हमारा व्यक्तिगत अनुभव

July 1948

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(श्रीराम शर्मा आचार्य सम्पादक ‘अखंडज्योति’)

ईश्वर की कृपा से, उसके आशीर्वाद से हमारा जीवन प्रारंभ से लेकर अब तक साधनामय रहा है। स्वाध्याय, चिन्तन, आत्मनिर्माण, उत्तर दायित्वों की पूर्ति और लोक सेवा के साथ हमें आध्यात्मिक साधनाएं करने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ है। अनेक सुयोग्य और कई अयोग्य गुरुओं के संरक्षण में हमने अनेकों, दीर्घकालीन कष्ट साध्य साधनाएं की हैं, अनेकों तपश्चर्याओं में अपने को काफी तपाया है। इस लम्बे साधना काल में हमने जो अनुभव प्राप्त किये हैं, उनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि अन्य सब साधना विधियों की अपेक्षा गायत्री की साधना अपेक्षाकृत सरल है, शीघ्र सफल होने वाली और अधिक उत्तम परिणाम उत्पन्न करने वाली है। इस साधना में वैसा कोई विक्षेप नहीं आता जैसा कि अन्य साधनाओं में आता है।

ईश्वर प्राप्ति और आत्म दर्शन की दक्षिण मार्गी साधनाएं निर्वाध हैं। कथा, कीर्तन, भजन, व्रत, उपवास से आत्म शुद्धि होती है। इन्हें निरंतर करते रहने से मन के कषाय कल्मष दूर होते जाते हैं। यह पिपीलिका मार्ग कहलाता है। चींटी धीरे धीरे चलती हुई भी कालान्तर में सुदूर देशों की यात्रा कर लेती है।

दूसरा विहंगम मार्ग है। यह जल्दी का रास्ता है। इसे हट योग या वाममार्ग भी कहते हैं। इस मार्ग पर चलने वाला उग्र परिश्रम करता है, कष्ट साध्य तपश्चर्याएं करता है और उस साहसिकता के आधार पर देर के रास्ते को जल्दी ही पार कर लेता है। इस मार्ग में ऐसी छोटी पगडंडियाँ भी हैं जो किसी छोटी सकाम प्रयोजन को पूरा करने में विशेष रूप से फलवती होती हैं। ऐसी पगडंडियों को तंत्र मार्ग कहते हैं। हमने इन तीनों मार्गों का अभिगमन काफी दूर तक किया है और उसके भले बुरे परिणामों को देखा है।

इस साधना काल में हमें व्यक्तिगत रूप से कितने ही अनुभव हुए हैं। राजमार्ग में-पिपीलिका मार्ग में कथा, कीर्तन, संध्या, पूजा, प्रमुख हैं। इस मार्ग पर साधक को एक निष्ठा के साथ लम्बे समय तक चलते रहने की तैयारी करनी पड़ती है। यदि उसका मन फल की ओर झुका या साधना के परिणामों को स्थूल दृष्टि से नापना शुरू किया था, नवीनता के अभाव में मन ऊबने लगा तो उत्साह ठंडा पड़ जाता है। देखा है कि पिपीलिका मार्ग पर चलने वाले साधक कुछ समय पश्चात हतोत्साह हो जाते हैं और अपना प्रयत्न छोड़ बैठते है। हठ योग का मार्ग कष्ट साध्य है। उसमें इतनी गर्मी में अपने का तपाना होता है कि यदि साधक में पर्याप्त साहस, धैर्य और शौर्य न हो तो उसके पैर लड़खड़ा जाते हैं और थोड़ा बहुत आगे चल कर वह बैठ जाता है। तंत्र शीघ्र फलदाता है पर उसमें खतरे काफी हैं। साधना काल में तलवार की धार पर होकर गुजरना होता है। थोड़ी भी भूल हो जाने पर अनर्थ हो सकता है। उस साधना के समय में विशेष रूप से ऐसे भय और प्रलोभन उपस्थित होते हैं जिससे फिसल जाने से सारा प्रयत्न निष्फल हो जाता है और साधना भ्रष्ट होने के कारण कोई विपत्ति सिर पर आ जाती है।

