सशर्त सहायता

January 1963

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सृष्टि की रचना हुए बहुत दिन बीत गये। मनुष्यों को प्रखर बुद्धि और अगणित साधन सुविधाएं प्राप्त हुईं, जिसके कारण वे प्रगति पथ पर तेजी से बढ़ने लगे और सुख शान्तिपूर्वक जीवन यापन करने लगे।

यह स्थिति देर तक न रही। वे अहंकार और स्वार्थ के वशीभूत होकर आपस में लड़ने झगड़ने लगे और उनकी प्रतिभा उन्हीं के लिए विपत्ति बन गई। इस नई विपत्ति से छुटकारा पाने के लिये वे बहुत सोचते और बहुत विचार करते रहे पर कोई सफलता न मिली। अन्त में उनने सृष्टिकर्ता विधाता के पास अपनी समस्या का हल पूछने के लिए जाने का निश्चय किया।

मनुष्य ब्रह्माजी के पास पहुँचे और अपनी सारी दुख गाथा कह सुनाई। विधाता ने ध्यान पूर्वक सब कुछ सुना और आश्वासन दिया कि तुम्हारी चिन्ता दूर होगी। हम अपने प्रतिनिधि धरती पर भेजेंगे, वे देवदूत तुम्हारा सब प्रकार कल्याण करेंगे।

प्रतिज्ञानुसार उन्होंने देवदूतों को धरती पर भेजा। वे अवतार धारण कर जहाँ-तहाँ विचरण करते रहे और सुधार के विविध प्रयत्न करते रहे। पर हाय री विडम्बना। उन बेचारों को मनुष्य के कोप ही भाजन बनना पड़ा। उपहास, निन्दा, व्यंग, विरोध और भर्त्सना के तीर उन पर छोड़े गये और किसी-किसी को तो जान से ही मार डाला गया। खिन्न मन से देवदूत वापस लौट गये और उन्होंने विधाता से अपनी असफलता की गाथा कह सुनाई। वे स्तब्ध होकर सब कुछ सुनते रहे और सोचते रहे, कैसा है यह विचित्र मानव प्राणी। बहुत दिन बीत गए। मर्त्यलोक की समस्या उलझती ही गई। पारस्परिक दुर्व्यवहार से सारी धरती नरक बन गई। मनुष्यों को कोई उपाय न सूझा तो वे पुनः ब्रह्मा जी के पास पहुँचे। मनुष्य ने अभिवादन करने के उपरान्त प्रजापति से कहा-भगवन् आपने जो देवदूत भेजे थे, वे हमारा कुछ भला न कर सके, अब कोई दूसरा उपाय कीजिए। सृष्टिकर्ता ने कहा-तुम्हारा स्वार्थ और अहंकार जब तक न घटेगा तब तक हमारे पार्षद भी कुछ न कर सकेंगे। तुम्हारी शान्ति संदिग्ध ही बनी रहेगी। मनुष्य गिड़गिड़ाये और बोले-भगवन् आपकी सहायता हमें अपेक्षित है। इसके बिना हम शान्ति न प्राप्त कर सकेंगे।

ब्रह्माजी ने पुनः देवदूत भेजना स्वीकार कर लिया, पर यह शर्त लगा दी कि तुममें से जो स्वार्थ और अहंकार को घटा सकेगा उन्हीं की वे सहायता करेंगे।

मजबूरी में मनुष्य को यही स्वीकार करना पड़ा। देवदूत आते तो अभी भी हैं पर शान्ति उन्हीं को दे पाते हैं जो स्वार्थ और अहंकार छोड़कर उनकी बात सुनने को तैयार होते हैं। इस प्रकार मनुष्य की आकाँक्षा पूरी तो हुई पर आँशिक रूप में। जो अपना सुधार कर सके वे शान्ति पाते रहे और जिन्होंने केवल देवदूतों का सहारा तका, उन्हें कुछ न मिल सका। अपूर्ण मनुष्य की शान्ति आकाँक्षा इस प्रकार आज भी एक ऐच्छिक विषय बनी हुई है। विधाता की शर्त पर सहायता ही उसे प्राप्त हो रही हैं।


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