शुद्धपक्षस्य हंसौघः सरसो यथा।
यस्माद् गुणौधो निर्याति जीवितं तस्यशोभते॥
योग वशिष्ठ 5। 39। 53
निर्मल जल भरे सरोवर में से जैसे सफेद हंसों का झुण्ड निकलते हुए शोभायमान होता है, वैसे ही जिसमें सद्गुणों का समूह दृष्टिगोचर होता है उसी का जीवन शोभा पाता है।
जहर खाते हुए भी कहा-ईश्वर तेरी इच्छा पूर्ण हो। महात्मा गाँधी ने गोली खाकर कहा-हे राम तेरी इच्छा पूर्ण हो। ईसा को क्रूस पर चढ़ाया गया तब उन्होंने भी प्रभु इच्छा को ही पूर्ण हो बताया। जीवन में हर साँस, हर धड़कन में हम ईश्वर की इच्छा को ही प्रधान समझें। जीवन को उसके हाथों सौंप दे तो अन्त में भी उसको पावन अंक में ही स्थान मिलेगा साथ ही हमारा भौतिक, जीवन भी दिव्य एवं महान बन जाएगा। भगवान कहत हैं।
“मत्मना भव मद भक्तो मद्याजी माँ नमस्कुरु।”
मेरा भक्त बन जा, सारे कर्म अकर्म मुझे अर्पित कर दे, मैं तुझे सर्व दुखों से पार कर दूँगा।
अहंकार का निराकरण-
अहंकार का पुतला मनुष्य प्रभु की इच्छा को उनकी आज्ञा को स्वीकार नहीं करता और अपने ही निर्बल कन्धों पर अपना बोझ उठाये फिरता है। इतना ही नहीं दुनिया का भार उठाने का दम भरता है। यही कारण है कि निराशा, चिंताएं, दुःख, रोग, असफलतायें उसे घेरे हुए हैं और रात-दिन व्याकुल-सा सिर धुनता हुआ मनुष्य अत्यन्त परेशान सा दिखाई देता है। अहंकारवश प्रभु की इच्छा के विपरीत चलकर कभी सुख शान्ति मिल सकती है? नहीं कदापि नहीं। हमें अपने हृदय मन्दिर में से अहंकार, वासना, राग द्वेष को निकाल कर रिक्त करना होगा और ईश्वरेच्छा को सहज रूप में काम करने देना होगा तभी जीवन यात्रा सफल हो सकेगी।
ईश्वर के प्रति विश्वास, श्रद्धा, उसकी इच्छा को जो समस्त स्थूल और सूक्ष्म संसार का संचालन कर रही है, सहज रूप में काम करने देना जीवन का मूलमंत्र है। मनुष्य की शक्ति अत्यन्त अल्प है, वह अहंकार की शक्ति है। बड़े-बड़े कौरव, बाणासुर रावण, हिरण्यकशिपु, अनेकों असुरों ने ईश्वरीय सत्ता को चुनौती दी थी अपने साँसारिक बल और अहंकार बल से किन्तु अन्त में पछताते गये। साधारण मनुष्य की तो बात ही क्या है। अपने जीवन की बागडोर उनके हाथों देकर निश्चिन्त हो जाने वाले ही उनके विराट रूप का दर्शन कर कृतार्थ हो जाते हैं। हमें सचेत होकर अपना रथ भगवान के हाथों में देना है परम पिता के संरक्षण में हमें अपनी विजय यात्रा पर चलने को तैयार हो जाना है। हमारी प्रत्येक साँस और धड़कन में प्रभु का अमर संगीत गूँजता रहे, हमारे हृदय मन्दिर में विराजमान प्रभु हमारे जीवन रथ का संचालन करते रहें और अन्त में उनके पावन अंक में ही हमें स्थान मिले ऐसी उनसे प्रार्थना है। वे ही हमारे बाहर भीतर एक रस से व्याप रहे हैं।