शास्त्रों और ऋषियों द्वारा गायत्री की महिमा।

July 1948

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ऋषयो वेद शास्त्राणि सर्वे चैव महर्षयः। श्रद्धया हृदि गायत्रीं धारयन्ति स्तुवन्ति च।।

(ऋषयः) ऋषि लोग (वेद शास्त्राणि ) वेद और शास्त्र (च) और (सर्वे महर्षयः) समस्त महर्षि (गायत्री) गायत्री को (श्रद्धया) श्रद्धा से (हृदि धारयनित) हृदय में धारण करते हैं। (च) और (स्तुवन्ति) उसकी स्तुति करते हैं।

सत्य इतना स्पष्ट होता है कि उसके सम्बन्ध में प्रायः सभी विचारशील व्यक्तियों की सम्मति एक होती है। दो और दो मिल कर कितने होते हैं, इस प्रश्न को कितने ही व्यक्तियों से पूछा जाय, सबका एक ही उत्तर होगा-चार। इस समय दिन है या रात? इस प्रश्न का उत्तर सभी विचारवान व्यक्ति एक ही देंगे, सूर्य निकल रहा होगा तो कहेंगे कि इस समय दिन है, सूर्य अस्त हो गया होगा तो कहेंगे कि अब रात है। यह प्रश्न चाहे जितने व्यक्तियों से पूछा जाय यदि उनका मस्तिष्क स्वस्थ और परिपक्व दशा में है तो एक ही प्रकार के उत्तर मिलेंगे।

(3) सत्यता से भरे हुए तथ्य इतने स्पष्ट होते हैं कि उनके संबंध में सभी को एक होना पड़ता है। अपनी कमजोरी के कारण कोई उन्हें कार्य रूप में परिणत करने में समर्थ भले ही न हो पर जहाँ तक मान्यता का प्रश्न है वहाँ तक प्रायः सभी विचारवान व्यक्ति सहमत हो जाते हैं। झूठा मनुष्य भी प्रत्यक्ष रूप से सत्य की महत्ता से इनकार नहीं कर सकता, ईमानदारी की श्रेष्ठता का खंडन करने का साहस चोर में भी नहीं होता गुपचुप रूप से कोई चाहे कुछ करे प्रत्यक्ष रूप से सचाई का विरोध नहीं कर सकता। कारण वह है कि सत्य की श्रेष्ठता सर्वोपरि है। उसमें अगर मगर भले ही जोड़ी जाय किन्तु स्पष्ट रूप से उसका विरोध नहीं हो सकता। जब चोरों की यह बात है तो श्रेष्ठ व्यक्तियों का तो कहना ही क्या? उन्हें तो सत्यता के तत्वों पर सहमत होना ही चाहिए। फिर चाहे ऋषि मुनि और सन्त महात्माओं के बारे में तो यह सूर्य की तरह स्पष्ट है कि वे लोग जिस बात को सत्य, उचित, आवश्यक एवं उपयोगी देखेंगे, उसके सम्बन्ध में एक मत होंगे ही।

गायत्री मंत्र की महत्ता एक ऐसी ही स्पष्ट सचाई है जिसके आगे सभी ऋषि मुनियों ने, सभी धर्म ग्रन्थों ने समान रूप से मस्तक झुकाया है, एक स्वर से उसका गुणगान किया है, एक सम्मति से उसका महात्म्य वर्णन किया है। गायत्री की महिमा का वर्णन इतने महा पुरुषों ने, इतने आप्त ग्रन्थों ने इतने विस्तार एवं स्पष्ट रूप से किया है कि उसके संबंध में किसी प्रकार का सन्देह रहने की गुंजाइश नहीं बचती। आप्त पुरुषों की प्रणाली यह रही है कि वे पहले किसी बात को परीक्षा की कसौटी पर कसते हैं, उसका मंथन करते हैं, सूक्ष्म दृष्टि से उसके अदृष्ट एवं दूरवर्ती भावी परिणामों पर विचार करते हैं। अपने अनुभव में लाते हैं,तब किसी बात का प्रकाश करते हैं। गायत्री को इन सब कसौटियों पर कसा गया है और जब देखा गया कि यह महिमामय तत्व एक उच्चकोटि का रत्न भण्डार है तब उसका सर्व साधारण के लिए प्रकाश किया गया है।

