गायत्री की कृपा से प्रिंसिपल बना

July 1948

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(पं0 लक्ष्मीकान्त झा व्याकरण साहित्याचार्य, झाँसी)

गायत्री सिद्ध श्री काठिया बाबा

वृन्दावन में कुछ ही समय पूर्व एक परमसिद्ध महात्मा हुए हैं, जिनका पूरा नाम तो महात्मा रामदास था। पर काठ की कोपीन लगाने कारण उन्हें काठिया बाबा कहा जाता है। उन्हें अपनी साधना का वर्णन इस प्रकार किया है-

“विद्याध्ययन करने के अनन्तर मैं पितृगृह में लौट आया। मुझे सब से पहले गायत्री मन्त्र को सिद्ध करने की इच्छा हुई। हमारे ग्राम अन्त भाग में एक स्थान पर एक विशाल वट वृक्ष था, यह वृक्ष हमारे पिता के बगीचे के समीप था। मैंने गायत्री मन्त्र का शाप, शापोद्धार और कवच आदि यथा विधि सीखकर उस वट वृक्ष के नीचे बैठकर और विधि विधान के साथ गायत्री मंत्र का जप करना आरंभ कर दिया सवा लक्ष जप करने से यह मंत्र सिद्ध होता है यह जानकर मैंने इसी मात्रा में जाप करना निश्चित किया और एकान्त मन से जप करना आरंभ कर दिया। जब कि एक लक्ष जप पूरा हो गया और पच्चीस हजार जप करना शेष रहा तभी अकस्मात् आकाशवाणी हुई उस वाणी ने मुझे इस तरह आदेश दिया-बच्चे तुम शेष का पच्चीस हजार जप ज्वालामुखी पर जाकर पूर्ण करो। इस तरह करने पर मुझे सिद्धि मिलेगी।

इस आकाशवाणी को सुनने के पश्चात् मैं खूब उत्साहित हुआ और शीघ्र ही ज्वालामुखी की तरफ चल दिया। मेरे भाई का एक बेटा जो समवयस्क था, मेरा बड़ा सहचर था, वह मेरे साथ हो लिया। ज्वालामुखी और हमारे पिता के घर में 30-40 कोस की दूरी का अन्तर है। रास्ते में ही हमें एक तेजपुँज महात्मा मिले उन्हें देखकर मैं उनकी ओर आकर्षित हुआ और मैंने उनसे वैराग्य की दीक्षा ले ली। मेरा साथी जो मेरा भ्रातृ बेटा था उसने वैरागी होने से मुझे रोका परन्तु मैंने उसकी तरफ ध्यान नहीं दिया तब वह घर लौट गया और पिता को लिवा लाया। मेरे संन्यासी हो जाने का उन्हें दुःख हुआ और वे गृहस्थ में लौट आने के लिए कहने लगे। डर और भय भी दिखाया जब वे सफल न हुए तो मेरे गुरुजी को कहकर मुझे अपने गाँव ले आये। वहाँ मैंने अपने उसी वट वृक्ष के नीचे आसन लगाया जहाँ कि पहले गायत्री की साधना की थी। उसी रात हठात् आकाशमण्डल का भेदन करती हुई गायत्री देवी आविर्भूत हुईं और बोलीं-“वत्स, मैं तुम्हें सिद्ध हो गई। अब तुम्हें और अधिक जप करने की आवश्यकता नहीं। मैं प्रसन्न हूँ, तुम वर माँगो।” मैंने यथा-विधि अभिवादन पूर्वक कहा-माता, मैं इस समय साधु हो गया हूँ, मैंने संसार छोड़ दिया है, अब कोई वासना नहीं है। इस समय किसी भी वर को माँगने की आवश्यकता नहीं है। तुम मेरे ऊपर प्रसन्न रहो, यही मेरा वर है। देवी एवमस्तु कहकर अन्तर्ध्यान हो गई ।”

गायत्री की सिद्धि प्राप्त कर लेने के अनन्तर ऐसा कुछ भी शेष नहीं था जो काठिया बाबा को प्राप्त न हो। उनको दूर दृष्टि प्राप्त थी, वे कहीं भी कोई भी बात जान लेते थे और यदि उनके शिष्यों पर संकट आता तो वे उसे दूर भी कर देते। वाक् सिद्धि तो बड़ी विलक्षण थी। प्रायः जो महापुरुष होते हैं वे अपने आपको छिपाये रखते हैं। बाबाजी में आत्मगोपन की अलौकिक शक्ति थी। द्रव्य का अभाव तो कभी देखा नहीं गया यहाँ तक कि उनके परिचारकों को आश्चर्य होता था। बाबाजी काठ की लंगोटी लगाते थे, उनके परिचारक समझते कि बाबाजी ने बहुत सी अशर्फी जमा कर लीं हैं और वे वहीं रखते हैं और इसीलिए वे काठ की लंगोटी लगाये हैं। उनके परिचारकों ने उन्हें तीन बार विष-संखिया-और सो भी एक साथ दो दो तोला तक, लेकिन फिर भी उसका उन पर विशेष असर नहीं हुआ ।

इन्द्रिय जय की शक्ति तो उनकी गजब की थी, उन्हें कई बार-कई स्त्रियों ने गिराने की कोशिश की परन्तु किसी को सफलता नहीं मिली।

उनका आत्मतेज इतना बढ़ गया था कि कोई भी उनके सामने नहीं ठहर पाता था, जहाँ वे जाते बड़े से बड़े तक सब उन्हें आत्म समर्पण कर देते ।

अकेली गायत्री की साधना ने ही उन्हें महान सिद्ध बना दिया था। वे करने और न करने प्रत्येक कार्य को करने की शक्ति रखते थे और इसे उन्होंने कई बार अपने भक्तों के कल्याण के लिए प्रकट भी किया। लेकिन वे विज्ञापन और प्रसिद्धि से हमेशा ही दूर रहे। अपनी सिद्धता का कभी उन्होंने प्रदर्शन नहीं किया।

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