भाग्यवाद और पुरुषार्थवाद

January 1963

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कुछ लोग ऐसे होते हैं जो उत्थान-पतन, कर्तव्य का कारण भाग्य, देवी देवता या किसी सत्ता को समझते हैं। इनके विश्वास के अनुसार, जीवन एक निर्जीव मशीन की तरह है जिसे भाग्य या प्रारब्ध रूपी ड्राइवर अपनी इच्छा से जिधर चाहे उधर चलाता है। इससे वे हाथ पर हाथ धरे, अकर्मण्य हो बैठे रहते हैं भाग्य देवता की आशा में।

दूसरे वे लोग होते हैं जो जीवन पथ पर परिश्रम के साथ एक-एक कदम आगे बढ़ते है। श्रम और पुरुषार्थ में ही जिनका विश्वास होता हैं। पुरुषार्थी किसी भी काम पर लगते समय सगुन-असगुन का, ग्रह नक्षत्रों का ख्याल ही नहीं करता । वह स्वयं अपने उन हाथों को देखता है जो काम करने के अमूल्य औजार प्रकृति ने दिए हैं और वह काम में जुट जाता है। अपने पुरुषार्थ के बल पर वह पद-पद पर नव सृजन, नव निर्माण के गीत गाता जाता है। जीवन में विभिन्न उपलब्धियों के स्मृति चिन्ह, पुरुषार्थ के प्रतीक छोड़ता जाता है।

जीवन की सभी प्रवृत्तियों को सन्मार्ग की ओर लगा कर उनसे ही सफलता, उत्साह आत्मविश्वास प्राप्त किया जा सकता है। इसके विपरीत उनका दुरुपयोग करके अथवा उन्हें निष्क्रिय बना कर घबराहट, अशान्ति, अनुत्साह में भी वृद्धि की जा सकती है। वृत्तियाँ जब व्यक्त नहीं होतीं तो परस्पर लड़ती हैं और मनुष्य का आन्तरिक जीवन ही नहीं इसके फलस्वरूप उसका बाह्य जीवन भी क्लेश, अशान्ति, अवसादपूर्ण बन जाता है।

मनुष्य का बाह्य जीवन उसके आन्तरिक जीवन की छाया है। अतः भाग्यवादी भी बाह्य जगत में अपने विश्वासों का कोई न कोई आधार अवश्य मान लेते हैं। पारिवारिक, सामाजिक, परिस्थितियाँ, प्रारब्ध, समय आदि का सहारा लेकर भाग्यवादी अपने विश्वास की पुष्टि करता है। तब वह स्थितियों को इतना ध्रुव सत्य मान लेता है अन्य किसी तरह का परिवर्तन ही स्वीकार नहीं करता ।

वस्तुतः मनुष्य की जैसी भावनायें और विचार होते हैं उन्हीं के अनुसार विश्वास, धारणा, और जीवन के प्रेरक दर्शन का निर्माण होता है। जिन स्वभाव ढीला ढाला होता है, जो अकर्मण्य होते उनके मन में अंतर्द्वंद्व चलने लगते हैं। उनकी सारी शक्ति अंतर्द्वंद्व में ही नष्ट हो जाती है, जिससे बाह्य जीवन में भी निराशा, पैदा होती है।

देखा जाए तो संसार के सफल व्यक्ति यों में पुरुषार्थी, कर्मवीरों का ही नाम है। जीवन व सफलताओं का कारण भी एकमात्र पुरुषार्थ ही है। यह बात अलग है कि मनुष्य अपनी सौजन्यता, सरलता, सद्गुणों से उसे ईश्वर की कृपा, अथवा अन्य कोई आधार पर बताये। धर्म, स्वास्थ्य, विद्या, भौतिक उपलब्धियाँ, सभी में तो पुरुषार्थ की आवश्यकता है। पुरुषार्थ असम्भव को भी सम्भव कर देता है। महापुरुषों की विभूतियाँ, महानता सब उनके पुरुषार्थ की ही देन हैं। पुरुषार्थ के बल पर साधारण-सी परिस्थितियों से उठ कर उन्होंने असाधारण काम किए।