उसका साधारण प्रकाश नहीं किया गया है वरन् इतना महत्वपूर्ण समझा गया है कि प्रतिदिन नित्य, बिना नागा केवल एक बार नहीं अनेक बार, उसको अपनाने का आग्रहपूर्ण आदेश किया गया है। हम देखते हैं कि संध्यावंदन को धर्म शास्त्रों ने इतना ही आवश्यक माना है जितना कि भोजन निद्रा, स्नान आदि नित्यकर्मों को माना गया है। संध्या करना आवश्यक है, लाभप्रद है, अनिवार्य है इन तथ्यों को मनुष्य के मस्तिष्क पर जमाने के लिए अनेकों विधि वचन धर्म ग्रन्थों में मिलते हैं। ऐसे असंख्यों श्लोकों, मंत्रों, सूत्रों एवं आदेशों से हमारे आर्ष ग्रन्थ भरे पड़े हैं, उनमें अनेक प्रकार से यह कहा गया है कि सन्ध्या करना आवश्यक है। संध्या को प्रातः, मध्याह्न, सायंकाल तीन बार करने का विधान है, पर प्रातः सायं दो बार या कम से कम एक बार प्रातःकाल करना तो अनिवार्य जैसा बताया है। सन्ध्या की अनेकों पद्धतियाँ प्रचलित हैं, ऋग्वेदीय, यजुर्वेदीय, सामवेदीय संध्याएं तथा आर्यसमाजियों की संध्याएं पृथक हैं। इन सभी सन्ध्याओं में अन्य प्रकार के अन्तर भले ही हों पर गायत्री मंत्र सब में अवश्य होगा। बिना गायत्री के संध्या हो ही नहीं सकती। इस अनिवार्यता में एक बात स्पष्ट है कि गायत्री को हर हालत में प्रतिदिन कई कई वेलाओं में, अनेक वार जपना, अनेक वार हृदयंगम करना आवश्यक है। इस विधान पर विचार करने से सहज ही पता चल जाता है कि गायत्री के अंतर्गत कोई ऐसे तत्व हैं जिनकी हमारे आन्तरिक शरीर को उतनी ही आवश्यकता है जितनी भोजन की। भोजन भी तीन बार तक किया जाता है, गायत्री की आवश्यकता भी तीन बार है। कोई कोई निर्बल, वृद्ध या रोगी उदर की कमजोरी के कारण एक बार भोजन करना ही काफी समझते हैं इसी प्रकार अध्यात्मिक निर्बलता वाले व्यक्ति रुचि मंदता के कारण एक वेला में ही गायत्री जपते हैं। जिस प्रकार भोजन को अनेक ग्रासों में बार बार खाया जाता है उसी प्रकार गायत्री को भी अमुक संख्या में बार बार दुहराया जाता है।

गायत्री भोजन जैसी उपयोगी इसलिए है कि उसमें आत्मिक बल का केन्द्र है। बुद्धि की शुद्धि, उदर शुद्धि से भी अधिक आवश्यकता है। पेट में मल भरे हों विषैले पदार्थ जमा हों तो शरीर का स्वास्थ्य दिन दिन क्षीण होता जायगा भले ही कीमती भोजनों को खाया जाता है, इसी प्रकार यदि बुद्धि अशुद्ध है विकृत है, नीच तत्वों में लिप्त है तो उस बुद्धि से आत्म कल्याण नहीं हो सकता, सुख शान्ति का दर्शन नहीं हो सकता, चाहे कोई कितना ही बड़ा, कितना ही मूल्यवान कर्मकाण्ड क्यों न करें। उदर की शुद्धि होने पर किया हुआ भोजन शुद्ध रक्त बनाता है और बल वीर्य की वृद्धि करता है, इसी प्रकार शुद्ध बुद्धि से किये गये कार्य एवं विचार ही आत्मबल को बढ़ाने एवं आत्म कल्याण की ओर ले जाने वाले होते हैं। यदि किसी झरने के उद्गम में विष की खान हो तो उसका जल देखने में चाहे कितना ही शीतल, स्वच्छ स्वादिष्ट क्यों न हो पर उसको पीने से अनिष्टकर परिणाम ही उत्पन्न होगा, अशुद्धि बुद्धि का भी यही हाल है उससे चाहे कैसे ही चमत्कारी कार्य क्यों न कर दिखाये जायं, चाहे कितना ही धन, यश, वैभव इकट्ठा कर लिया जाय पर परिणाम बुरा ही होगा। इसलिए मूल केन्द्र को शुद्ध करना, अन्य सब कार्यों की अपेक्षा अधिक उपयोगी देखकर उसकी अनिवार्यता का प्रतिपादन किया गया है और गायत्री साधना को भोजन करने जैसा दैनिक कृत्य नियुक्त किया गया है।

