निराशा में आशा

July 1948

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(श्री प्रकाश नारायणजी मिश्रा, मुन्द्रावज)

मुझे 10 वर्ष की अवस्था में गायत्री मंत्र की दीक्षा दी गई थी और तभी से मैं इस महा मंत्र की साधना करता हूँ मैंने इसका लाभ स्वयं आँखों देखा है। मेरे विद्यार्थी जीवन का अनुभव है कि मैं कक्षा 10 में अध्ययन करता था कि दैवी कुचक्र से छमाही परीक्षा के समय मेरे परिवार के आधार मेरे ताऊजी का स्वर्गवास हो गया। परीक्षा न दे सका और इसके 3 माह बाद ही मेरे पिताजी का देहान्त हो गया। मेरे अध्ययन में महा संकट उपस्थित हुए जब मेरे पिताजी का देहान्त हुआ वार्षिक परीक्षा के केवल 25 दिन रह गये थे। परन्तु मैं इसी महा मंत्र के विश्वास पर डटा रहा पिताजी की क्रिया समाप्त कर परीक्षा देने गया सफल होने की कोई आशा न थी पर परीक्षा के पश्चात ग्रीष्मावकाश में मैंने इस महामंत्र की साधना बढ़ा दी और इसी के प्रभाव से मैं परीक्षा में सफल हो गया।

इसके पश्चात मैंने जितने भी कार्य इस मंत्र के विश्वास पर किये अभी तक सफल होते गये हैं।

मेरे एक पितामह थे उनको गायत्री का ही इष्ट था। एक बार वे शत्रुओं के कुचक्र में पड़ गये थे और शत्रु उनको जेल भिजवाने का प्रयत्न कर रहे थे परन्तु सवा लक्ष महा मंत्र के जप से वे इस कुचक्र से बच गये और उनका शत्रु नष्ट हो गया यह मेरे आँखों देखा अनुभव है। वे प्रति दिन 10 माला जपा करते थे उनका देहान्त अभी 3 अप्रैल 48 को हुआ है, मृत्यु पर्यन्त भी उनके मुख की आभा ऐसी जान पड़ती थी मानो हँस रहे हैं। इस महामंत्र के विषय में जितना लिखा जावे कम है।

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