मानव जीवन और ईश्वर-विश्वास

January 1963

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महाभारत का युद्ध प्रारम्भ होने में कुछ दिन ही शेष थे। कौरव और पाण्डव दोनों पक्ष अपनी-अपनी तैयारियाँ कर रहे थे युद्ध के लिए। अपने-अपने पक्ष के राजाओं को निमंत्रित कर रहे थे। भगवान श्रीकृष्ण को भी निमन्त्रित करने के लिए अर्जुन और दुर्योधन एक साथ पहुँचे। भगवान ने दोनों के समक्ष अपना चुनाव प्रश्न रखा। एक ओर अकेले शस्त्रहीन श्रीकृष्ण और दूसरी ओर श्रीकृष्ण की सारी सशस्त्र सेना-इन दोनों में से जिसे जो चाहिए वह माँग ले। दुर्योधन ने सारी सेना के समक्ष निरस्त्र कृष्ण को अस्वीकार कर दिया। किन्तु अपने पक्ष में अकेले निरस्त्र भगवान कृष्ण को देखकर अर्जुन मन-ही-मन बड़ा प्रसन्न हुआ। अर्जुन ने भगवान को अपना सारथी बनाया। भीषण संग्राम हुआ। अन्ततः पाँडव जीते और कौरव हार गये। इतिहास साक्षी है कि बिना लड़े भगवान कृष्ण ने अर्जुन का सारथी मात्र बनकर पाण्डवों को जिता दिया और शक्ति शाली सेना प्राप्त करके भी कौरवों को हारना पड़ा। दुर्योधन ने भूल की जो स्वयं भगवान समक्ष सेना को ही महत्वपूर्ण समझा और सैन्य बल के समक्ष भगवान को ठुकरा दिया।

हम दुर्योधन न बनें-

किन्तु आज भी हम सब दुर्योधन बने हुए हैं और निरन्तर यही भूल करते जा रहे हैं। संसारी शक्तियों, भौतिक सम्पदाओं के बल पर ही जीवन संग्राम में विजय चाहते हैं ईश्वर की उपेक्षा करके हम भी तो भगवान और उनकी भौतिक स्थूल शक्ति दोनों में से दुर्योधन की तरह स्वयं ईश्वर की उपेक्षा कर रहे हैं और जीवन में संसारी शक्तियों को प्रधानता दे रहे हैं। किन्तु इससे तो कौरवों की तरह असफलता ही मिलेगी। वस्तुतः जीत उन्हीं की होती है जो भौतिक शक्तियों तक ही सीमित न रह कर परमात्मा को अपने जीवनरथ का सारथी बना लेते हैं। उसे ही जीवन का सम्बल बनाकर मनुष्य इस जीवन संग्राम में विजय प्राप्त कर लेता है। हम देखते हैं कि ईश्वर को भूलकर संसार का तानाबाना हम बुनते रहते हैं अपने मन में हवाई किले बनाते हैं, कल्पना की उड़ान से दुनिया का ओर छोर नापने की योजना बनाते हैं किन्तु हमें पद-पद पर ठोकरें खानी पड़ती हैं, स्वप्नों का महल एक ही झोंके से धराशायी हो जाता है, कल्पना के पर कट जाते हैं, सब कुछ बिगड़ जाता है, अन्त में पछताना पड़ता है। दुर्योधन, रावण, हिरण्यकशिपु, सिकन्दर आदि बड़ी-बड़ी हस्तियाँ पछताती चली गईं। भगवान के संसार में रहकर भगवान को भूलने और केवल संसारी शक्तियों को प्रधानता देने से और क्या मिल सकता है? संसार के रणांगण में उतरकर हम इतने अन्धे हो जाते हैं कि इस सारी सृष्टि के मालिक का आशीर्वाद लेना तो दूर उसका स्मरण तक हम नहीं करते और भौतिक स्थूल संसार को ही प्रधानता देकर जूझ पड़ते हैं। ऐसे अहंकारी व्यक्ति चाहे कितनी भी सफलता प्राप्त क्यों न कर लें उनकी विजय संदिग्ध ही रहती है।

आज मानव जीवन की जो करुण एवं दयनीय स्थिति है, जो सन्ताप, दुःख, असफलतायें मिल रही हैं, इन सबका मूल कारण है ईश्वर विश्वास की कमी, ईश्वरीय सत्ता की उपेक्षा करना और एकमात्र भौतिक साँसारिक शक्तियों को ही महत्व देना ।