सर्व साधारण के लिए यह आदेश किया गया है कि गायत्री को केवल एक विशेष साधना समझ कर उसकी उपेक्षा न करो वरन् एक अनिवार्य नित्यकर्म समझ कर प्रतिदिन कई कई बार उसमें गर्भित तथ्य को अपने अन्तःकरण में धारण करो। बुद्धि की शुद्धि करना, उसे सात्विक बनाना, आत्म निर्माण का सर्व प्रथम कार्य है, गायत्री इसकी शिक्षा देती है और सफलता प्रदान करने का मार्ग बताती है। यह इतना बड़ा लाभ है जिसकी तुलना और किसी लाभ से नहीं हो सकती। बुद्धि की शुद्धता प्राप्त होने पर आत्मिक आनंदों का समुद्र उमड़ पड़ता है और साथ ही भौतिक जगत् में जो उन्नति होती है वह स्थायी, एवं प्रतिष्ठा युक्त होती है, उस समृद्धि को भोगने से मनुष्य को भोग का सच्चा आनन्द मिलता है। अशुद्ध बुद्धि से उपार्जित किये हुए भोग ऐसे हैं जैसे शरीर में बादी भर जाने से उसका फूल कर फफ्फस हो जाना, ऐसे फूल कर फफ्फस हुए मनुष्य बाहर से चाहे कैसे ही मोटे दिखाई पड़े पर भीतर से उनका वह मोटापा उनके लिए भार स्वरूप, कष्टदायी होता है। श्लीपद रोग में पैर मोटे हो जाते हैं, शोथ में शरीर सूज जाता है, जलोदर में पेट फूला रहता है, अण्डवृद्धि में अण्डकोष बढ़ जाते हैं, यह सब बढ़ोतरी बाहर किसी नासमझ को सम्पत्ति भले ही दिखती हो पर भुक्तभोगी जानता है कि यह बढ़ोतरी मेरे लिए कितनी विपत्ति है। यही बात अशुद्ध बुद्धि से एकत्रित हुई सम्पत्ति के बारे में है। उसे पाकर कोई आत्मा सुखी नहीं हो सकती, उससे तो विपत्ति, अशान्ति, एवं उद्विग्नता ही बढ़ती है। सुख तो उन भोगों से ही मिलेगा जो सद्बुद्धि से उपार्जित किये गये होंगे। गायत्री हमारी बुद्धि को शुद्ध करती है, इसलिए वह आत्मिक आनन्दों के अतिरिक्त सच्चे भौतिक सुखों को को भी देती है। इसीलिए उसे “भुक्ति मुक्ति प्रदायिनी” कहा गया है। उससे भोग और योग दोनों की प्राप्ति होती है।

हमारे पूजनीय ऋषियों को, आर्ष ग्रन्थों के प्रणेताओं को, आत्मतत्व के सूक्ष्मदर्शी आचार्यों को जो बात लोक हित के लिए अधिक उत्तम प्रतीत हुई है। गायत्री को उन्होंने ऐसा ही पाया-इसलिए उन सबने एक मत से, एक स्वर से गायत्री का महत्व बताया है। साधना क्षेत्र में और किसी साधना का इतना सर्व सम्मत समर्थन नहीं हुआ जितना कि गायत्री का हुआ है अपने अपने ढंग से सभी ने उसका समर्थन किया है। आगे कुछ ऐसे ही अभिवचन दिये जाते हैं जिससे पाठक गायत्री के सम्बन्ध में आर्ष ग्रन्थों और आप्त पुरुषों का अभिमत जान सकें।

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