भारतमाता की स्वाधीनता और प्रतिष्ठा के लिए

January 1963

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

भारतमाता पर हुआ चीनी आक्रमण उसके प्रत्येक सपूत के लिए एक चुनौती है। माता को पद-दलित एवं अपमानित होते देख कर भी जिसका खून न खौलता हो, जिसके मन में क्षोभ और प्रतिकार की भावनाएं न उठती हों उसे मनुष्य शरीर में विचरण करने वाला नरपशु ही कहना चाहिए।

अलभ्य अवसर बार-बार नहीं-

कमाने, खाने और उलझनों को सुलझाने में लोग पूरी जिन्दगी ही समाप्त कर देते हैं। ऐसे अवसर किन्हीं विरलों के ही जीवन में आते हैं जिनमें जीवन की सार्थकता का सौभाग्य प्राप्त होता हो। मौत हर किसी की आती है, देर सवेर में सभी को मरना पड़ता है, पर लोक और परलोक को प्रशस्त करने वाली, यश को अमर बनाने वाली, कर्तव्य पालन के आदर्श संसार के सामने उपस्थित करने वाली मौत किसी भाग्यवान को ही मिलती है। जिनके नाम शहीदों की स्वर्णिम पंक्ति यों में इतिहास कारों ने लिखे हैं उन्हें पढ़ते समय हर भावनाशील अन्तःकरण में यह विचार उठते हैं कि काश, हमें भी ऐसा अवसर मिला होता, तो मनुष्य शरीर धारण करना सचमुच ही धन्य हो जाता। आज हमारा सौभाग्य ही है कि चीनी आक्रमण ने भारत के प्रत्येक सपूत के सामने त्याग और बलिदान की पुकार पर अपना शौर्य प्रदर्शित करने का अलभ्य अवसर प्रस्तुत कर दिया है।

अंधकारपूर्ण दुखद स्थिति-

इतिहास पढ़ते समय हम उस अँधेरी स्थिति का भी कहीं-कहीं परिचय पाते हैं जब थोड़े से विदेशियों ने आक्रमण करके हमारे इतने बड़े देश को पददलित किया था। इतना ही नहीं उन्होंने वे बर्बर अत्याचार भी किये थे जिनके सुनने मात्र से रोमाँच खड़े हो जाते हैं। भारत में उस समय भी शक्ति का, शौर्य का, साधनों का अभाव न था। राष्ट्र संगठित और भावनाशील रहा होता और उन नगण्य संख्या में आये हुए आक्रमणकारियों पर एक-एक मुट्ठी धूलि डाल दी जाती तो वे उसी में दब कर मर गये होते। किन्तु अपना दुर्भाग्य ही था कि आन्तरिक दुर्बलताओं में देश ग्रस्त रहा और आक्रमणकारी सैंकड़ों वर्षों तक मनचीती करते रहे। सन् 1857 में आजादी के लिए शस्त्र विद्रोह हुआ पर उसमें भी अपनी आन्तरिक दुर्बलताएं ही बाधक रहीं और वह राज्यक्रान्ति सफल न हो सकी।

इन दुखद पृष्ठों को पढ़ते समय उस समय उत्तरदायी लोगों की अकर्मण्यता पर क्षोभ होता है जो लोग प्रबुद्ध थे वे शिवाजी, राणा प्रताप,बन्दा बैरागी, गुरु गोविंद सिंह आदि की तरह राष्ट्र रक्षा को अपना जीवन लक्ष बनाकर यदि जुट गये होते तो असंख्य जनता उनके पीछे होती और भारत की एकता और वीरता के माथे पर कलंक का टिका न लगता। इन प्रसंगों पर विचार करते समय भावनाशील हृदयों में यह भाव भी उठते हैं कि यदि हम उस समय रहे होते तो कमाने खाने के गोरखधंधे में न लगे रह कर देश धर्म के लिए अपने प्राण देने वालो में-माता को पराधीनता के बन्धन से मुक्त करने में सबसे अग्रणी रहते । इस मार्ग पर चलने में जो भी कष्ट उठाने पड़ते उन्हें सहर्ष उठाते।

