महात्मा गाँधी के आश्रम में एक प्रसिद्ध संन्यासी आये। आश्रम के वातावरण, बापू के कार्य-क्रम, विचारों से वह साधु बड़े प्रसन्न हुए और वहाँ ठहर गये। उनको आश्रम में मेहमान की तरह रखा गया। एक दिन साधु बापू से मिले और प्रार्थना करते हुए बोले-महात्माजी मैं भी आपके आश्रम में रहकर जीवन बिताना चाहता हूँ। इस जीवन का सदुपयोग राष्ट्र हित में हो तो वह मेरा महान सौभाग्य होगा।
बापू ने उनकी बातें सुनकर कहा-यह जानकर हमें बड़ी प्रसन्नता हुई है। आप जैसे विरक्त साधु पुरुषों के लिए ही तो आश्रम होते हैं। किन्तु यहाँ रहने से पूर्व आपको इन गेरुए वस्त्रों का त्याग करना पड़ेगा। महात्मा जी की बातें सुनकर स्वामी जी मन-ही-मन बड़े क्रोधित हुए। अपने क्रोध पर संयम रखते हुए वह बोले-महात्मा जी ऐसा कैसे हो सकता है, मैं संन्यासी जो हूँ।
बापू बोले आप अपने संन्यास को कभी न छोड़ें- इसमें दिनों दिन प्रगति करें। मैंने तो आपको गेरुए वस्त्र छोड़ने के लिये कहा है। इनके बिना सेवा नहीं हो सकती। बापू ने उन्हें समझाते हुए कहा-स्वामी जी, इन गेरुए वस्त्रों को देखते ही हमारे देशवासी इन वस्त्रों को पहनने वाले की ही सेवा पूजा शुरू कर देते हैं। दूसरों की सेवा के स्थान पर निज की सेवा स्तुति शुरू हो जाती है। इन वस्त्रों के कारण अन्य लोग आपकी सेवा भी स्वीकार नहीं करेंगे। जो वस्तु हमारे सेवा-कार्य में बाधा डाले उसे छोड़ देना चाहिये। फिर संन्यास तो मानसिक वस्तु है। पोशाक के छोड़ने से संन्यास नहीं जाता। गेरुए वस्त्र पहन कर आपको सफाई का काम कौन करने देगा?
महात्मा जी की बातें सुनकर उस साधु ने तत्काल गेरुए वस्त्र त्याग दिए।