विचार और क्रिया दो तत्व हैं, जिनके आधार पर मनुष्य अपने जीवन को समुन्नत और उत्कृष्ट बना सकता है। छोटे से काम से लेकर जीवन लक्ष्य की प्राप्ति तक मनुष्य के विचार और आचार में समन्वय पर ही सम्भव है। विचार के अभाव में क्रिया एकाँगी और अधूरी है। उससे कोई प्रयोजन नहीं सधता। इसी तरह बिना आचार-क्रिया के विचार भी व्यर्थ ही है, लँगड़ा है, उससे कुछ सिद्ध नहीं होता। ख्याली पुलाव भले ही पकाये जाते रहें, यथार्थ में कुछ भी नहीं होता । दोनों के ठीक-ठीक समन्वय पर ही सफलता और उन्नति सम्भव है। व्यक्ति , समाज, राष्ट्र सभी का विकास इन दोनों के ऊपर है। जहाँ केवल विचार है या केवल क्रिया ही है अथवा दोनों का अभाव है वह व्यक्ति , समाज या राष्ट्र उन्नत नहीं हो सकता ।
आज के बुद्धिवाद और विज्ञान के युग में मानव समाज में इन दोनों ही तत्वों में असमानता पैदा हो गई है। जिनके पास क्रिया की शक्ति है उनके पास कोई उत्कृष्ट विचार ही नहीं। जीवन की भौतिक सफलता, चमक-दमक, भौतिक विज्ञान की घुड़ दौड़ में ही उनकी विचार शक्ति लगी हुई है और उससे प्रेरित होकर जो क्रिया होती है वह मानवता के विनाश, व्यापक संहार की सम्भावनायें अधिक व्यक्त करती है। इसी तरह जिनके पास उत्कृष्ट विचार है वहाँ क्रिया का अभाव है। फलतः कुछ भी लाभ नहीं होता । स्वयं उनको और समाज को विचारों से कुछ भी नहीं मिल पाता।
फिर भी आज विचारों की कमी नहीं है। युगों-युगों से महापुरुष, सन्त, महात्मा, आदि ने मानवता को उत्कृष्ट कोटि के विचार दिए। विचार ही नहीं उनकी क्रियात्मक प्रेरणा दी। कुल मिलाकर आज मानव जाति के पास उत्कृष्ट विचारों का बहुत बड़ा भण्डार है, किन्तु मानव की समस्यायें, उलझनें बढ़ती जा रही हैं। वे सुलझती नहीं ।
आज विचार और आचार का मेल नहीं हो रहा है। बड़े-बड़े वक्ता उपदेशक, प्रचारक, धर्म दुहाई देने वाले लोगों की कमी नहीं है। भाषा, उपदेश, प्रचार, आन्दोलन उमड़-घुमड़ कर समाज के ऊपर आते है, किन्तु वे उन रीते, सूखे बादलों की तरह समाज की शुष्कता को नहीं मिटा पाते। समाज की क्या वे अपने अन्तर की जलन को ही शाँत नहीं कर पाते। जीवन लक्ष्य की पूर्ति से दूर वे स्वयं ही परेशान देखे जा सकते हैं। उधर अकेले शंकराचार्य, दयानन्द, बुद्ध आदि भी थे जिन्होंने अपने प्रतिकूल युग में भी मानवता को नई राह दी, और आज असंख्यों लोगों के प्रचार, भाषण, उपदेशों के बावजूद भी उनका या समाज का कुछ भी अर्थ नहीं सधता कोई परिणाम पैदा नहीं होता। इसका एक ही कारण है कि हमारे विचारों का आचारों से मेल नहीं। हमारी कथनी और करनी में समन्वय नहीं।
