दाम्पत्य जीवन की सफलता के लिए

January 1963

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बड़ी-बड़ी आशा, आकाँक्षाओं के साथ नवयुवक और नवयुवतियाँ दाम्पत्य जीवन के सूत्र में बँधते हैं। बड़ी-बड़ी रस्में अदा होती हैं। विवाह के रूप में बड़ा समारोह मनाया जाता है। गाजे-बाजे, रोशनी, दावतों, लेन-देन, बरात,जुलूस आदि के साथ दो प्राणी विवाह सूत्र में बँधते हैं। परस्पर के नये आकर्षण से प्रारम्भिक दिनों का जीवन बड़ा सुखद बीतता है। किन्तु यह स्थिति अधिक दिन नहीं रहती और दाम्पत्य जीवन कलह, अशाँति, द्वेष, असन्तोष की आग में जलने लगता है।

परिपाटी के तौर पर जो प्रतिज्ञायें धर्म पुरोहित उच्चारण कर देते हैं उनका व्यावहारिक जीवन में नाम भी नहीं रहता। दाम्पत्य जीवन एक दूसरे के लिए बोझा बन जाता है। इसका कोई बाह्य करण नहीं। अपितु पति-पत्नी दोनों के ही परस्पर व्यवहार, आचरणों में विकृति पैदा होने पर ही अक्सर ऐसा होता है। यदि इन छोटी-छोटी बातों में सुधार कर लिया जाए तो दाम्पत्य जीवन परस्पर सुख शाँति आनन्द का केन्द्र बन जाए।

दूसरे की भावना का आदर-

दाम्पत्य जीवन की सुख समृद्धि एवं शाँति के लिए सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि व्यवहार में एक दूसरे की भावनाओं का ध्यान रक्खें। एक मोटा सा सिद्धान्त है कि “मनुष्य दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करे जैसा वह स्वयं के लिए चाहता है।” पति पत्नी भी सदैव एक दूसरे की भावनाओं, विश्वासों का ध्यान रखें। किन्तु देखा जाता है कि अधिकांश लोग अपनी भावना, विचारों में इतना खो जाते हैं कि दूसरे के विचारों, भावों का कुछ भी ध्यान नहीं रखा जाता। वे उन्हें निर्ममता के साथ कुचल भी देते हैं। इस तरह दोनों की एकता, सहयोग के स्थान पर असंतोष का उदय हो जाता है। अपनी इच्छानुसार पत्नी को जबरदस्ती किसी काम के लिए मजबूर करना, उसकी इच्छा न होते हुए भी दबाव डालना पति के प्रति पत्नी के मन में असन्तोष की आग पैदा करना है। इसी तरह कई स्त्रियाँ अपने पति के स्वभाव, रुचि, आदेशों का ध्यान न रखकर अपनी छोटी-छोटी बातों में ही उन्हें उलझाये रखना चाहती हैं! फलतः उन लोगों को विवाह एक बोझा सा लगने लगता है। दाम्पत्य जीवन के प्रति उन घृणा, असन्तोष होने लगता है और यही असन्तोष उनके परस्पर के व्यवहार में प्रकट होकर दाम्पत्य जीवन को विषाक्त बना देता है। यदि किसी मानसिक स्थिति ठीक न हो तो परस्पर लड़ाई-झगड़े होने लगते हैं। एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप करते रहते हैं।

पति पत्नी का सदैव एक दूसरे के भावों, विचारों एवं स्वतन्त्र अस्तित्व का ध्यान रख कर व्यवहार करना, दाम्पत्य जीवन की सफलता के लिए आवश्यक है। इसी के अभाव में आज-कल दाम्पत्य जीवन एक अशाँति का केन्द्र बन गया है। पति की इच्छा न होते हुए, साथ ही आर्थिक स्थिति भी उपयुक्त न होने पर स्त्रियों की बड़े-बड़े मूल्य की साड़ियाँ, सौंदर्य प्रसाधन, सिनेमा, आदि की माँग पतियों लिए असंतोष का कारण बन जाती है। इसी तरह पति का स्वेच्छाचार, भी दाम्पत्य जीवन की अशाँति के लिए कम जिम्मेदार नहीं है। यही कारण है कि कोई घर ऐसा नहीं दीखता जहाँ स्त्री पुरुषों में आपस में नाराजगी, असंतोष दिखाई न देता हो।

अशिक्षा का अभिशाप-

परस्पर एक दूसरे की भावनाओं में स्वतन्त्रता का ध्यान न रखने में एक मुख्य कारण अशिक्षा भी है। यह कमी अधिकतर स्त्रियों में पाई जाती है। पर्याप्त शिक्षा-दीक्षा के अभाव के कारण भी मानसिक विकास नहीं होता, जिसके कारण एक दूसरे की भावनाओं, व्यावहारिक जीवन की बातों के बारे में मनुष्य को जानकारी नहीं मिलती। इसके निवारण के लिए प्रत्येक पुरुष को कुछ न कुछ समय निकाल पत्नी को पढ़ाने, उसका ज्ञान बढ़ाने के लिए प्रयत्न करना चाहिए। जीवन साथी का समकक्ष होना आवश्यक है। अपने साथी की ज्ञान वृद्धि विकास एवं कल्याण के लिए भी अन्य आवश्यक कार्यों की तरह की प्रयत्न करना आवश्यक है, तभी वह जीवन में सहयोग, एकता, सामंजस्य का आधार बन सकती है। किन्तु देखा जाता है अधिकाँश लोग इसमें दिलचस्पी नहीं लेते। मन, बुद्धि के विकास के अभाव में दाम्पत्य जीवन सुखी और समृद्ध नहीं बन सकता।