अरमान और पश्चाताप

इसी प्रकार जो लड़के अभी किशोरावस्था पार कर रहे हैं और पिछले स्वाधीनता संग्राम में त्याग बलिदान करने वालों की गौरवमयी गाथाएं पढ़ते सुनते हैं तो वे मन मसोस कर रह जाते हैं। ऐसा अवसर हमें अब मिलने वाला नहीं है। यदि स्वाधीनता संग्राम के दिनों में हम भी रहे होते तो किसी त्यागी और बलिदानी के कम जौहर न दिखाते। पिछली शताब्दियों में मातृभूमि में आन−बान–शान की रखवाली के लिए असंख्य देशभक्तों का रक्त बहा है। जिन्हें यह सौभाग्य मिला उनकी आत्मा स्वर्ग में अपनी कर्तव्यपरायणता के लिए गौरवान्वित हो रही होगी। और उन्हीं दिनों जो कमाने खाने और शौक मौज करने की लानत भरी जिन्दगी किसी प्रकार गुजार रहे थे, जो कुछ हो रहा था उसे देखने से आँखें बंद किये हुए थे वे जीते तो रहे होंगे, समय आने पर उन्हें भी आगे पीछे मरना तो पड़ा ही होगा, पर युग की पुकार अनसुनी करने के अपराध में उनका आत्मा धिक्कारते धिक्कारते ही मरा होगा। इतिहास तो उन पर कायरता और हीनता का घृणास्पद लाँछन सदा ही लगाता रहेगा। ऐसे व्यक्ति जहाँ कहीं भी होंगे उस समय की काहिली पर खेद और पश्चाताप की प्रकट कर रहे होंगे। वे सोचते होंगे कि हमने तुच्छ बातों में जिंदगी गुजारते हुए एक अलस्य अवसर हाथ से खो दिया।

चुनौती और कसौटी-

आज समय ने पुनः वही परिस्थितियाँ हमारे समाने पैदा कर दी हैं। वीरता और कायरता की प्रत्यक्ष चुनौती अनायास ही सामने आ खड़ी हुई है और हमें विवश कर दिया है कि किसी एक को चुन लें। चीन ने भारत पर आक्रमण करके उसी मनोवृत्ति को दुहराया है जिससे प्रेरित होकर पिछली शताब्दियों में आक्रमणकारी भारत पर हमले करते रहे हैं। लूट, शोषण और साम्राज्य ही उनका एक मात्र लक्ष्य था। चीन के लिए भारत पर आक्रमण का और कोई कारण न था। लाखों वर्षों से जहाँ कभी मनुष्यों का निवास नहीं रहा, घास पत्ता भी जहाँ नहीं जमता, पानी की ढलान के आधार पर प्रकृति ने जहाँ स्वयं ही सीमा रेखा बना दी है, इतिहास जिसके संबंध में साक्षी है उस भूमि को अपनी बनाने का बहाना करके छिपे हुए चीते की तरह शान्ति से चरती हुई गाय के ऊपर आक्रमण कर बैठने वाली नीति को अपना कर चीन ने जो कुछ किया है उसके पीछे बहाने वाला कारण तो प्रचार मात्र है, उसका वास्तविक उद्देश्य दूसरा ही है। भारत को अस्त−व्यस्त कर देना, उसे पद दलित बनाने की दुरभिसंधि ही इसका वास्तविक उद्देश्य हो सकता है।