जो विचार जीवन में नहीं उतरता, व्यवहार और क्रिया के क्षेत्र में व्यक्त नहीं होता उससे कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होने का । वह तो केवल बौद्धिक कसरत मात्र है। किसी भी विषय पर खूब बोलने, खूब सुन्दर व्याख्या करने से विद्वत्ता प्रकट हो सकती है, निन्दा प्रशंसा हो सकती है, उपस्थित लोग अपनी वाह-वाह कर सकते हैं किन्तु वह वक्ता के जीवन में नहीं उतरता है, समाज में उससे कोई परिवर्तन नहीं आता। पाकशास्त्र पर खूब विवेचना और व्याख्यान करने से किसी का पेट नहीं भर सकता। बातों की रोटी, बातों की कढ़ी से किसका पेट भरा है? भूखे व्यक्ति के सामने, सुन्दर-सुन्दर मिठाइयों, मधुर पदार्थों का वर्णन करने से क्या उसकी वैसी भी तृप्ति हो सकती है जैसी सूखी रोटियों से होती है? प्यासे आदमी को मान-सरोवर की कथा सुनाने से क्या उसकी प्यास दूर हो सकेगी? आज चटपटे, उत्तेजक विचारों की असंख्यों पत्र पत्रिकायें निकलती हैं, लम्बे चौड़े भाषण सुनने को मिलते हैं, फिर भी कोई लाभ नहीं हो रहा है। यदि इन सब में से दस प्रतिशत भी क्रियात्मक रूप में उतरे तो समाज काफी उन्नत हो जाय। जहाँ व्याख्याता, उपदेशक, लेखक कहते कुछ और करते कुछ हैं, कुत्सित विचार, विकार दुष्प्रवृत्तियों को रख कर दूसरों को उपदेश देते हैं, शराब पीकर लोगों से शराब छोड़ने को कहते हैं, वहाँ कोई सत्परिणाम निकले इसकी बहुत ही कम सम्भावना है। समाज के कल्याण की बड़ी-बड़ी बातें होती हैं, किन्तु अपने जीवन के बारे में कभी कुछ सोचा है हमने ? जिन बातों को भाषण, उपदेश, लेखों में हम व्यक्त करते हैं क्या उन्हें कभी अपने अन्तर में देखा है। क्या उन आदर्शों को हम अपने परिवार, पड़ोस राष्ट्रीय जीवन में व्यवहृत करते हैं? यदि ऐसा होने लग जाय तो हमारे व्यक्ति गत और सामाजिक जीवन में महान् सुधार, व्यापक क्रान्ति सहज ही हो जाय। हमारे जीवन के आदर्श ही बदल जाएं। घर, समाज, पड़ोस, राष्ट्र का जीवन स्वर्गीय बन जाए।
उच्च विचार, अमूल्य साहित्य, तत्व ज्ञान की बातों का मानव जीवन में अपना एक स्थान है। इनसे ही चिन्तन और विचार की धारा को बल मिलता है। बड़े बड़े उपदेश, व्याख्यान, भाषण आदि का समाज पर प्रभाव अवश्य पड़ता है, किन्तु वह क्षणिक होता है। किसी भी भावी क्रान्ति सुधार रचनात्मक कार्यक्रम के लिये प्रारम्भ में विचार ही देने पड़ते हैं। किन्तु सक्रियता और व्यवहार का संस्पर्श पाये बिना उनका स्थायी और मूर्तरूप नहीं देखा जा सकता। प्रचार और विज्ञापन का भी अपना महत्व है किन्तु जब कर्तव्य और प्रयत्नों से दूर रहकर मनुष्य इन्हीं में उलझ जाता है तो वह लक्ष्य से दूर हटकर आत्म प्रवंचना की ओर अग्रसर होता है, पतन के मार्ग पर चलने लगता है।
विचार और क्रिया के समन्वय से ही युग निर्माण के महान कार्यक्रम की पूर्ति सम्भव है। उत्कृष्ट विचारों को जिस दिन हम क्रिया क्षेत्र में उतारने लगेंगे उसी दिन व्यक्ति और समाज का स्वस्थ निर्माण सम्भव होगा।