श्रद्धा और विश्वास का समन्वय

ईश्वर विश्वास के लिये श्रद्धा का महत्वपूर्ण स्थान है। भौतिक जीवन तथा शारीरिक क्षेत्र में प्रेम की सीमा होती है। जब यही प्रेम आन्तरिक अथवा आत्मिक क्षेत्र में काम करने लगता है तो उसे श्रद्धा कहते हैं। यह श्रद्धा ही ईश्वर-विश्वास का मूल स्रोत है एवं श्रद्धा के माध्यम से ही उस विराट की अनुभूति सम्भव है। श्रद्धा समस्त जीवन नैय्या के चप्पू ईश्वर के हाथों सौंप देती है। जिसकी जीवन डोर प्रभु के हाथों में हो भला उसे क्या भय ! भय तो उसी को होगा जो अपने कमजोर हाथ पाँव अथवा संसार की शक्ति यों पर भरोसा करके चलेगा। जो प्रभु का आँचल पकड़ लेता है वह निर्भय हो जाता है, उसके सम्पूर्ण जीवन में प्रभु का प्रकाश भर जाता है। तब उसके जीवन व्यापार का प्रत्येक पहलू प्रभु प्रेरित होता है, उसका चरित्र दिव्य गुणों से सम्पन्न हो जाता है, वह स्वयं परम पिता का युवराज हो जाता है। फिर उसके समक्ष समस्त संसार फीका और निस्तेज बलहीन क्षुद्र जान पड़ता है। किन्तु यह सब श्रद्धा से ही सम्भव है।

परमात्मा की सत्ता, उसकी कृपा पर अटल विश्वास रखना ही श्रद्धा है। ज्यों-ज्यों इसका विश्वास होता जाता है, त्यों-त्यों प्रभु का विराट स्वरूप सर्वत्र भासमान होने लगता है। हमारे भीतर बाहर चारों ओर श्रद्धा के माध्यम से ही हमें परमात्मा का उस ईश्वर का अवलम्बन लेना चाहिए। श्रद्धा से ही उस परमात्मा-तत्व पर, जो हमारे बाहर भीतर व्याप्त है, विश्वास करना मुमुक्षु के लिये आवश्यक है और सम्भव भी है।

ईश्वरीय सत्ता और व्यवस्था :-

स्थूल जगत का समस्त कार्य व्यापार ईश्वरेच्छा एवं उसके विधान के अनुसार चल रहा है। वैज्ञानिक, दार्शनिक सभी इस तथ्य को एक स्वर से स्वीकार भी करते हैं। कहने के ढंग अलग-अलग हो सकते हैं, फिर भी यह निश्चित ही है। यह सारा कार्य व्यापार किसी अदृश्य सर्वव्यापक सत्ता द्वारा चल रहा है। हमारा जीवन भी ईश्वरेच्छा का ही रूप है। अतः जीवन में ईश्वर विश्वास के साथ-साथ समस्त कार्य व्यापार में उसकी इच्छा को ही प्रधानता देनी चाहिये। वह क्या चाहता है इसे समझना और उसकी इच्छानुसार ही जीवन रण में जूझना आवश्यक है। इसी तथ्य का संकेत करते हुए भगवान कृष्ण ने अर्जुन से कहा था।

“तस्मात् सर्वेसुकालेषु मामनुस्मर युध्यच।” “हे अर्जुन तू निरन्तर मेरा स्मरण करता हुआ मेरी इच्छानुसार युद्ध कर।” परमात्मा सभी को यही आदेश देता है। ईश्वर का नाम लेकर उनकी इच्छा को जीवन में परिणत होने देकर जो संसार के रणांगण में उतरते हैं, उन्हें अर्जुन की ही तरह निराशा का , असफलता का सामना नहीं करना पड़ता। ईश्वरेच्छा को जीवन संचालन का केन्द्र बनाने वाले की हर साँस से यही आवाज निकलती रहती है। “हे ईश्वर तेरी इच्छापूर्ण हो।” “ईश्वर तेरी इच्छापूर्ण हो।” जीवन का यही मूलमंत्र है। महापुरुषों के जीवन इसके साक्षी हैं। स्वामी दयानन्द ने अन्तिम बार


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