राजमार्ग से प्रभु प्राप्ति और आत्म दर्शन का पारमार्थिक लाभ होता है। हठ मार्ग से अपने में कोई चमत्कारिक शक्तियाँ एवं सिद्धियाँ उत्पन्न होती हैं। तंत्र से कोई विशेष प्रयोजन सिद्ध होता है और किसी अदृश्य प्राणी से ऐसा संबंध हो जाता है कि वह साधक का आज्ञानुवर्ती बनकर उसके बहुत से ऐसे कार्य पूरे करता है और साधारण नीति से होने कठिन हैं। इन तीनों मार्गों को क्रमशः सत, रज, तम का मार्ग कह सकते हैं। चूँकि लोगों में से अधिकों की वृत्ति तम की ओर होती है इसलिए उन्हें तंत्र का मार्ग रुचता है। उससे कम रज में प्रवृत्त होते हैं वे साधना द्वारा राजसिक फल चाहते हैं। बहुत कम संख्या के लोग सत् प्रधान हैं, इसलिए ईश्वर प्राप्ति के लिए विरले ही साधना को पकड़ते हैं। तीनों मार्ग की साधनाएं साधारणतः अलग अलग हैं। कई बार तो उनमें भारी अंतर होता है। राजमार्गी को अहिंसा का पालन करना होता है। राजमार्गी को अहिंसा का पालन करना होता है दूसरी ओर तंत्र मार्गी शाक्त, पशु बलि करने से भी नहीं हिचकते।

साधना क्षेत्र के इन वन उपवनों में परिभ्रमण करने के उपरान्त हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि गायत्री साधना में उपरोक्त तीनों भागों का समन्वय है। उससे तीनों प्रयोजन सिद्ध होते हैं और जो विघ्न अन्य साधनाओं में होते हैं वे इसमें नहीं होते और सफलताएं अपेक्षाकृत अधिक शीघ्रता पूर्वक मिलती है। हम ऐसे महात्माओं और महापुरुषों को जानते हैं जिन्होंने केवल गायत्री का आश्रय लेकर आत्मसाक्षात्कार किया है और ईश्वर के समीप पहुँचे हैं। समाधि सुख, परमानंद, जीवन मुक्ति और तुरीयावस्था का सर्वोच्च सुख उन्होंने गायत्री की कृपा से प्राप्त किया है। हमने अपनी आँखों ऐसे सिद्ध पुरुष देखे हैं, उनके साथ सहवास किया है जिन्होंने असाधारण आत्मिक बल संग्रह किया है और चमत्कारी सिद्धियाँ दिखाने की क्षमता प्राप्त की है। उनको वह सिद्धियाँ गायत्री द्वारा ही मिली हैं। हम ऐसे ताँत्रिकों को भी जानते हैं जिनका उपास्य इष्ट गायत्री है और उसी के द्वारा वे अन्य ताँत्रिकों की भाँति पिशाच विद्या के सम्पूर्ण कार्य तथा काम्य प्रयोजनों में सफल होते हैं। इस प्रकार हमने देखा है कि अकेली गायत्री में वह शक्ति मौजूद है जिससे विविध स्वभावों के मनुष्य अपने उद्देश्यों को लेकर अध्यात्म मार्ग में प्रवेश कर सके।

अपने इस निष्कर्ष के आधार पर हमने अपनी साधना का केन्द्र गायत्री को नियुक्त किया है। सवा करोड़ जप का पुरश्चरण कर चुकने पर हमें दृढ़ विश्वास हो गया है कि इससे कम परिश्रम और कम खतरे में इससे अधिक सत्य परिणाम उपस्थित करने वाला साधन शायद ही कोई होगा। जो सत्य परिणाम हमारे स्वयं के अनुभव में आये हैं उन सबका वर्णन यहाँ संभव नहीं, पर इतना कहा जा सकता है कि आत्मिक पवित्रता, ईश्वर की ओर प्रगति, तथा कष्ट ग्रस्त व्यक्तियों की सेवा में गायत्री शक्ति ने हमें महत्वपूर्ण सहायताएं दी हैं और संकटपूर्ण क्षणों में हमारा प्रत्यक्ष पथ प्रदर्शन किया है।

अपने व्यक्तिगत अनुभव तथा आर्य ग्रन्थों और आप्त पुरुषों का आदेश दोनों ही प्रकार से गायत्री के महत्व पर हमें अटूट श्रद्धा हुई है। उसी के आधार पर अपने पाठकों से इस पथ का अनुसरण करने का साहस हमने किया है। हमारा विश्वास है कि जो गायत्री का आश्रय लेगा वह खाली हाथ न लौटेगा।

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