हर नागरिक एक सैनिक-

क्या हमारे लिए उचित होगा कि इस आक्रमण को चुपचाप आँखें बन्द करके देखते रहें, और अखबार में खबरें मात्र पढ़ लेने से संतुष्ट हो जायें? अथवा यह सोचें कि लड़ाई का काम फौजी सिपाहियों का है। वे जानें, उनका काम जानें हम क्या कर सकते हैं? हम क्या करें? ऐसा सोचना किसी भी प्रकार उचित न होगा। क्योंकि अब युद्ध केवल सैनिकों से नहीं लड़े जाते। इस जमाने में गोला बारूद से ही विजय प्राप्त नहीं होती। वरन् युद्धरत देशों के हर नागरिक को लड़ाई में अपना योगदान देना होता है। इसी योगदान के ऊपर अन्तिम जीत हार निर्भर रहती है। द्वितीय महायुद्ध में जर्मनी इटली, जापान आदि देश गोला बारूद की दृष्टि से हारे थे पर वहाँ की जनता जागृत होने से उन पराजितों को भी गुलाम न बनाया जा सका। वे देश भी आज स्वाधीनों की ही पंक्ति में खड़े हैं। इसके विपरीत जहाँ की जनता प्रबुद्ध नहीं हुई है वह अफ्रीका महाद्वीप के अधिकाँश भाग पर गोरे उसी प्रकार शासन कर रहे हैं जैसा कि सामंतवादी जमाने में निरीह जनता पर किया जाया करता था।

युद्ध मोर्चे का व्यापक क्षेत्र--

देश भक्ति की भावनाओं से ओत प्रोत नागरिक भी आज के जमाने में युद्ध मोर्चे पर लड़ने वाले सैनिकों की तरह ही महत्वपूर्ण सिद्ध होते हैं। लड़ाई केवल मोर्चे पर ही नहीं जीती जाती वरन् वास्तविक युद्धस्थल खेतों-खलिहानों, कारखानों और जनता के हौंसले में सन्निहित होता है। आज के जमाने में युद्ध बड़े खर्चीले होते हैं। इसलिए उसका प्रभाव हर नागरिक पर पड़ता है। युद्ध साधनों को जुटाने के लिए हर नागरिक को अपने जरूरी खर्चो को घटा कर रक्षा व्यवस्था की पूर्ति करनी पड़ती है। यदि इसमें ढील रहे तो आर्थिक संतुलन अस्त−व्यस्त हो जाने से युद्ध मोर्चे पर उसका पड़ता है और जीत की संभावना घटती जाती है।

आर्थिक साधनों का युद्ध जीतने पर आज भारी प्रभाव पड़ता है, इसलिए नागरिकों को दान या टैक्स के रूप में उसे जुटाना ही पड़ता है। यह प्रक्रिया भार रूप समझ कर नहीं वरन् देशभक्ति की भावनाओं से ओतप्रोत होकर की जानी चाहिए। प्रसन्नता की बात है कि गरीब और मध्यम श्रेणी के नागरिक इस परीक्षा में अनुपम उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं। विदेशों से युद्ध सामग्री मँगाने के लिए स्वर्ण की आवश्यकता पड़ी है तो भारत की ललनाएं अपनी सजावट शोभा को देश की स्वाधीनता की तुलना में तुच्छ समझ कर प्रसन्नतापूर्वक आभूषणों का दान कर रही हैं। गरीब भी अपने रोटी कपड़े में कमी करके राष्ट्र रक्षा के लिए यथासंभव देने में कुछ कमी नहीं रहने दे रहे है।

धन और जन की माँग-

धन शक्ति के समान ही जन शक्ति की आवश्यकता युद्ध में रहती है। सैनिकों के द्वारा ही तो मोर्चे सँभाले जाते हैं और वे ही तो शत्रु की गोली के आगे सीना तानकर चलते हैं। दुश्मन के जहरीले दाँत तोड़ने का उत्तरदायित्व उन्हीं के भुज दंडों पर निर्भर रहता है। सेना की क्षमता, साहस और युद्ध कौशल द्वारा ही तो आक्रमणकारियों का मुँह मोड़ा जाता है। इस कार्य के लिए नारियाँ अपने सुहाग सर्वस्व पति को भारत माता के लिए अर्पित करती है। माताएँ अपने से अधिक पूज्य भारत माता की लाज बचाने के लिए अपने गोदी के खिलाये बच्चों को मंगल तिलक करके रणस्थल में भेजते हुए गर्व अनुभव करती हैं। जो लड़ाई पर नहीं जा पाते अपने शरीर का एक अंश-रक्त-घायल सैनिकों के शरीर में डालने के लिए देते हैं और मरणासन्नों को पुनः जीवन देकर उन्हें पुनः युद्ध मोर्चे पर जा सकने योग्य बनाते हैं।