हानिकारक आदतें, संस्कार, विचार, भावनाओं का पुरुषार्थ से निराकरण करके उनकी जगह अच्छाई पैदा की जा सकती है। मनुष्य स्वयं अपने भाग्य, चरित्र, जीवन का निर्माता है। क्योंकि विचार चरित्र और आचरणों से ही भाग्य का निर्माण होता है। आज की तदबीर कल की तकदीर है-यह प्रसिद्ध कहावत है। एक विश्व विख्यात मनीषी ने लिखा है-”किसी बालक से प्रकृति यह नहीं कहती कि तुम्हें अमुक तरह का सुखकर जीवन मिलेगा और दूसरे को कष्टकारक। भूतकाल की परिस्थितियाँ कुछ भी रही हों किन्तु मैं बता सकता हूँ कि एक सी परिस्थितियों में पले हुए दो मनुष्यों में एक महान पुरुष बना अपने प्रयत्न और पुरुषार्थ, से दूसरा अकर्मण्य पतन की ओर गिरा।”

वस्तुतः मनुष्य जिस ओर बढ़ना चाहे बढ़ सकता है। वेद भगवान साक्षी है कि “ईश्वर पुरुषार्थी की सहायता करता है।” इसमें कोई सन्देह नहीं कि प्रकृति स्वयं पुरुषार्थी का मार्ग खोल देती है। मनुष्य विश्वास करे कि “मैं अमुक कार्य कर सकता हूँ” तो वह अवश्य कर लेगा। संसार का आज जो विकसित रूप है वह उन सब पुरुषार्थियों का है जिन्होंने जीवन में निरन्तर कर्म साधना की है।

उपासना, तपश्चर्या के द्वारा कई व्यक्ति कुछ दैवी वरदान प्राप्त करते हैं। कइयों को तपस्वी महापुरुषों की कृपा से भी कुछ विशेष लाभ प्राप्त होता है, पर इसमें भी भाग्य नहीं पुरुषार्थ ही प्रधान है। साधना को इस संसार का सबसे बड़ा पुरुषार्थ माना गया है। उसमें शरीर, मन और आत्मा के तीनों क्षेत्रों को नियंत्रित करके एक विशेष दिशा में प्रयत्नपूर्वक चलाना पड़ता है। यह पुरुषार्थ ही कालान्तर में फलित होकर दैवी अनुग्रह या वरदान के रूप में वापस लौटता है। जो केवल मनौती मानते हैं, देवता की आकस्मिक, अहैतुकी कृपा की आशा लगाये बैठे रहते हैं ऐसे कुपात्रों को दैवी अनुग्रह से भी वंचित रहना पड़ता है। पात्र कुपात्र का अन्तर तो देवता भी करते हैं। आलसी, अकर्मण्य, कुपात्रों को नहीं, प्रयत्नशील, आशावादी और उद्योगी, सत्पात्रों की ही वे भी सहायता करते हैं।

महापुरुषों और तपस्वियों को सफल हो सकने वाला आशीर्वाद देने की शक्ति प्रचंड तपश्चर्या के आधार पर ही मिलती है। जिसके पास तपस्या की पूँजी नहीं, उसका न शाप फलित होता है और न वरदान। भिक्षा में कोई व्यक्ति कहीं से धन माँग लावे तो उसे यह नहीं सोचना चाहिए कि धन उपार्जन का आधार भिक्षा ही होता है। उपार्जन तो श्रम का परिणाम है। चाहे वह आत्मिक सम्पदा हो। चाहे भौतिक, उनकी प्राप्ति श्रम प्रयत्न से ही होगी।

भाग्य और कुछ नहीं, कल के किए हुए पुरुषार्थ का आज का परिपक्व स्वरूप ही भाग्य है। जो आज भाग्यवान दीखते हैं उन्हें वह सौभाग्य अनायास ही नहीं मिला है। विधाता ने कोई पक्षपात भी उनके साथ नहीं किया है। उनके पूर्व पुरुषार्थ ही आज सौभाग्य के रूप में परिलक्षित हो रहे हैं।

हमें भाग्य के भरोसे नहीं बैठा रहना चाहिए वरन् पुरुषार्थ करते रहना चाहिए। प्रयत्नशील व्यक्ति आज नहीं तो कल अपने निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त कर ही लेता है।


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