सहिष्णुता और उदारता-

योग्य होकर भी, एक दूसरे की भावनाओं का ध्यान रखते हुए भी कभी-कभी स्वभावतया ऐसा व्यवहार हो जाता है जो पति-पत्नी में से एक दूसरे को अखरने लगता है। ऐसी स्थिति में किसी भी एक पक्ष को क्षमाशीलता, सहिष्णुता का परिचय देकर विक्षोभ उत्पन्न न होने देने का प्रयत्न करना आवश्यक है। साथ ही दूसरे पक्ष को भी अपने भूल को महसूस कर क्षमा माँगकर परस्पर मनों को साफ रखना चाहिए। अन्यथा परस्पर मनोमालिन्य बढ़ जाता है और दाम्पत्य जीवन में कटुता पैदा हो जाती है। महात्मा सुकरात, टॉलस्टाय, सन्त तुकाराम जैसे महापुरुषों ने अपनी फूहड़ और लड़ाका स्त्रियों को सहनशीलता, क्षमा, उदारता के साथ जीवन में निबाहा था।

स्त्रियाँ तो बेचारी सदा से ही अपने पतियों के कटु स्वभाव, व्यवहार, निर्दयता, स्वेच्छाचार को भी सहन करके दाम्पत्य जीवन की गाड़ी को चलाने में योग देती रही हैं। भारतीय नारी का महान् आदर्श इसी त्याग, सहिष्णुता और पतिव्रत धर्म से निर्मित रहा है। पति-पत्नी में से जब किसी एक में भी कोई स्वाभाविक कमजोरी दीखती हो तो उसका सहन-शीलता के द्वारा निराकरण करके गृहस्थ की गाड़ी को चलाने में पूरा-पूरा प्रयत्न करते रहना आवश्यक है।

पूर्णता के लिये अपूर्णता का मिलन-

पति-पत्नी दोनों का जीवन एक सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों में अभिन्नता है, ऐक्य है। भारतीय संस्कृति में तो पुरुष और स्त्री को आधा-आधा अंग मान कर एक शरीर की व्याख्या की गई है जिसमें पुरुष को अर्द्धनारीश्वर तथा स्त्री को अर्द्धांगिनी कहा गया है। दाम्पत्य जीवन स्त्री-पुरुष की अनन्यता का गठबन्धन है। अतः परस्पर किसी तरह का दुराव छिपाव, दिखावा, बनावटी व्यवहार करना परस्पर अविश्वास एक दूसरे के प्रति घृणा को जन्म देता है और इसी से दाम्पत्य जीवन नष्ट-भ्रष्ट हो जाते हैं। अपनी प्रत्येक चेष्टा में स्पष्टता, दुराव-छिपाव का अभाव रखकर अभिन्नता प्रकट करते हुए पति-पत्नी को एक दूसरे का विश्वास, मानसिक एकता प्राप्त करना चाहिए। वैसे जहाँ तक बने प्रत्येक व्यक्ति को अपने बाह्य जीवन में भी रहस्य, छल, बनाव, दिखावे से बचना चाहिए। क्योंकि इस बाहरी व्यवहार देखकर भी पति-पत्नी एक दूसरे पर सन्देह करने लगते हैं। वे सोचते हैं “हो सकता है यही व्यवहार हमसे किया जा रहा हो।” और सन्देह की भूल-भुलैया में ही अनेकों दम्पत्तियों का जीवन क्लिष्ट, उलझा हुआ, दुरूह बन जाता है।

परिवार का आधार -

पति-पत्नी दोनों अपने मानसिक क्षेत्र में बहुत बड़ा कुटुम्ब होते हैं। अपनी मानसिक आवश्यकताओं के आधार पर पति अपनी पत्नी से ही विभिन्न समय में, सलाहकार की तरह मंत्री की सी योग्यता, भोजन करते समय माँ की वात्सल्यता, आत्म सेवा के लिए आज्ञापालक नौकर, जीवन पथ में एक अभिन्न मित्र, गृहिणी, रमणी, आदि की आकाँक्षा रखता है। इसी तरह पत्नी भी पति से जीवन निबहि के क्षेत्र में माँ-बाप, दुःख दर्द में अभिन्न साथी, कल्याण और उन्नति के लिए सद्गुरु, कामनाओं की तृप्ति के लिए भर्तार, सुरक्षा संरक्षण के लिए भाई आदि जब परस्पर इन मानसिक आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं होती है तो एक दूसरे में असंतोष, अशाँति पैदा हो जाती है जिससे दाम्पत्य जीवन में विकृति पैदा हो जाती है।

परस्पर संतुष्ट रहें-

एक दूसरे की भावनाओं का ध्यान रखते हुए, एक दूसरे की योग्यता वृद्धि, खासकर पुरुषों द्वारा स्त्रियों के ज्ञानवर्द्धन में योग देकर, परस्पर, क्षमाशीलता, उदारता, सहिष्णुता, अभिन्नता एक दूसरे की मानसिक तृप्ति करते हुए दाम्पत्य जीवन को सुखी समृद्ध बनाया जा सकता है। अधिकतर इसके लिए पुरुषों को ही अधिक प्रयत्न करना आवश्यक है। वे अपने प्रयत्न और व्यवहार से गृहस्थ जीवन की कायापलट कर सकते हैं। अपने सुधार के साथ ही स्त्रियों की शिक्षा-दीक्षा, ज्ञानवृद्धि, उनके कल्याण के लिए हार्दिक प्रयत्न करके दाम्पत्य जीवन को सफल बनाया जा सकता है। धैर्य और विवेक के साथ एक दूसरे को समझते हुए अपने स्वभाव, व्यवहार में परिवर्तन करके ही दाम्पत्य जीवन को सुख−शांति पूर्ण बनाया जा सकता है।


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