व्यामोह में ही न पड़े रहें-

धन जन की, तन मन की सहायताएँ चारों ओर से जुटाये जाने पर राष्ट्र की युद्ध शक्ति सबल होती है और उसी के बल पर विजय की संभावना सुनिश्चित बनती है। आज प्रत्येक भारतीय नागरिक के लिए देशभक्ति की परीक्षा का समय है। ये समय जीवन में कभी-कभी आते हैं। इतिहास की पुनरावृत्ति के क्षण अब पुनः सामने आ पहुँचे हैं। मातृ भूमि की स्वाधीनता और प्रतिष्ठा बचाने के लिए शिवाजी, प्रताप, गुरु गोविंद सिंह, लक्ष्मी बाई, नाना साहब, आदि बनने के लिए हममें से प्रत्येक को अवसर आज प्राप्त है। जो इस समय में स्वार्थ और व्यामोह में पड़े रहेंगे वे अवसर चूकेंगे और उन्हें पीछे पश्चाताप ही करते रहना पड़ेगा।

योगी अरविन्द की भविष्यवाणी

मदर इण्डिया के 11 नवम्बर 1950 के अंक में श्री अरविन्द ने अपने सम्पादकीय लेख में लिखा था कि चीन के तिब्बत के सम्बन्ध में जो नीति अपनायी है उसका बुनियादी उद्देश्य यह है कि चीन की सीमा को बिल्कुल भारत से मिला दिया जाय और वहाँ समय आने पर उपयुक्त राजनीति अपनाकर भारत पर हमला करने के लिए तैयार रहा जाय। इस स्थिति में तभी कुछ अंतर आयेगा यदि भारत रूसी गुट के साथ शामिल हो जाय। लेकिन माओ या स्तालिन के प्रकोप से बचने के लिए उनके साथ मिल जाना किसी दृष्टि से उपयुक्त नहीं कहा जा सकता। यह तो ऐसी बात होगी जिससे हमारे आदर्शों और महत्वकाँक्षाओं का खात्मा हो जायगा। वास्तव में जो तरीका हमारी रक्षा का हो सकता है वह यह है कि चीन के विरुद्ध कड़ाई का रुख अपनाया जाय, उसके घृणित इरादों की खुले शब्दों में निन्दा की जाय बिना किसी छिपाव दुराव के अमरीका के साथ शामिल हुआ जाय।

मदर इण्डिया के 11 नवम्बर 1950 के अंक में श्री अरविन्द ने अपने सम्पादकीय लेख में लिखा था कि चीन के तिब्बत के सम्बन्ध में जो नीति अपनायी है उसका बुनियादी उद्देश्य यह है कि चीन की सीमा को बिल्कुल भारत से मिला दिया जाय और वहाँ समय आने पर उपयुक्त राजनीति अपनाकर भारत पर हमला करने के लिए तैयार रहा जाय। इस स्थिति में तभी कुछ अंतर आयेगा यदि भारत रूसी गुट के साथ शामिल हो जाय। लेकिन माओ या स्तालिन के प्रकोप से बचने के लिए उनके साथ मिल जाना किसी दृष्टि से उपयुक्त नहीं कहा जा सकता। यह तो ऐसी बात होगी जिससे हमारे आदर्शों और महत्वकाँक्षाओं का खात्मा हो जायगा। वास्तव में जो तरीका हमारी रक्षा का हो सकता है वह यह है कि चीन के विरुद्ध कड़ाई का रुख अपनाया जाय, उसके घृणित इरादों की खुले शब्दों में निन्दा की जाय बिना किसी छिपाव दुराव के अमरीका के साथ शामिल हुआ जाय।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118