एक प्रसिद्ध सन्त

January 1963

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एक प्रसिद्ध सन्त मृत्यु के उपरान्त स्वर्ग लोक पहुँचा। वहाँ द्वार पर चित्रगुप्त अपने हिसाब की बहियाँ लेकर बैठे थे। उन्होंने साधु का नाम पता ठिकाना पूछा। इस पर साधु गर्व सहित बोले “क्या आप नहीं जानते कि मैं धरती का प्रसिद्ध अमुक सन्त हूँ।”

“आपने जीवन में क्या किया?” चित्रगुप्त ने पूछा। “मैं जीवन के प्रारम्भिक आधे भाग में तो लोगों से प्रेम करता रहा, मेल जोल बढ़ाता रहा और दुनियादारी के चक्कर में डूबा रहा। जीवन के अन्तिम आधे भाग में मैंने सब कुछ छोड़कर तपस्या की और पुण्य लाभ किया।”

चित्रगुप्त अपनी बही में साधु का ब्यौरा देखने लगे। “अरे, आप पहले क्या देखते हैं मैंने पुण्य तो जीवन के अन्तिम भाग में किये गए हैं आप पहले न देखकर अन्त में देखो” साधु बीच में ही बोल उठे।

चित्रगुप्त ने अपनी बही का प्रारम्भ का भाग छोड़कर अन्तिम भाग देखना शुरू किया लेकिन वहाँ पुण्य के नाम पर कुछ भी नहीं मिला। चित्रगुप्त फिर बही के प्रारम्भ के हिस्से में देखने लगे। और बोले “भाई तुम्हारे पुण्य तो जीवन के प्रारम्भिक भाग में ही हुए हैं। पिछले भाग में तो कुछ भी नहीं है।”

“यह तो उल्टी बात है। प्रारम्भिक जीवन तो मैंने संसार से प्रेम करने में बिताया और अन्तिम जीवन में एकान्त में रहकर परमात्मा का आराधन किया, तपस्या की” सन्त ने कहा। “भाई! धरती पर प्रेम, आत्मीयता, दूसरों के हित में लगे रहना ही पुण्य है, पूजा है और उसी के कारण तुम्हें स्वर्ग की प्राप्ति हुई है, चित्रगुप्त ने समझाते हुए सन्त से कहा ।


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