनी स्वाभाविक मृत्यु पर भी रोता हुआ मरा था। बड़े-बड़े शूरवीरों ने मृत्यु के समय आँसू बहाये। किन्तु एक वह था नम्रता का पुजारी ईसामसीह जिसने काँटों का ताज पहना था। क्रूस पर चढ़ाने पर भी विरोधियों के पाप क्षमा करने के लिए भगवान से प्रार्थना की थी।
नम्रता की महान् शक्ति थी महर्षि वशिष्ठ में जिन्होंने विश्वामित्र जैसे अभिमानी, अपने बच्चों के हत्यारे का भी हृदय बदला था, ब्रह्मर्षि बना दिया।
धीरता और वीरता का चिन्ह-
नम्रता एक प्रबल पुरुषार्थ है सबके हित के लिए जिसमें अन्यायी को मिटाने की नहीं वरन् उस अत्याचार को सहन करके उसे जीतने उसे सुधारने का, ठोस विज्ञान है। यह भूल सुधारने का एक साधन है, जिसमें दूसरों को कष्ट न देकर स्वयं कष्ट सहन करने की क्षमता है। हिंसात्मक प्रयास या दण्ड व्यक्ति पर आक्रमण करते हैं-बुराई पर नहीं, किन्तु नम्रता और सौजन्य सबके प्रति सेवा एकता की अनुभूति से बड़े-बड़े दोष, बुराइयां भी धुल जाते हैं। महात्मा गाँधी ने नम्रता की शक्ति और इसके प्रबल पुरुषार्थ से ब्रिटेन जैसे शक्ति शाली राष्ट्र को भारत छोड़ने के लिए विवश कर दिया।
दुर्बल कौन? वही जो अपने सीमित शरीर साधन, वैभव, ऐश्वर्य को अपनी शक्ति का आधार मानते हैं। क्योंकि इस तरह की शक्ति का दायरा सीमित है, संकीर्ण हैं, देश काल पात्र की सीमा में मर्यादित है।
शक्ति शाली कौन? वही जो विश्वात्मा से, अनंत-शक्ति के केन्द्र से जुड़ा हुआ है। और नम्रता से ही, शाश्वत ईश्वर की अनुभूति सम्भव है। विश्वात्मा से सम्बन्धित बाह्य साधनों के अभाव में भी अनंत शक्तिशाली है, उसकी विजय निश्चित है। वही पुरुषार्थ है।
संघर्षों का समाधान-
सारे संघर्ष, लड़ाई, झगड़े, रागद्वेष, कलह इसी कारण हैं कि अभिमान ग्रस्त मनुष्य अपने आपको सबसे आगे देखने का यत्न करता है और दूसरे को पीछे। इस आगे-पीछे के संघर्ष से ही यह विषाक्त बातें फूट पड़ती हैं। किन्तु नम्रता इसका परिहार करती है। नम्रता का नियम है, सारे जीवों के अन्त में अपनी गिनती करना, पहिले नहीं। अपनी पहल-यह तो अभिमानी का नियम है। जब मनुष्य मात्र सबको आगे स्थान देकर अपने लिये पीछे गिनने लगेंगे तो यह सारे संघर्ष ही समाप्त हो जायेंगे। बड़प्पन का यही नियम भी है कि जो व्यक्ति बड़ा बनने की कोशिश करेगा, वह सबसे छोटा बनता दिखाई देगा।
अहंकार का उन्मूलन-
नम्रता का अर्थ है अहंता के बन्धन तोड़ देना और अहंता के बन्धन तोड़ना, नम्र होना, विश्वात्मा के साथ एकता स्थापित होना सब एक ही अर्थ रखते हैं। इस तरह नम्रता मुक्ति का सरल साधन है, नम्रता से ही आत्मसमर्पण की वृत्ति पैदा होती है। गीता का लम्बा चौड़ा उपदेश देने पर भी भगवान कृष्ण को अर्जुन से यही कहना पड़ा-
“सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज
अहत्वा सर्व पापेभ्यो मोक्ष यिष्यामि माशुच।
“सब धर्मों को छोड़कर हे अर्जुन तू मेरी शरण में आ, मैं तुझे सब पापों से मुक्त कर दूँगा।” “और भी “योगक्षेमं वहाम्यहम्।”
नम्रता के मानी हैं विश्वात्मा की अनुभूति और उसके लिए आत्मसमर्पण का भाव, इसके फलस्वरूप जीवन में मुक्ति प्राप्त करना सम्भव है। आत्म समर्पण अर्थात् पूर्णतया अभिमान का त्याग, नम्रता का परिपूर्ण वरण।
स्वयं अपनी प्रचारक है-
नम्रता और इसके कार्य ही स्वयं सज्जनता के प्रचारक हैं। ये एक सार्वभौमिक नियम होने से स्वयं प्रकाशित हैं। नम्रता युक्त कार्य विरोधियों को ठण्डा करते हैं और अनुगामियों की संख्या बढ़ाते हैं। महात्मा बुद्ध के संपर्क में जो आ जाता वह उनका हो जाता था। उन्होंने किसी प्रेस, विज्ञापन, प्लेटफार्म की चिन्ता नहीं की थी। उनके संपर्क से जो लोग उनके अनुयायी बने यह उनकी नम्रता की शक्ति का आकर्षण था। उनके पिता राजा होते हुए भी उनके कोई अनुयायी बनने के घटना नहीं। बड़े-बड़े सम्राट, वैभवशाली व्यक्ति यों को लोग महत्व नहीं देते, किन्तु नम्रता युक्त महान् आत्माओं के लिए लोग अपना सर्वस्व निछावर करने के लिए तैयार हो जाते हैं।